भीष्म का द्वंद्व # Bhishm Ka Dvandv # Vinod Babbar
भीष्म का द्वंद्व
भीष्म मेरे प्रिय पात्र हैं। उनका ज्ञान अभिभूत करता है। वीरता चमत्कृत करती है। लेकिन उनकी बेबसी द्रवित करती है। उनके प्रति सहानुभूति भी होती है। लेकिन कुछ प्रसंग ऐसे हैं जहां उनसे मात्र मतभिन्नता नहीं, विरोध है। शायद यह प्रश्न उठे कि जिससे असहमति नहीं, विरोध भी है तो वह प्रिय क्यों?
मानव है तो मानवीय दुर्बलताएं होगी ही। लेकिन किसी को प्रिय मानने का अर्थ यह भी नहीं कि उसे यथावत स्वीकार किया जाए। यदि उस की आंख में आंख डालकर उसके गुण दोषों की चर्चा नहीं कर सकते तो कैसा प्रिय। ऐसा इसलिए आवश्यक है, यदि वह इतिहास का पात्र है तो उसकी गलतियों से सबक लेकर हम अपने वर्तमान और भविष्य को संवार सकते हैं। और यदि सौभाग्य से वह वर्तमान है तो उससे खुलकर संवाद करना, ‘कुपथ निवार- सुपथ चलावा’ हमारा अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है। इसके लिए विवेक से अधिक लोक निंदा के भय से मुक्त होने का साहस चाहिए। भीष्म जैसे असाधारण व्यक्तित्व को प्रणाम करते हुए उनके द्वंद्व की चर्चा करने का दुस्साहस कर रहा हूं।
अठारह दिन के महाभारत के दसवें दिन कौरवों के सेनापति पितामह भीष्म शिखंडी की आड़ में अर्जुन द्वारा चलाए गए बाणों से छलनी होकर शरशैय्या पर लेट गये। सेनापति बदल कर कौरवों ने युद्ध जारी रखा। लेकिन युद्ध के परिणाम को नहीं बदले जा सके। अठारह दिन में अंततः विनाश की विभिषिका के साथ युद्ध तो संपन्न हो गया लेकिन भीष्म का जीवन संग्राम अभी जारी था। इच्छा मृत्यु का वरदान होते हुए भी उन्होंने शरीर नहीं त्यागा था, क्योंकि हस्तिनापुर को भविष्य के प्रति पूरी तरह से निश्चिंत हुए बिना अपने पितरों के पास नहीं जाना चाहते थे। 58 दिन तक शरशैय्या पर रहने के बाद उन्होंने उत्तरायण में शरीर त्यागा।
युद्ध समाप्ति का उदघोष होने के बाद श्रीकृष्ण और विजयी पाण्डव द्रोपदी सहित पितामह भीष्म से मिलने आये। अभिवादन के पश्चात श्रीकृष्ण ने पितामह से निवेदन किया कि ‘युधिष्ठिर आपके पास कुछ प्रश्न लेकर आये हैं। वे राजकाज चलाने के लिए आपका मार्गदर्शन चाहते हैं। कृपया उन्हें उपकृत करें।’
इस पर भीष्म ने बहुत विनम्रता से कहा, ‘केशव, मैं क्या मार्गदर्शन कर सकता हूं। मेरे संरक्षण की दशा आप देख ही रहे हो। पांडव आपके संरक्षण में सुरक्षित हैं। उनके लिए आपका मार्गदर्शन अधिक प्रभावी और सक्षम होगा।’
‘लेकिन पितामह, आपके समान ज्ञानवान, तेजस्वी, ओजस्वी इस धरा पर कौन है। आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं। नीति-निपुण हैं। आपके श्रीमुख से प्रवाहित ज्ञानगंगा न केवल युधिष्ठिर के वर्तमान को बल्कि युगो-युगों तक संसार को आलोकित करती रहेगी।’
कुछ देर मौन रहकर भीष्म ने पाण्डवों को अनेक ज्ञानसूत्र प्रदान किये। जिसकी विस्तृत चर्चा महाभारत के शांतिपर्व में है। भीष्म पितामह के अनुसार, ‘मित्र चार प्रकार के मित्र होते हैं। सहार्थ मित्र, भजमान मित्र, सहज मित्र और कृत्रिम मित्र। जो किसी शर्त पर एक-दूसरे की मदद करने के लिए मित्र बने वे सहार्थ मित्र। पुश्तैनी मित्रता वाले भजमान मित्र। जो बिना किसी शर्त अथवा पुराने संबंधों के आधार पर नहीं बल्कि सहज गुणों के कारण निकट आये वे सहज मित्र। और जो स्वार्थ के कारण निकट आये वह कृत्रिम मित्र।’
