गण और तंत्र के बीच पसरता ढोंगतंत्र-- डॉ. विनोद बब्बर

गणतंत्र के नये संस्करण का यह चौसठवां पड़ाव। गणतंत्र की एक और वर्षगांठ। एक बार फिर आत्मावलोकन। ‘गण’ और ‘तंत्र’ के बीच कुकरमुत्ते की तरह तेजी से पनप रहे ‘ढोंगतंत्र’ के पहचानने तथा यह स्मरण करने का अवसर भी है कि पूरी दुनिया को गणतंत्र का पाठ हमने ही पढ़ाया गया था। हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी और जनता सुखी थी। गणपति शब्द का प्रयोग वैदिक साहित्य में अनेक स्थानों पर हुआ है, जिसका एक अर्थ गण अर्थात नागरिक है। इस तरह गणपति यानी नागरिकों द्वारा परस्पर सहमति के आधार पर चुने गए प्रशासक से है। भारतीय परंपरा में गणपति को सभी देवताओं में अग्रणी, सर्वप्रथम पूज्य माना गया है. इस बात की प्रबल संभावना है कि इस शब्द की व्युत्पत्ति गणतांत्रिक राज्य में हुई हो। गणेश को देवता के रूप में मिलने वाला सम्मान, तथा उसे समृद्धि का प्रतीक मानना आज भी इस बात का द्योतक है कि गणपति का अभिप्राय आर्थिक समूह का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति से ही था. व्यापार के सिलसिले में चलने वाले काफिलों में गणपति की स्थिति उनके संरक्षक के रूप में मान्य थी. जिसे पूरी श्रद्धा एवं सम्मान के साथ देखा जाता था। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है तो गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ है बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार तथा अनेक अन्य ग्रंथों में अनेकों बार आया है। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। 
गणतंत्र का ताजा संस्करण इसलिए क्योंकि सैंकड़ो वर्षों की गुलामी और आजादी के नाम मिले विभाजन, रक्तपात के बाद हम 26 जनवरी 1950 को पुनः गणतंत्र बने। इन 64 वर्षों में अनेक संकटों आये लेकिन गरीब, मजबूर, अनपढ़, पिछड़ा समझे जाने वाले इस देश के ‘गण’ ने ‘तंत्र’ को थामे रखते हुए भारत का भाल गर्व से ऊँचा रखा। शरारती पड़ोसियों   के हमले झेले, आतंकवाद की चुभन सही तो आवश्यक पदार्थों के अभाव का दौर भी देखा। आयातित घटिया अनाज के लिए लंबी लाईनों के दौर का  आत्मनिर्भरता के बाद खुले में पड़ी हजारों बोरियों को बर्बाद होना चमत्कारिक परिवर्तन है। हमारे वैज्ञानिकों ने अनेक चमत्कार कर दिखाये तो आज हमारी सूचना प्रौद्योगिकी का लोहा सारी दुनिया मानती है। अमेरिका जैसा विश्व दादा भी बार-बार अपनी जनता को भारत की प्रतिभा का डर दिखाकर मेहनती बनाना चाहता है तो यह केवल और केवल इस देश के ‘गण’ की शक्ति प्रतिभा और समर्पण का अभिनंदन है। जय जवान, जय किसाान से जय विज्ञान इस देश के तंत्र की नहीं बल्कि ‘गण’ की शोभायात्रा है, जिसे सम्पर्ण विश्व दृग-नेत्रों से देख रहा है। अभिनन्दन है उन धरती पुत्रों की जिन्होंने अपनी जननी और जन्मभूमि की शान बढ़ाई।
