गांधारी का प्रायश्चित # Gandhari ka Prashchit @ Vinod Babbar


गांधारी का प्रायश्चित
महाभारत समाप्त हो चुका है। श्रीकृष्ण से मंत्रणा करते हुए युधिष्ठिर ने कहा, ‘युद्ध समाप्त हो चुका है लेकिन खतरा अभी समाप्त नहीं हुआ है। तपस्विनी माता गांधारी का मौन शंकित करता है। पुत्रों के न रहने पर उनके मन में क्या चल रहा है, कोई नहीं जानता। मुझे आशंका सता रही है कि वे कोई श्राप न दे दे। आप हमारे उद्धारक हैं। आप ही माता गांधारी से मिलकर उनके मन की ग्रन्थी को सुलझा सकते हैं।’ 
चारों ओर बिखरे शवों के बीच वृक्ष तले एक नारी एक शव को उठाकर दूसरे शव पर रख रही है। दूसरे के बाद तीसरा, चौथा, पांचवा शव रखा और उन पर चढ़ वृक्ष पर लगे फल तोड़े। वह उस फल को ग्रहण करने ही वाली थी कि एक दिव्य व्यक्तित्व ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हुए कहा - ‘बुआ प्रणाम, यह क्या?’
कुछ ठिठकते हुए उसने सामने देखा। श्रीकृष्ण का प्रणाम स्वीकार करते हुए रूआसे स्वर में वह इतना ही कह सकी, ‘आखिर पेट की अग्नि का कब तक दमन किया जा सकता है। मन में कुछ भी चलता रहे लेकिन तन की विवशता है कि रोग, शोक में भी उसकी आवश्यकताएं रुक नहीं सकती। रोते-रोते मेरे आंसू सूख चुके हैं। तुम ही बताओ कि मैं क्या करूं! हे कृष्ण मैं क्या करूं!’
वह नारी कोई और नहीं बल्कि महारानी गांधारी थी जो युद्ध मैदान में चहूं और बिखरे अपने पुत्रों के शवों पर विलाप करते-करते थक चुकी थी। बुद्धि जानती थी कि वीरगति को प्राप्त हुए लौटकर नहीं आने वाले हैं लेकिन ममता पर बुद्धि का वश नहीं चलता। गांधारी बेशक महारानी थी लेकिन थी तो मानव ही। इसलिए मानवीय दुर्बलता होना स्वाभाविक था। भूख ने विवश कर दिया तो महारानी से बेचारी बनी गांधारी क्या करती।
कुंती श्रीकृष्ण की बुआ थी तो उनकी जेठानी होने के नाते गांधारी भी श्रीकृष्ण के लिए बुआ थी। महारानी गांधारी ने स्वयं को सदैव धृतराष्ट्र, शकुनी और दुर्याेधन के प्रपंचों से दूर रखा। कुंती अथवा उसके पुत्रों के प्रति कभी दुर्भावना नहीं रखी। यहां तक कि महाभारत से पूर्व जब दुर्याेधन उनके पास आशीर्वाद लेने आया तो उसे विजयी होने का आशीर्वाद नहीं दिया। वह कभी इतनी विवश नहीं हुई लेकिन आज भूख ने उसे विवश कर दिया था। 
श्रीकृष्ण पांडवों के साथ रहे। लेकिन श्रेष्ठजनों के प्रति अपना कर्तव्य समझते थे। आज एक महारानी को इतना विवश देखकर उन्हें बहुत कष्ट हुआ। पुत्रों के न रहने पर गांधारी को सांत्वना देते हुए उन्होंने कहा, ‘बुआ होनी को कौन टाल सकता है। जो हुआ दुःखद है लेकिन कब तक शोक करोगी। मेरी प्रार्थना है कि आप महल में महाराज धृतराष्ट्र के पास लौट जाएं। हस्तिनापुर के नए महाराज युधिष्ठिर निश्चित रूप से आपको यथोचित सम्मान देंगे।’ 
धीर गंभीर स्वर में गांधारी ने कहा, ‘एक साधारण मनुष्य यह बात कहे तो समझ में आता है लेकिन कृष्ण तुम यह नहीं कह सकते कि होनी को टाला नहीं जा सकता। यदि तुम चाहते तो क्या नहीं हो सकता था?’
‘नहीं बुआ, ऐसा नहीं है। मैंने तो अपने स्तर पर हर संभव प्रयास किया। पांच गांव देकर समझौते के प्रस्ताव को तो ठुकराया ही, मुझे भी बंदी बनाने का प्रयास किया था उस हठी ने। ’
‘हॉ, दुर्याेधन आरंभ से बहुत हठी था। शायद पिताश्री की दमित महत्वाकांक्षाओं ने उसके मन-मस्तिष्क को जकड़ लिया था।’
‘लेकिन बुआ, आप जैसा तेजस्विनी माता के गुण क्यों प्रकट नहीं हुए? पति के जन्मांध होने के कारण आंखों पर पट्टी बांधना शायद आपकी नजर में एक पत्नी के लिए उचित हो परंतु माता के लिए ऐसा करना अपने कर्तव्य पथ से विचलित होना ही तो था।’
‘लेकिन दुर्याेधन सहित सभी राजकुमारों की देखभाल बहुत अच्छी तरह से की गई। उन्हें हमारे समय के श्रेष्ठ गुरु द्रोणाचार्य जी के पास भेजा गया। फिर पितामह तो थे ही सब पर नजर रखने वाले। इतना सब होने के बाद मेरे लिए करने को बचता ही क्या था?’
