माफी की राजनीति और फांसी Maafi Ki Rajniti Aur Faansi

माफी की राजनीति और फांसी - विनोद बब्बर
इन दिनों माफी का दौर चल रहा है। आस्ट्रेलिया रेडियों ने गंगा को कचराघर कहने पर माफी मांगी तो जंतर-मंतर पर उमा को मंच पर न चढ़ने देने के लिए अन्ना ने खेद व्यक्त किया। मुलायम सिंह द्वारा एक समुदाय से माफी मांगने की बात भी बहुत पुरानी नहीं हुई है लेकिन रामलीला मैदान में आधी रात को डंडे बरसाने पर विपक्ष ने प्रधानमंत्री से माफी मांगने की मांग की। अन्ना पर अमर्यादित टिप्पणी के लिए कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी माफी मांगने को मजबूर हुए लेकिन माफी फिर भी नहीं मिली। इसी तरह अभिनेता ओम पुरी ने नेताओं को नालाय्ाक और गंवार तो कह दिया लेकिन जब बात विशेषाधिकार हनन तक जा पहुँची तो उन्होंने माफी की मुद्रा धारण कर ली पर किरण बेदी माफी मांगने की बजाय किसी भी स्थिति का सामना करने को तैयार है।
जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने पिछले साल घाटी में हुई हिंसा और पत्थर फेंकने के आरोप में हिरासत में लिए गए 1200 युवकों को माफी देने की घोषणा करते हुए फरमाया- बच्चों से ग़लती हो जाती है। पिछले सप्ताह पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारुक़ अब्दुल्ला की ओर से दिए गए इस बयान कि अलगाववादी कश्मीर में फिर आग लगाना चाहते हैं के जवाब में अलगाववादी नेता सैयद शाह गिलानी ने कहा कि वो तोपें या बंदूकें लेकर विरोध प्रदर्शन नहीं करते। सभी प्रदर्शन शांतिपूर्ण ढंग से किए जाते हैं।
माफी देने की बात बड़बोलेपन तक ही रहती तो भी सहनीय था, यहाँ तो देश के प्रधानमंत्री के हत्यारों तक को माफी देने की मांग हो रही है। द्रमुक- अन्नाद्रमुक में तमिल हितों के बड़े रक्षक बनने की होड़ इतना उग्र रूप धारण कर चुकी है कि करूणानिधि तमिल हितों की रक्षा में जयललिता को असफल करार देने लगे तब तमिलनाडु विधानसभा ने मुख्यमंत्री जयललिता की ओर से लाये गये प्रस्ताव जिसे सम्पूर्ण सदन ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया के अनुसार राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील से राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दिए जाने के फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया था। तमिलनाडु विधानसभा की ओर से पारित प्रस्ताव पर जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा- अगर ऐसा ही प्रस्ताव संसद पर हमले के मामले में दोषी अफजल गुरू के संदर्भ में जम्मू कश्मीर विधानसभा पारित करती तो......?
तमिलनाडू, कश्मीर ही क्यों, पंजाब में भी हर मुद्दे पर एक-दूसरे का जबरदस्त विरोध करने वाले सभी प्रमुख अकाली और कांग्रेस नेता ही नहीं दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के अध्यक्ष सरना भी भुल्लर के पक्ष में एकजुट हैं। दविंदरपाल सिंह भुल्लर पर 1991 में एसएसपी सुमेध सिंह सैनी और 1993 में तत्कालीन युवा कांग्रेस अध्यक्ष बिट्टा पर बम से हमला करने मामला है।
हत्यारों को फांसी देने की बात कोई नई नहीं है जिस पर विवाद खड़ा किया जाए। महात्मा गांधी से इन्दिरा गांधी के हत्यारों को फांसी दी गई। अनेक अन्य मामलों में फांसी दी जाती है लेकिन यह पहली बार है कि जाति, धर्म, प्रांत अथवा भाषा के नाम पर माफी की बात की जा रही है जो देश की एकता के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। कोई पंजाबी के लिए माफी मांग रहा है तो कोई तमिल और कोई कश्मीरी के लिए। कोई फांसी में विलम्ब के नाम पर माफी का जाल फैला रहा है जबकि उन्हें अच्छी तरह से मालूम है कि अभी हाल ही में बांग्लादेश के संस्थापक शेख मुजीबुर रहमान की सैनिक तख्तापलट में करीब तीन दशक पहले की गयी हत्या के दोषी ठहराये गये पाँच पूर्व सैन्य अधिकारियों को फांसी पर लटकाया गया।
कुछ मामलों में जिनमें अफजल भी शामिल है, उच्चतम न्यायालय के अंितम निर्णय के बाद राष्ट्रपति के पास माफी की याचिका वर्षों से लम्बित है। ऐसे मामलों में वर्तमान यूपीए सरकार का तर्क यह है कि चूंकि अफजल की याचिका का नंबर 28 है इसलिए देर हो रही है। जबकि स्थिति यह है कि देश में फांसी के मामलों में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद उस पर एक निश्चित समयावधि में अमल होना चाहिए। राष्ट्रपति के पास भेजी जाने वाली क्षमा याचिका का निपटारा भी तय समयावधि में होना चाहिए। फांसी की सजा पाये अभियुक्तों की क्षमा याचिका का राष्ट्रपति के पास तीन महीने में निराकरण हो जाना चाहिए। अगर इस अवधि में निराकरण नहीं होता है, तो अभियुक्त को न्यायालय के फैसले के अनुसार सजा देनी चाहिए।