जब भीष्म शांति संबंधी आचरण का वर्णन कर रहे थे तो अचानक द्रोपदी जोर से हँसी। उसका ऐसा करना पांडवों को असंगत लगा। कारण जानते हुए भी भीष्म ने उसे निकट बुलाकर कारण बताने के लिए कहा ताकि सभी पाण्डव भी जान सके। द्रोपदी ने भी निसंकोच कह ही दिया, ‘पितामह, यह सारा ज्ञान उस समय कहां था जब हमें निर्वासन और तत्पश्चात अज्ञातवास भेजा गया। आपने यह पाठ दुर्याेधन आदि को क्यों नहीं पढ़ाया? जब धर्मराज हारने के बाद भी मुझे दांव पर लगा रहे थे तब आपका ज्ञान कहां था? श्रेष्ठ चरित्रवान होते हुए भी भरी सभा में चीर हरण के समय आप दुर्याेधन और दुशासन को यह पाठ क्यों न पढ़ा सके। जब ये विचार मेरे मन में आये तो मुझे हंसी आ गई।’
मृत्यु के देवता यमराज के तीक्ष्ण बाणों से अधिक कष्टकारी प्रश्नों ने भीष्म को विचलित तो किया होगा लेकिन उन्होंने द्रोपदी के साहस की प्रशंसा करते हुए कहा, ‘तुम्हारा साहस और इन प्रश्नों के उत्तर आनेवाले युग में अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे।’
भीष्म के अनुसार, ‘अनेक वर्षों से हस्तिनापुर के सिंहासन पर विराजित अयोग्य राजा की सेवा में रहने और उनके दिए अन्न जल ग्रहण करने से मेरी न्याय और धर्मनिष्ठा डूब गए थे। अर्जुन के बाणों ने उस अन्न जल से निर्मित गंदा खून निकाल डूब चुके मेरे आचरण को उभारा है। इसी से मैं आज हितोपदेश दे पा रहा हूँ।’
युधिष्ठिर के पूछने पर कि ‘गणराज्य कैसे, संगठित, समृद्ध और शांतिपूर्ण रह सकता है?’ पितामह का उत्तर था, ‘यदि गणतंत्र विवेकवान हों, ज्ञान की विविध शाखाओं में पारंगत हों, जनता की सेवा आपसी विश्वास और सदभाव के साथ कर रहे हों तो लोग प्रगति करते हैं।’ उन्होंने लोभ, मोह और अहंकार को विनाशकारी बताया। परस्पर विश्वास और संगठन शक्ति की आवश्यकता को रेखांकित किया।
राष्ट्र रक्षा, जनता की रक्षा, शांति के महत्व पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा, ‘युद्ध विनाश का मूल है। युद्ध को टालने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। शांति किसी भी कीमत पर मिले मत छोड़ना। लेकिन जब प्रश्न राष्ट्र की अस्मिता और अखण्डता को हो तो एक नहीं हजार युद्ध भी स्वीकार करना।’
प्रश्नों का यह कारवां अचानक समाज, राष्ट्र, नीति, शांति की सीमाओं को पार करते हुए स्वयं भीष्म की ओर मुड़ गया। युधिष्ठिर ने हाथ जोड़कर बहुत विनम्रता से कहा, ‘पितामह, अब मुझे कुछ ऐसे प्रश्न करने की अनुमति प्रदान करें जिनका उत्तर भविष्य जरूर जानना चाहेगा। यदि आज हम इन प्रश्न से चूक गये तो भविष्य हमें भी क्षमा नहीं करेगा।’
‘भविष्य में प्रश्न उठेंगे कि परशुराम के शिष्य, महाराज शांतनु के पुत्र देवव्रत इतने पितृभक्त क्यों हो गये कि मातृभूमि के प्रति अपने दायित्व को भूल गये? आपके गुरु परशुराम ने अपनी पितृभक्ति का प्रमाण देने के लिए पिता की आज्ञा पर निज माता का सिर छेदन कर दिया था। लेकिन आपने तो पिता के कहे बिना ही अपनी मातृभूमि को योग्यतम पुत्र की सेवाओं से सदा के लिए वंचित कर दिया। आपके गुरु को मिले वरदान ने माता को पुनर्जीवित कर दिया था लेकिन आपका इच्छामृत्यु का वरदान आपको आज भी परेशान कर रहा हैं?’