‘नहीं बुआ, जो माता कर सकती है वह कोई नहीं कर सकता। स्मरण करो उस क्षण को जब आपका संबंध महाराज धृतराष्ट्र से निश्चित हुआ तो अपने होने वाले पति के जन्मांध की सूचना पाकर आपने आक्रोश को प्रत्यक्ष में तो प्रकट होने नहीं दिया लेकिन अपनी आंखों पर पट्टी बांधने का निर्णय प्रतिकार नहीं तो और क्या था? लेकिन आप जैसी तेजस्विनी में प्रत्यक्ष प्रतिकार का आत्मबल क्यों न था?’
‘याद है उस क्षण आपकी एक सखी ने सावधान करते हुए कहा था, ‘आंख पर पट्टी बांध तुम अपने कर्तव्य किस प्रकार निभाओगी?’ तो आपका उत्तर था, ‘क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हस्तिनापुर के वैभव के समक्ष हमारा गांधार कुछ भी नहीं है। मैं उस हस्तिनापुर की महारानी बनने जा रही हूं जहां सैंकड़ों नहीं, हजारों दासियां होगी। उनके रहते मुझे कोई असुविधा नहीं होगी।’ 
‘बुआ, स्मृतियों को झकझोड़ते हुए स्मरण करो कि तुम्हारी उस सखी ने क्या कहा था। अगर स्मरण नहीं तो मैं बताता हूं, उस विदुषी ने तुम्हें चेताते हुए कहा था, ‘महारानी के रूप में तुम्हें जो कर्तव्य निभाने होंगे उनमें वे दासियां मदद कर सकती हैं लेकिन एक पत्नी और एक माता का दायित्व हजार नहीं, लाख दासियां मिलकर भी नहीं निभा सकती। इस दायित्व का निर्वहन तो तुम्हें स्वयं ही करना पड़ेेगा।’
‘बुआ, क्या यह सत्य नहीं कि आपने जब एक क्षण के लिए अपनी आंखो से पट्टी खोली थी तो दुर्याेधन के शरीर का वह भाग जहां आपकी दृष्टि पड़ी थी वह वज्र का हो गया था। यदि आपकी दृष्टि आरंभ से ही दुर्याेधन पर पड़ती तो उसका व्यक्तित्व भी वज्र हो सकता था। आपकी खुली हुई आंखे शकुनि की चालों को असफल कर सकती थी। महाराज धृतराष्ट्र के मनोभावों को पढ़कर उन्हें षड़यंत्रों की राह से दूर रखने का प्रयास कर सकती थी। बुआ, आप तपस्विनी है। आपके समान संयमी और विवेकी होना असंभव है लेकिन आपकी आंख पर बंधी पट्टी और पितामह की प्रतिज्ञा ने परिस्थितियों के साथ न्याय नहीं किया। दोनो ने जीवन के एक समान मोड़ पर त्याग के उच्चतम शिखर को तो स्पर्श किया लेकिन व्यवहारिकता का धरातल बहुत पीछे छूट गया। आप दोनो महान है। आपके प्रति नतमस्तक होना मेरा सौभाग्य है। लेकिन, लेकिन .....!’