वैसे माफी के मामलों में विलम्ब का तर्क प्रस्तुत करने वालों को याद दिलाना जरूरी है कि इंदिरा जी के हत्यारों को चार साल तक चले मुकदमे के बाद फांसी दी गई थी। 16 दिसंबर, 1988 को सुप्रीम कोर्ट ने सतवंत और केहर सिंह के मामले में अंतिम फैसला सुनाया था तो केहर सिंह की ओर से राष्ट्रपति श्री आर. वेंकटरमन के पास भेजी गई माफी की अपील पर 19 दिसंबर, 1988 को राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस कैबिनेट द्वारा क्षमा याचिका को ठुकरा दिया गया और 6 जनवरी 1989 को सतवंत और केहर सिंह को फांसी की सज़ा दे दी गई थी जबकि उस याचिका का नंबर काफी पीछे था।
यह इस महान राष्ट्र का दुर्भाग्य हैं कि हम इसकी अस्मिता पर हमला करने वालों के प्रति उदारता की बात कहने वालों को बर्दाश्त करने को विवश हैं। कोई भी सभ्य और स्वाभिमानी समाज दया, उदारता और कोमलता के प्रति संवेदनशील होते हुए भी एक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष लक्ष्मणरेखा अवश्य निर्धारित करता हैं कि उदारता की सीमा क्या हो क्योंकि उदारता का अर्थ यदि कायरता अथवा पिलपिलापन लगने लगे तो उस राष्ट्र की सम्प्रभुता का कोई अर्थ शेष नहीं रहता। यह कोई पहली बार नहीं हैं कि निर्दोषों की जान लेने वालों को कानून के दायरे से बाहर जाकर बचाने की कोशिश की गई। कुछ समय पर पूर्व केरल विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर बमकांड में शामिल आतंकी मदनी को रिहा करने की मांग की तो अब कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर आतंक को उचित ठहराने की कोशिश कर रहे हैं।ं हमारे जाबाज सुरक्षा सैनिक अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी देश के सम्मान पर आंच नहीं आने देते। संसद हमारा सर्वोच्च मंच हैं, जहां देश के भविष्य और कानून के बारे में फैसला करने के साथ-साथ प्रशासन पर भी अंकुश रखा जाता हैं। सम्पूर्ण राष्ट्र ने उस समय राहत की सांस तो अवश्य ली थी जब देश के दुश्मनों का मिशन असफल हो गया पर आज हर विवेकशील व्यक्ति का उन नेताओं की उस मांग पर आक्रोशित होना स्वाभाविक हैं, जिसमें तुच्छ राजनैतिक लाभ के लिए उस हमले के दोषियों को माफी देने की मांग करने की होड़ हो रही हैं।
सभी जानते हैं कि महाभारत के शांतिपर्व में भीष्मपितामह स्पष्ट कहते हैं कि ‘जब राष्ट्र और व्यक्ति के बीच चुनाव करना हो तो व्यक्ति चाहे कितना भी प्रिय क्यों न हो, राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए।‘
क्या हमने पृथ्वीराज चौहान द्वारा मोहम्मद गौरी को बार-बार दी गई माफी से कोई सबक नहीं सीखा? शायद नहीं वरना विदेशी षड्यंत्रकारियों के हाथों में खेलने वालों को माफी का क्या अर्थ हैं? सच तो यह हैं कि ऐसे लोगों को इतनी भयानक मौत दी जाए कि भविष्य में ऐसा दुस्साहस करने से पहले ही उनकी रूहे भी कांप उठे। अफजल जैसे लोगों को किसी धर्म से जोड़ना उस धर्म का भी अपमान हैं क्योंकि कोई भी धर्म अपने मातृभूमि से गद्दारी की इजाजत नहीं देता। धर्म और इंसानियत का तकाजा है कि सम्पूर्ण राष्ट्र ऐसी भावनाओं से ऊपर उठकर विचार करें। आतंकवाद और आतंकवादियों को महिमा मंडित करने वाले व्यक्तियों, संगठनों और बेलगाम मीडिया के विरूद्ध कड़ी कारवाई करनी चाहिए वरना शहीद और देशद्रोही समानार्थक हो जाएगें। सरकार और कानून को अपने रास्ते पर चलते रहना चाहिए। भावनाओं में बहकर अपनी पटरी बदलना ऐसे तूफान को आमंत्रण होगा जिसे सामने न कोई राष्ट्र बचेगा, न राष्ट्रवादी। यह देश वोट बैंक से बड़ा है। यदि जरूरत पड़े तो एक दो नहीं हजारों सिरफिरों की बलि देकर भी भारत माता का भाल ऊंचा रखा जाना चाहिए। देशद्रोहियों को फांसी शांति की दिशा मेें एक कदम हैं। इस राह में डगमगाने का अर्थ हैं कि हम अपने अस्तित्व की रक्षा करने में असफल और अयोग्य साबित हो रहे है।
माफी की राजनीति और फांसी Maafi Ki Rajniti Aur Faansi माफी की राजनीति और फांसी  Maafi Ki Rajniti Aur Faansi Reviewed by rashtra kinkar on 20:51 Rating: 5

1 comment

  1. श्री विनोद बब्बर जी, हमारा एक ब्लॉग नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर भी है. जिसका लिंक आपका दे रहा हूँ. आपके आलेख व्यक्त विचारों से भी सहमत हूँ कि-अफजल जैसे लोगों को किसी धर्म से जोड़ना उस धर्म का भी अपमान हैं क्योंकि कोई भी धर्म अपने मातृभूमि से गद्दारी की इजाजत नहीं देता।

    http://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/SIRFIRAA-AAJAD-PANCHHI/

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