आरुषि हत्याकांडः नैतिक पक्ष की अनदेखी क्यों? Arushi Who is responsible

आखिर बहुचर्चित आरुषि मामले का फैसला आ ही गया। वर्षों के बीत जाने के बाद भी यह हत्याकांड जनमानस पटल पर छाया हुआ है। इससे उपजे सवाल हमें कहीं न कहीं झकझोर रहे हैं क्योंकि यह कहीं न कहीं हमारी दुःखती रग पर हाथ रख रहे हैं। इस बात से किसे इंकार होगा कि हर मामले के दो पहलू होते हैं एक कानूनी और दूसरा नैतिक। कानून ने अपना कार्य पूरा करते हुए दोषियों को सजा सुना दी है लेकिन आश्चर्य है कि नैतिक अपराध की सजा का प्रावधान तो दूर हम उसपर विचार करना भी गवारा नहीं करते। अदालत में आरुषि के माता-पिता को दोषी करार देते हुए अपने फैसले में आरुषि हत्याकांड को मानवता को हिला देने वाला बताया, जिसमें माता-पिता ही अपनी संतान के कातिल बन जाते हैं। तलवार दम्पत्ति को उम्रकैद की सजा के बाद इसे न्याय की जीत बताया जा रहा है तो कुछ लोग इसे आरुषि की आत्मा को संतुष्टि बता रहे है जबकि दोषी ठहराये गये इसे अन्याय बता रहे है। रोते हुए आरुषि के अपराधी घोषित माँ-बाप ने कहा कि उन्हें उस अपराध की सजा मिली है जो उन्होंने किया ही नहीं। इसलिए वे इस फैसले के विरूद्ध अपील करेंगे। अपील करना उनका अधिकार है लेकिन उनका यह कहना कि ‘उन्हें अकारण सजा मिली है’ पूरी तरह गलत है। यदि उनकी बेटी घर के नौकर के साथ आपत्तिजनक अवस्था में देखी गई तो क्या यह उनकी अपराधपूर्ण लापरवाही नहीं है? क्या पैसे कमाने की अंधी दौड़ में बढ़ते बच्चों को नौकरों के हाथों सौंपकर निश्चित हो जाना निर्दोष होना का प्रतीक है? क्या स्वयं को आधुनिकता की दौड़ में बनाये रखने वाले तलवार दम्पत्ति के पास इस बात का कोई जवाब है कि क्लबों में देर रात तक रहने वाले अभिभावकों के बच्चों को भटकने से कैसे रोका जा सकता है? क्या उन्हें आधुनिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही माता-पिता के लिए पर्याप्त है या संस्कार देना भी जरूरी है? क्या संस्कार देने का अर्थ बच्चों को घुट्टी घोलकर पिलाना है या बढ़ों को मर्यादित आचरण ही उन्हें बेहतर ढ़ंग से समझा सकता है? जो लोग यह समझते हैं कि तलवार दम्पत्ति को उम्रकैद देने मात्र से भविष्य में कोई आरुषि कांड नहीं होगा, वे जरूर किसी भ्रम का शिकार हैं क्योंकि बढ़े बच्चें, किशोरों से संबंधित ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनपर चिंतन किये बिना हम समाधान की ओर नहीं बढ़ सकते।  
अक्सर अभिभावक मानते हैं कि बच्चों की देखभाल उनके बचपन तक ही जरूरी होती है लेकिन सत्य यह है कि किशोरावस्था वह नाजुक मोड़ है जब मामूली सी लापरवाही जीवन भर के लिए एक अभिशाप बन सकती है।  बचपन के बाद किशोरावस्था आती है और उम्र के इन दोनों पड़ावों को चरित्रनिर्माण की नींव कहा जा सकता है क्योंकि इस आयु के किशोर सही गलत का अंतर नहीं कर पाते। आज के आत्मकेन्द्रित होते युग में कामकाजी पति-पत्नी भी संयुक्त परिवार में नहीं रहना चाहते जैसाकि आरुषि के परिवार में भी हुआ। आज अनेक रिश्तेदार, भाई-बहनें, माँ उनके पक्ष में बोल रहे हैं लेकिन यह परिवार संयुक्त क्यों नहीं रहा, इसका उत्तर देने को कोई तैयार नहीं है।