‘तुमने ठीक कहा वत्स! मैं भगवान परशुराम का शिष्य हूं। लेकिन मेरी तुलना उनसे न करें। परशुराम आकाश तो मैं धरा की धूल का एक छोटा का कण हूं।’
‘आपने हमें राजा के गुणों की विशद व्याख्या करते हुए उसके शीलसम्पन्न, मृदु, धार्मिक, जितेन्द्रिय, सुदर्शन, सत्यवादी, शांत, आत्मवान, त्रयी और शास्त्र का ज्ञाता, प्राज्ञ, त्यागी, शत्रु की दुर्बलता समझने में तत्पर, क्रियावान तथा हठ संकल्प वाला होने पर बल दिया है। मंत्रियों की योग्यता और कर्तव्यों को भी बहुत सहज, सरल ढ़ंग से प्रस्तुत किया है। लेकिन राज्य के संरक्षक के कर्तव्यों के प्रति आपका मौन विचलित करता है। आपने अपना सर्वस्व हस्तिनापुर के संरक्षण पर न्यौछावर कर दिया। कृपया इस विषय पर भी कुछ कहें।’
‘वत्स, मैं हस्तिनापुर का संरक्षक नहीं, दास हूं। दास की अनेक विवशताएं होती है। आप कह सकते हो कि ये विवशताएं मैंने स्वयं ओढ़ी थी। लेकिन वचनबद्ध व्यक्ति के पास विकल्प बहुत सीमित होते हैं। मेरी भावुक वचनबद्धता ने मेरे चारों ओर रेखांकन कर मेरी सीमाओं को संकुचित कर दिया था। इसलिए कृपया मुझे संरक्षक न कहें क्योंकि मैं यह पात्रता खो चुका था।’
‘वचन और कर्तव्य में क्या महत्वपूर्ण है?’
‘वचन और कर्म कर्तव्य अलग-अलग नहीं है। इसलिए वचन क्षणिक भावनाओं के आवेश में आकर नहीं बल्कि सुविचारित होना चाहिए।’
‘आखिर क्यों आपकी निष्ठा, आपकी वचनबद्धता राष्ट्र की बजाय शासक के प्रति रही। क्या सिंहासन पर बैठा हुआ कोई व्यक्ति राष्ट्र से बढ़कर हो सकता है? क्या आपको नहीं लगता कि आने वाले युगों में लोग सिद्धांत, विचारधारा को दरकिनार करते हुए सिंहासन पर बैठने वाले का गुणगान करेंगे? यदि ऐसा होगा तो क्या लोकराज और गणतंत्र अपने अर्थ नहीं खो देंगे?’
‘वत्स! भविष्य को लेकर तुम्हारी आशंका निर्मूल नहीं है। लेकिन गुणीजन इतिहास की भूलों से सबक लेकर जागरण भी करेंगे। यदि किसी एक युग का भीष्म पथ विचलित होता है तो हर युग के चाणक्य निज राष्ट्र के उत्थान का पथ प्रशस्त करते रहेंगे।’
‘क्या आपको नहीं लगता कि व्यक्ति विशेष के प्रति अति भक्ति निष्ठा की यह प्रवृत्ति फिर सिर उठाकर एक दिन देश की एकता अखंडता को अक्षुण करने वाले रथ को किसी केसर की क्यारी में नहीं रोक देगी?’
‘मृत्युशैय्या पर पड़ा मैं भीष्म आश्वस्त हूं कि भविष्य में किसी को भीष्म बनने के लिए विवश करने वाले को भारतपुत्र ऐसा सबक सिखायेगे कि उसका वंश प्रतिष्ठा खोकर नष्ट हो जायेगा।’
‘लेकिन निर्वीर्य अक्षम बंधुओं चित्रांगद और विचित्रवीर्य के विवाह के लिए काशीराज की तीन पुत्रियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका के हरण को आप कैसे उचित ठहरायेंगे?’
‘कुरुवंश के सिंहासन के उत्तराधिकारी सुनिश्चित करने के लिए मेरे पास विकल्प ही क्या था?’