पर कैसे कह दें कि तंत्र की विश्वसनीयता कायम है। कानून के शासन और कर्तव्य परायणता पर भाई-भतीजावाद, अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार तो हावी था ही अब ‘ढ़ोंगवाद’ एक नई समस्या के रूप में हाजिर है। मशखरेपन का चारा-बेचारा हमने झेला, लेकिन इसी बीच स्वयं को किसी समुदाय विशेष का एकमात्र उद्धारक बताने से बड़ी-बड़ी बातें, अनाप-शनाप वादे, ‘सब चोर केवल मैं ही ईमानदार’ की नौटंकी वाले भी आए। भोली-भाली जनता फिर ठगी गई। उसे ‘तंत्र’ के नाम पर फिर ‘झुनझुना मंत्र’ मिला। नमो के नाम पर भी लाखों के डिजाईनर कुर्ते, महंगे चश्मे वाली अकड़। आखिर टोपी से कुर्ते तक यह ‘ढ़ोंगवाद’ नहीं तो और क्या है? भ्रष्टाचार मिटाने के नाम पर स्वयं कानून को तोड़ने वाले ‘‘गण’ की आशाओं पर ‘झाडू’ फेर रहे हैं तो तंत्र’ से खिलवाड़ कर रहे हैं। 
तंत्र के पास कानूनों की कमी नहीं हैं। कमी है तो उनके क्रियान्वयन की। देश का धन विदेशों में जा रहा है। शरारती पड़ोसी नकली नोट भेज रहा हैं, अवैध हथियारों संग आतंकवादी, नक्सलवादी. और न जाने कौन-कौन देश के हर कोने तक अपनी पैंठ बनाये हुए हैं तो केवल इसीलिए कि ‘तंत्र’ की आँखें पूरी तरह से खुली हुई नहीं है। यह पूछना बेकार है कि आँखें जानबूझकर नहीं खोली जा रही है या स्वार्थ की पट्टी ने उन्हें ढंक लिया है।  
जिस गणतंत्र का हम अभिनंदन कर रहे है, उसकी लाज तंत्र ने रखी ही कहाँ? संविधान में राष्ट्र भाषा घोषित हिन्दी की वास्तविक स्थिति क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। कहने को हम एक है, एकसमान हैं पर हमारे कानून अलग-अलग। संसद के बनाये कानून भी सारे देश पर एकसमान लागू नहीं होते क्योंकि हमने अस्थायी धाराओं को लगभग स्थायी विभाजक बना रखा है। इसी ‘ढ़ोंगतंत्र’ का परिणाम है कि हम स्वयं को ‘भारत’ और ‘इण्डिया’ में बांट रहें हैं। भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर एक ही माँ के बेटो के मन में नफरत घोली जा रही है तो देश में दोहरी शिक्षा प्रणाली है दोहरी स्वास्थ्य व्यवस्था है। सुरक्षा के अलग-अलग मापदंड हैं तो बिजली, पानी, सड़क जैसी आवश्यक सुविधाओं की उपलब्धता  भी एक जैसी नहीं है। पिछडे क्षेत्रों का अंधेरा और अमीरों की बस्ती की जगमगाहट कहीं भी देखी जा सकती है। दुर्भाग्य से ये दोहरे मापदंड किसी एक दल के शासन तक सीमित नहीं रहे। सांपनाथ, नागनाथ, से भुजंगनाथ तक ‘तंत्र’ ने ‘गण’ का शोषण ही किया है अर्थात् राजनैतिक शुचिता की कोरी बातें करने वाले भी इस अंधेरगर्दी से अपने आपको बचा नहीं सके हैं। कहने का जनता-जनार्दन है लेकिन राजा कौन है, सभी जानते हैं। ‘राजा’ केवल 2जी वाले ही नहीं, यहाँ तो आजकल ‘एंग्री’ दिखाई देने वाले युवराज से नेतापुत्रों की फौज है। जनता तो नाम की ‘जनार्दन’ है। उसके लिए अस्पतालों से रेलगाड़ी, बस, स्कूल, काजेल हर जगह लम्बी लाइने हैं। गुण्डेे, आतंकी, नक्सली और ‘भाई’ फल-फूल रहे हैं क्योंकि तंत्र इनपर गन तानने से डरता है जबकि शरीफ आदमी के लिए ‘गणतंत्र’ गनतंत्र बना हुआ है।