यह सर्वसिद्ध तथ्य है कि  एकल परिवारों में जहां माता पिता दोनों नौकरी करते हैं वहां किशोरों को काफी समय अकेले बिताना पड़ता है। अगर वह सही दिशा में हैं तब तो कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन गलत राह पर बढ़ने पर उन्हें रोकना जरूरी हो जाता है।  इस उम्र में उत्सुकता इतनी अधिक होती है कि किशोर सही गलत का अंतर नहीं कर पाते और भटक जाते है।
विशेषज्ञों का मत है कि किशोरावस्था  अर्थात् वयःसंधि काल जीवन की एक ऐसी संवेदनशील पगडंडी है, जिसे पार करना संयम, एकाग्रता व संतुलन की परीक्षा होती है। थोड़ी चूके और सीधे गर्त में। बाल्यावस्था की सादगी और भोलेपन की दहलीज पार करके जब किशोरियाँ यौवनावस्था में प्रवेश करते हैं तो उस दौर में परिवर्तनों का भूचाल आता है। इस उम्र में किशोर कुछ चंचल हो जाते हैं।  उनके मन में खतरे के प्रति सजगता जगाना जरूरी है।  आज इंटरनेट, अश्लील एवं फूहड़ फिल्में, पब संस्कृति, ड्रग्स, फैशन, महंगे मोबाइल, बेलगाम टीवी चैनल चहू ओर कामुकता परोस रहे हैं ऐसे में किशोरं को हर बात के सकारात्मक और नकारात्मक पहलू को नहीं समझ पाते तथा झूठी शान और चकाचौंध के चक्कर में अपना भविष्य बर्बाद कर लेते है।  बेहतर यह होगा कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए पर्याप्त समय निकाले। उनकी हर गतिविधि को समझने का प्रयास करें। केवल उनकी जरूरतें पूरी करना ही काफी नहीं है। इस उम्र में बच्चों को संवेदनात्मक स्पर्श केी भी आवश्यकता होती है। यदि उनकी यह आवश्यकता अपनों से पूरी नहीं होगी तो स्वाभाविक है कि वे बाहरी लोगों में इसे तलाशे और  परिणाम में उन्हें चरित्रहीनता, नशा, अपराध मिले।  किशोरावस्था की कोई भूल जिंदगी भर का अभिशाप बन सकती है और जिंदगी तबाह भी कर सकती है. इसलिए इस उम्र में किशोरों के साथ दोस्ताना व्यवहार करते हुए उन्हें सही राह दिखाने की जरूरत होती है। सच्चाई चाहे कितनी भी अप्रिय क्यों न हो उसेे नजरअंदाज भी नहीं किया जाना चाहिए। यदि हम इस ओर से आँंखें मूंदते हैं तो इसका अर्थ होगा कि हम भी इस संकट को हल्के से ले रहे हैं।  
बहुत संभव है कि जिला अदालत की तरह ऊपर की अदालते भी दोषियों को सजा देगी लेकिन क्या माँ-बाप को अपनी नैतिक जिम्मेवारी पूरी न करने के लिए कोई सजा दी जाएगी? यदि मामला केवल कानूनी दांव-पेच में ही उलझकर रह जाएगा तो ऐसे एक नहीं, हजारों मामले हमे समय-समय पर परेशान करते रहेगे। जरूरत है यह समझने की कि जीवन में यौवन ऊर्जा का आगाज है जिसे पूरे समाज के हित में लगाया जाना चाहिए। यौवन का संरक्षण हम सब की जिम्मेवारी है, न कि केवल उस युवा की। दि हम अपरिपक्व युवाओं पर सब कुछ छज्ञेड़कर निश्चिंत होना चाहते हैं तो हम देश औश्र भविष्य के भविष्य युवा  को नशा, वासना एवं आधुनिक खुली संस्कृति के हाथों लुटते देखने को अभिशप्त रहना होगा। 