‘निसंदेह, प्रत्येक मनुष्य को अपने वचन का पालन करना चाहिए लेकिन जब प्रश्न समाज और राष्ट्र हित का हो तो वचन पर कर्तव्य को अधिमान देना चाहिए। व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं का त्याग कर समाजहित और राष्ट्रहित प्राथमिकता देने वाला वंदनीय होता है। लेकिन जो स्वयं को एक वचन से बांध लेता है, वह न केवल स्वयं बल्कि अपने परिवार और राष्ट्र का अहित करता है। यह नहीं कहता कि महाभारत का कारण आप हैं लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि आपकी आंखों पर पट्टी न होती तो परिदृश्य निश्चित रूप से भिन्न हो सकता था।’
मौन सिर झुकाये गांधारी उन स्मृतियों में डूब गई जब उसने जीवन का सबसे कठिन अर्थात् अपनी आँखों पर पट्टी बाँधने का निर्णय लिया था। शायद वह नियति को स्वीकार करते हुए भी उसके प्रतिकार का उसका अपना तरीका था। गांधारी को तो गांधार से हस्तिनापुर आना ही था लेकिन अपने भाई को भी वहां रहने से रोक न सकी। ओह तो क्या शकुनि भी उसके साथ हुए छल का प्रतिकार करने के लिए आजीवन वहां रहा? नहीं, नहीं उसे ऐसा करने का अधिकार नहीं था। लेकिन एक साथ रहते हुए भी गांधारी ने भी तो कभी शकुनि से इस विषय पर बात नहीं की। उसके स्वभाव को जानते हुए भी अपने पुत्रों को उससे दूर रखने का प्रयास क्यों नहीं किया। 
अनायास गांधारी के होंठ फड़फड़ाये, ‘हां सखी! तुमने ठीक ही कहा था। महारानी के रूप में मेरे कर्तव्यों के निर्वहन में दासियां मेरी मदद कर सकती थी लेकिन पत्नी और माता के रूप में तो मुझे अपने दायित्वों का निर्वहन स्वयं ही करना था। हां, हां, पत्नी के कर्तव्य का निर्वहन कोई दासी नहीं कर सकती। पति की अंकशायिनी और पुत्रों की जननी होने के लिए प्रसव पीड़ा तो स्वयं ही सहन करनी पड़ती है। मैं मातृसुख पाकर देवकी बनी पर माता जसोदा नहीं बन सकी। माता तो वह होती है जो लाड-दुलार ही नहीं सुसंस्कार भी दें। जहां मर्यादा की लक्ष्मणरेखा पार होते महसूस करे फटकार और दंड से भी पीछे न हटे। ओह मेरी उस चूक ने राष्ट्र को अकारण इतना बड़ा दंड दिया है।’
‘एक पत्नी के रूप में मेरी सजगता महाराजश्री को भी षड़यंत्रों का अंग बनने से रोक सकती थी। शकुनि को शीघ्र से शीघ्र वापस गांधार भेज सकती थी। लेकिन मैं ऐसा न कर सकी क्योंकि मैं दासियों की सूचनाओं पर निर्भर थी। मेरी आंखो पर बंधी पट्टी शायद सही सूचनाएं मिलने में भी बाधक बनी रही इसी कारण मेरा विवेक सही निर्णय नहीं ले सका।’
‘लेकिन... लेकिन माधव अब क्या हो सकता है। अब तो बहुत देर हो चुकी है। मेरी एक भूल ने कितना बड़ा अनर्थ किया। मैं पापिन हूं। हे पार्थसारथी, बताओ अब मेरे पाप का प्रायश्चित कैसे हो सकता है?’
‘बुआ जो होना था सो हुआ। समय की सुई को उलटा नहीं घुमाया जा सकता लेकिन उससे सबक लेकर भविष्य को जरूर सुरक्षित किया जा सकता है। आने वाले युग की हर नारी को परिस्थितियों के समक्ष समर्पण करने अथवा आंख पर पट्टी बांधने की बजाय उसे क्या करना चाहिए, आप यह ज्ञान तो उन्हें दे ही सकती हो।’
‘ठीक कहा केशव! जो अपराध मुझसे हुआ है उसे दोहराया नहीं जाना चाहिए। यदि पति में कोई कमी हो भी तो पत्नी को अपनी प्रतिभा और क्षमता का विस्तार करना चाहिए। यदि मैं अपनी आंखों पर पट्टी बांधने की बजाय महाराज धृतराष्ट्र की दृष्टि बनती तो इतना अनर्थ हर्गिज न होता। यदि महाराज पिता के रूप में अपने कर्तव्य का पालन ठीक से नहीं कर पा रहे थे तो मुझे अपनी संतान के हित में माता और पिता दोनों की भूमिका निभानी चाहिए थी। ऐसा करना कठिन चुनौती जरूर हो सकती है लेकिन असंभव तो कुछ भी नहीं हो सकता।’
‘भविष्य की हर नारी से मेरी प्रार्थना है कि वह किसी भी कीमत पर उस गलती को न दोहराये जो मुझसे हुई। मन में चाहे कितने भी महाभारत चलते रहे लेकिन मस्तिष्क में विवेक और संयम ही रहना चाहिए। बेशक एक नारी का प्रथम कर्तव्य पति, संतान और परिवार के प्रति होता है लेकिन उसका अपने कर्तव्य से विचलन पूरे समाज को प्रभावित कर सकता है। उसकी भूल एक राष्ट्र पर भी भारी पड़ सकती है।’
‘बुआ आप धन्य हैं। आपको बारम्बार प्रणाम!’ 
‘नहीं केशव, मैं अपराधिन हूं। मैंने ही अपने शतपुत्रों का वध किया है। महाभारत के विनाश और हजारों लाखों की अकाल मृत्यु की जिम्मेवार मैं ही हूं! हां, हां, मैं ही हूं!!’
(राष्ट्र-किंकर रचित ‘महाभारत का यह अध्याय: मेरी कल्पना, मेरा स्वाध्याय’ का एक अंश)


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