भ्रष्टाचार और कालेधन पर खूब बढ़-चढ़कर बातें करने वाले क्या इतना भी नहीं जानते कि यह ‘तंत्र’ की निष्क्रियता अथवा मिली भगत के बिना संभव नहीं है। आज प्रश्न यह नहीं कि काले धन का क्या किया जाए बल्कि यह होना चाहिए कि धन काला हुआ ही क्यों? यह तंत्र और नियमों की असफलता नहीं तो और क्या है? नियमों की समीक्षा कर उनमें बदलाव लाने की बजाय कोई ‘धरने’ पर उड़ा है तो उसकी बखिया उधेड़ने पर। यदि कोई अनुभवहीन एक ही झटके सारी गंदगी दूर करने की जिद्द ठान ले तो आखिर ‘ढ़ोंग’ के अतिरिक्त उसे क्या कहा जाए। जो जिम्मेवारी मिली है उसमें कुछ कर दिखाने की बजाय अधिकारों के लिए मचलने वाले ‘मंत्र’ पर शंका न हो तो आखिर हो?
यह फैसला करना जरा मुश्किल है कि आखिर राजनीति का आकर्षण दिनों- दिन क्यों बढ़ता जा रहा है। नेताओं का साम्राज्य दिन दुगनी-रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। चुनाव महंगा कर्मकांड बनते जा रहे हैं और हम शुचिता की केवल बातें कर गण की आंखों में धूल झोंक रहे है। आखिर छोटे-छोटे से चुनाव में करोड़ों खर्च की जानकारी सबको होते हुए भी आज तक किसी पर कोई कार्यवाही क्यों नहीं हुई?  सच तो यह है कि देश की सभी समस्याओं, सभी चुनौतियों की चिंता जनता को ही करनी है। गण को ही तंत्र की लगाम कसनी होगी। ढ़ोंगी किसी भी पार्टी के हो, उन्हें सबक सिखाये बिना सच्चे गणतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती। दोषियों को सजा न मिलने की टीस पीड़ित को सालती है तो उसे चुनाव के दिन घर बैठे रहने की अपराधिक भूल सुधारनी होगी। बटन दबाकर या मोहर लगाकर गण और तंत्र के बीच दीवार बने विषधरों का सफाया करना होगा, तभी कह सकेंगे हम हैं सबसे बड़ा गणतंत्र! सच्चा गणतंत्र!!
यहाँ इस याद रखना होगा कि हमारे शास्त्रों में राजा का शाब्दिक अर्थ जनता का रंजन करने वाला या सुख पहुँचाने वाला है। जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजपरिवार भी नहीं बच सकते थे। राजा सागर को अपने अत्याचारी  पुत्र को निष्कासित करना पड़ा था। महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि ‘जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है।’  क्या अब भी यह समझना शेष है कि जो अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता वह ढोंगी ही है।
कभी भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता उपदेश देते हुए ‘उत्तिष्ठ भारत’ कहा था। वही नारा हजारो साल पहले चाणक्य ने भी  दिया था। आज से एक सौ बीस वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद ने भी हमें ‘भारत जागों, विश्व जगाओं’ का संकल्प दिया था। आज जागने की बेला है। आखिर कोरिया, सिंगापुर, ताइवान और जापान की तरह हम विकसित क्यों नहीं हो सके? छ दशक पहले हमने भी वहीँ से शुरुआत की थी जहाँ से इन देशो ने। क्या तंत्र पर ढ़ोंग और भ्रष्टाचार के हावी होने को कोई दोषमुक्त करने की सोच भी सकता है? समाज में व्याप्त असंतोष  के परिणामों पर  सोचना, समझना ही होगा क्योंकि - न समझोगे तो मिट जाओगे, ऐ वतन वालो!
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