तलवार दम्पत्ति का रूदन देखकर विचलित होने वाले भी कम नहीं है। कुछ लोग यह प्रश्न भी उठा रहे हैं कि ‘आखिर कौन माँ-बाप अपने बच्चों को नौकर के साथ आपत्ति जनक अवस्था में देखकर मौन रह सकता है’ उन्हें भी समझना और समझाना चाहिए कि आखिर यह नौबत आयी ही क्यों? बच्चों की परवरिश करने का अर्थ उनकी ऊर्जा एवं शक्ति को मनमाने ढंग से नष्ट करने वाले वातावरण का निर्माण करने से रोकने भी है। यदि कोई माता-पिता अपने इस दायित्व का निर्वहन करने में स्वयं को असमर्थ समझते हैं तो उन्हें यह अधिकार ही किसने दिया कि वे बच्चों को जन्म दे और उन्हें असुरक्षित छोड़ दें। अपने कैरियर को बनाने तथा वित्तीय स्थिति सुदृढ़ करने में मशगूल तलवार दम्पत्ति उस तथाकथित उच्च मध्यम वर्ग के प्रतीक हैं, जिसे अपनी कुशलता से वह सब हासिल है जिसके आधार पर आधुनिकता को अपनाकर सामाजिक स्थान बनाया जा सकता है। यह तलवार दम्पत्ति के सामाजिक संबंध  ही थे जिसने उन्हें बचाने की हर संभव कोशिश की। नोएडा पुलिस द्वारा आरंभिक जांच में ही उनपर शक किया था लेकिन ऊपरी दबाब  ने उस शक को पलट दिया जिससे कभी नौकर तो कभी अज्ञात हत्यारा माना गया। आखिर इस मामले की ‘क्लोजर’ रिपोर्ट भी आई लेकिन कुछ मीडिया का दबाब था जिसने मामले को आसानी से समाप्त नहीं होने दिया। माननीय न्यायाधीश ने फिर से केस खोलने की आदेश दिया और परिणाम हमारे सामने है। स्पष्ट है कि साधन, सम्पर्क में दोषी कहीं कमजोर नहीं है लेकिन अपने ही परिवार को संभालने के लिए जिस साधना की आवश्यकता होती है उसमें वे नितांत कमजोर और नकारा साबित हुए जो इस पक्ष का दुःखान्त पहलू है।
जो लोग यह कहते हैं कि माता-पिता इतने निर्मम नहीं हो सकते कि अपनी इकलौती संतान को जान से मार डालें उन्हें  यदा-कदा सुनाई देने वाली ऑनर किलिंग की घटनाओं को देखना चाहिए। आधुनिकता के नाम बेलगाम  पाश्चात्य संस्कृति की ओर भागने वाले दोहरे आचरण के शिकार होते ही है। एक न्यायालय ने उनके मानवता का हत्यारा घोषित किया है लेकिन लोकमत की दृष्टि में भी उनका आचरण निंदनीय और शेष समाज की आंखें खोलने वाला है। क्या यह उचित समय नहीं है कि हम अपने अंदर झांककर विचारे कि क्या हम अपने ही अंश अपने बच्चों को आधुनिकता के नाम पर किसी अंधेरी सुरंग में तो नहीं धकेल रहे हैं? क्या स्वयं अपने ही हाथों से अपने सपनों पर पानी फेरने वाले किसी सहानुभूति के हकदार हैं? आज हम आसुरी शक्तियों के हाथों के खिलौने बन रहे हैं तो दोष भी हमारा ही है। आसमान को छूने के लिए मचल रहे लोगों को समझना होगा कि जमीन पर पैर रखना भी जरूरी है वरना उनका स्वर्ग भी किसी त्रिशंकु के स्वर्ग से कमतर ही होगा। यदि समाज को बचाना है तो स्वामी विवेकानंद के उन शब्दों को अपने आचरण में उतारना होगा- ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’  उठो, जागो, और ध्येय की प्राप्ति तक रूको मत।-
--- डा. विनोद बब्बर 9868211911, 7982170421
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