‘तब फिर अम्बा का क्या दोष था? उसके पास क्या विकल्प था? आपको स्मरण ही होगा आपके गुरुदेव परशुराम ने भी आपसे उससे विवाह करने के लिए कहा था। लेकिन आपने अपना सिर काटकर देने के आदेश को स्वीकार करने की बात तो की परंतु अप्रासंगिक हो चुके अपने प्रण से हटने से इंकार कर दिया था।’
‘ठीक कहते हो! मैं अम्बा का अपराधी हूं। लेकिन अपने संकल्प के अतिरिक्त मुझे कुछ भी दिखाई, सुनाई नहीं दे रहा था।’
‘लेकिन जब वे दोनो माताएं विधवा हो गई तो नियोग का मार्ग कितना उचित था। एक का आंख बंद रखना तो दूसरी का रंग उड़ना प्रमाण है कि यह सब उनकी सहमति से नहीं हुआ था।’
‘मैंने राज्य के उत्तराधिकारी के लिए माता सत्यवती के आदेश का पालन का ही किया था।’
‘अनेक प्रश्नों के उत्तर में आपने कहा हैं - अत्राप्युदाहरन्तीमितिहासं पुरातनम। तो क्या आपको अपने कुल का इतिहास स्मरण नहीं, जहां महाराज भरत ने अपने पुत्रों की बजाय भरद्वाज को अपना उत्तराधिकारी घोषित करते हुए कहा था, ‘मैं राज्य का निधिपति नहीं, प्रतिनिधि हूं। इसे योग्य को ही सौंपना मेरा धर्म है।’ क्या आपके समय में हस्तिनाुपर में कोई योग्य नहीं था?’
‘एक दास की तुलना एक महान सम्राट से करना उचित नहीं है।’
‘और ज्येष्ठ पिताश्री महाराज धृतराष्ट्र के जन्मांध होने पर महाराज पाण्डु को राजा बनाया गया। लेकिन बाद में महाराज धृतराष्ट्र इसलिए स्वीकार कर किये गये कि सभी राजकुमार अभी बालक थे। जब व्यवस्था तदर्थ ही थी तो तातश्री विदुर जैसे नीतिज्ञ को यह दायित्व क्यों नहीं सौपा गया?’
‘तुम्हारा प्रश्न सटीक है वत्स! कभी- कभी नियमों सिद्धांतों पर विवशताएं हावी हो कर अनर्थ करती है। मेरी विवशता को समझो।’
‘क्या आप जैसे शस्त्र विद्या के ज्ञाता, श्रेष्ठ विद्वान की विवशता आपके यश को प्रभावित नहीं करेगी?’
‘राष्ट्र हित में अपयश भी स्वीकार करने पड़ते हैं। लेकिन मेरी वचनबद्धता को भी स्मरण किया जाएगा।’
‘क्या यह विचार मन में नहीं आया कि आप सरीखे सर्वथा सक्षम, सबल, तेजस्वी व्यक्तित्व को भविष्य कटघरे में भी खड़ा कर सकता है?’
‘ये सारे प्रश्न केवल तभी तक हैं जब तक आप स्वतंत्र हैं। वचनबद्धता भी एक प्रकार की परतंत्रता है। परतंत्र को आप कटघरे में खड़ा करो, दंडित करो अथवा क्षमा करो, यह आपके विवेक अथवा दया पर निर्भर है। उसे मैं चुनौती नहीं दे सकता तो भविष्य के विवेक पर प्रश्नचिन्ह कैसे लगा सकता हूं। इतिहास को सदैव अपने ढंग से मूल्यांकन करने का अधिकार होता है। हमें उसके अधिकार का सम्मान करना चाहिए।’
‘पितामह, यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका भरपूर स्नेह, वात्सल्य प्राप्त हुआ। लेकिन मै ऐसे तीक्ष्ण प्रश्नों से आपकी आत्मा को घायल करना मेरी भी विवशता है। मैं भारत के भावी कर्णधारों को सजग करने के लिए आपसे ये सब प्रश्न करने को विवश हूं। आप चाहें तो इसे मेरी कृतघनता कह सकते हैं। शासक को राग द्वेष से मुक्त होकर कार्य करना चाहिए इसलिए हस्तिनापुर के वर्तमान शासक के रूप राष्ट्र की एकता, अखंडता, सदभावना सुनिश्चित करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। राज्य हित में शासक को निष्ठुर भी होना पड़ता है। यदि इन प्रश्नों से आपको अथवा स्वयं बचाने का प्रयास करता तो मुझे भी कटघरे में खड़ा किया जाता कि मैंने महाभारत से कोई सबक नहीं सीखा। शासक नहीं, परपौत्र के रूप मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ!’
(राष्ट्र-किंकर रचित ‘महाभारत का यह अध्याय: मेरी कल्पना, मेरा स्वाध्याय’ का एक अंश) @ Vinod Babbar
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Reviewed by rashtra kinkar
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