FDI राजनीति ने फिर दिखाया चरित्र- --डा- विनोद बब्बर


राजनीति के बारे में कहा जाता है कि यह ‘असंभव को संभव बनाने की कला’ है। हमारे राजनेता पिछली सभी मान्य परिभाषाओं को ध्वस्त करते हुए लगातार नित नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं लेकिन जनता उलझन में हैं कि संसद में ख्खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी निवेश (एफडीआई) मामले पर अपने कर्णधारों के दोहरे चरित्ररुपी ‘उपलब्धि’ पर उन्हें बधाई दें या लानत क्योंकि पिछले दिनों जब हमारी सरकार ने विदेशी पूंजी निवेश का निर्णय लिया था तो लगभग सम्पूर्ण विपक्ष तथा सरकार के कुछ सहयोगी दलों ने इसका विरोध किया था। देशव्यापी बंद में उत्तर प्रदेश के दोनों प्रमुख दल भी शामिल थे। मुलायम सिंह के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी तो एफडीआई मामले पर बहुत मुखर दिखाई दे रहे थे। दोनों ने संसद से सड़क तक इसे जनविरोधी, गरीब विरोधी और न जाने क्या-क्या कहा परन्तु जब वोट देने का समय आया तो दोनो ही दलों ने वाकआउट कर सरकार की मदद ही नहीं की बल्कि अपने घोषित विरोध से ठीक उल्ट काम किया जिससे अब एफडीआई का लागू होना तय है। देश का आम आदमी यह समझ पाने में असमर्थ है कि सपा मुखिया इतने मुलायम क्यों हो रहे है कि एक दिन पहले फरमाते हैं कि यदि सदन में जेपी, लोहिया होते तो एफडीआई कतई नहीं आता। परंतु अगले ही दिन इस प्रस्ताव को संसद कें रास्ते देश से बाहर करने का मौका जानबूझ कर खो देते हैं। वे अपने भाषण में कांग्रेस को चेतावनी देते हैं कि उसने अपना फैसला वापस नहीं लिया तो चुनाव में इसका नुकसान हो सकता है परंतु मुलायम सिंह ही अपने फैसले को वापस लेते नजर आते हैं। कैसे और कौन निर्णय करेगा कि जेपी और लोहिया का नाम जपने वाले उनके दिखाये रास्ते से इतने दूर रहकर भी समाजवादी कहलाने के अधिकारी किस अधिकार से हैं? इतना ही नहीं, सरकार में शामिल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) संसद में सरकार के साथ है लेकिन उसकी महाराष्ट्र शाखा राज्य में विदेशी किराना खोलने की अनुमति दिये जाने की विरोधी है। चांदनी चौक दिल्ली से चुने हुए कांग्रेसी मंत्री कपिल सिब्बल ने एफडीआई लागू करने की वकालत करते हुए परस्पर विरोधी तर्क प्रस्तुत किये। एक ओर वे इसके समर्थक हैं और इसके ढ़ेरों लाभ गिनाते हैं तो दूसरी ओर दावा करते हैं, ‘दिल्ली में जमीन महंगी होने के कारण यहाँ एफडीआई का प्रवेश हो ही नहीं सकता इसलिए इससे कोई ‘खतरा’ नहीं है। उनकी चिंता सिर्फ अपने चुनाव क्षेत्र तक सीमित है इसलिए वे फरमाते हैं- वालमार्ट को अपना स्टोर खोलने के लिए कम से कम एक लाख वर्ग फुट क्षेत्रफल की जरूरत होगी ऐसे में वह चांदनी चौक में नहीं खुल सकता। शायद अपने मतदाताओं के रूख को जान चुकेे हैैं। सिब्बल साहिब नामी वकील हैं लेकिन इतने लचदार तर्क प्रस्तुत करते नजर आए और उन्हें यह भी स्मरण नहीं रहा कि उन्हीं के दल की दिल्ली सरकार की मुखिया उन्हीं के संसदीय क्षेत्र में शामिल रामलीला मैदान में दावा कर चुकी है कि दिल्ली में सबसे पहले एफडीआई लागू किया जाएगा। ज्यादातर गैर-कांग्रेस शासित राज्यों की सरकारें इसके खिलाफ हैं। कांग्रेस के शासन वाला केरल भी पहले ही कह चुका है कि वह अपने यहां इसे लागू नहीं करेगा। 18 में 14 राजनीतिक दलों ने बहस के दौरान इसका विरोध किया। वैसे यह भी कम नौटंकी नहीं है कि एनडीए शासित तीन राज्यों गुजरात, हिमाचल और पंजाब ने लिखित रूप में अब तक इस प्रस्ताव का विरोध नहीं किया है जबकि वे मौखिक रूप से कई बार असहमति जरूर जता चुके हैं। वैसे भाजपा सपा और बसपा की इस उलटवासी’ को एफडीआई पर सीबीआई की जीत बताकर सारा दोष कांग्रेस पर ही मढ़ रही है। उनके अनुसार ‘जनता के सामने ऐसे दो नेता खुल कर सामने आ गये हैं जिनकी कथनी औऱ करनी में फर्क होता है जो दिखावे के लिए एफडीआई का विरोध कर रहे थे और अंदर ही अंदर सरकार का साथ दे रहे थे।’ ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या राजनीतिक हित जनहित से बड़ा होता है? क्या जनहित पर राजनीति हावी हो गई है? क्या राजनेताओं को अपनी सुविधा के आधार पर अपने मनघड़न्त तर्क तैयार करने की छूट दी जा सकती है? क्या एक पक्ष की सांप्रदायिकता और दूसरे पक्ष की सांप्रदायिकता में अन्तर होता है? आखिर मेरा जाति और धर्म से आक्रमक प्रेम दूसरों से किस प्रकार पवित्र हो सकता है? क्या ये सभी तर्क अपना-अपना नफा- नुकसान देखकर करना राष्ट्र-प्रेम है? क्या यह दुखद नहीं कि एफडीआई जैसे आर्थिक प्रश्न को जाति के मुद्दे से जोड़ा जा रहा है। किराना में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश आने से आढ़तियों और बिचौलियों की परंपरागत व्यवस्था टूटने से सबसे ज्यादा फायदा नए लोगों को होगा और वालमार्ट जैसी कंपनियों के आने से दलितोंद्धार होगा, आखिर तर्क है या कुतर्क ? क्या इससे बड़ा मजाक और कोई हो सकता है कि संसद में जो कहा जाए उसके विपरीत कार्य किया जाए? एक तरफ कहा जा रहा है कि यह एफडीआई से किसानों, मजदूरों को लाभ होगा लेकिन दूसरी सांस में कहा जा रहा है ‘साइकिल वाले और मोटर साइकिल वाले वालमार्ट के स्टोर से खरीदारी नहीं करेंगे उससे खरीदारी करने वाले बड़ी-बड़ी गाड़ियों वाले होंगे।’ विपक्ष की नेता का यह सवाल उचित है ‘वालमार्ट पिछले 18 सालों से घाटे में चल रही है और भारतीय अर्थव्यवस्था भी घाटे में चल रही है ऐसे में मुझे समझ में नहीं आता कि एक घाटे वाली कंपनी एक घाटे वाली अर्थव्यवस्था को कैसे फायदा पहुंचा सकती है। उन्होंने कांग्रेस के युवा सांसद दीपेंद्र हुड्डा के 24 इंच के आलू उगाने की बात पर चुटकी लेते हुए पुदा, ‘वे किसान के बेटे हैं और 24 इंच की लोकी नहीं होती आलू कहां से होगा।’ संसद में सदाबहार लालू ने खूब मनोरंजक तर्क पेश किए लेकिन वे अपने दल वालों को ही प्रभावित नहीं कर सके इसीलिए तो उनके वरिष्ठ साथी रघुवंश प्रसाद सिंह ने एफडीआई के समर्थन में वोट नहीं दिया। शायद इसीलिए उन्हें सुनाना पड़ा, ‘आपको गांठें खोलना नहीं आता, मसखरी के अलावा आपको कुछ बोलना नहीं आता’ पिछले दिनों शिमला में राहुल गांधी ने भाजपा पर दोहरा चरित्र होने का आरोप लगाते हुए कहा था, ‘राजग ने अपनी सरकार के कार्यकाल में एफडीआइ को लेकर बिल पास करवाने की तैयारी कर ली थी और इसे लागू करने की कोशिश में थी। आज जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार एफडीआइ को लागू कर रही है तो भाजपा विरोध कर रही है।’ बात तो उन्होंने पते की कही है लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि उस समय स्वयं उनके दल का मत क्या था? तब कांग्रेस ने उसका समर्थन क्यों नहीं किया था? क्या कुर्सी पर बैठते ही सोच बदलती है? पदोन्नति में आरक्षण के लिए साम्प्रदायिक भाजपा का साथ लेने में संकोच न करने वाली मायावती को देश को जबाव देना होगा कि एफडीआई मुद्दे पर साम्प्रदायिकता की बात क्यों? भाजपा में कुछ लोगों इसके पक्षधर है। उसे भी जवाब देना होगा कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो उसे अपना मत बदलना पड़ा वरना यह माना जाएगा कि राजनीति के हमाम में सभी नंगे हैं और चेहरा, चाल और चरित्र का उसका दावा भी खोखला ही है।
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