हमारे ग्रन्थों में राष्ट्र और गणतंत्र की अवधारणा----डॉ. विनोद बब्बर

गणतंत्र की एक और वर्षगांठ। एक बार फिर विवेचना। ‘गण’ और ‘तंत्र’ के विषय में यह स्मरण करने का अवसर कि पूरी दुनिया को गणतंत्र का पाठ इसी धरा से पढ़ाया गया था। हजारों वर्ष पहले भी भारतवर्ष में अनेक गणराज्य थे, जहाँ शासन व्यवस्था अत्यंत सुदृढ़ थी और जनता सुखी थी। गण शब्द का अर्थ संख्या या समूह से है। गणराज्य या गणतंत्र का शाब्दिक अर्थ संख्या अर्थात बहुसंख्यक का शासन है। इस शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौ बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है। वहाँ यह प्रयोग जनतंत्र तथा गणराज्य के आधुनिक अर्थों में ही किया गया है। 
वैदिक साहित्य में, विभिन्न स्थानों पर किए गए उल्लेखों से यह जानकारी मिलती है कि उस काल में अधिकांश स्थानों पर हमारे यहाँ गणतंत्रीय व्यवस्था ही थी। कालांतर में, उनमें कुछ दोष उत्पन्न हुए और राजनीतिक व्यवस्था का झुकाव राजतंत्र की तरफ होने लगा। ऋग्वेद के एक सूक्त में प्रार्थना की गई है कि समिति की मंत्रणा एकमुख हो, सदस्यों के मत परंपरानुकूल हों और निर्णय भी सर्वसम्मत हों। कुछ स्थानों पर मूलतः राजतंत्र था, जो बाद में गणतंत्र में परिवर्तित हुआ। महाभारत के सभा पर्व में अर्जुन द्वारा अनेक गणराज्यों को जीतकर उन्हें कर देने वाले राज्य बनाने की बात आई है। महाभारत में गणराज्यों की व्यवस्था की भी विशद विवेचना है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी लिच्छवी, बृजक, मल्लक, मदक और कम्बोज आदि जैसे गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। उनसे भी पहले पाणिनी ने कुछ गणराज्यों का वर्णन अपने व्याकरण में किया है। आगे चलकर यूनानी राजदूत मेगास्थनीज ने भी क्षुदक, मालव और शिवि आदि गणराज्यों का वर्णन किया। 
हालांकि कुछ पाश्चात्य चिन्तक हमें लगातार मूर्ख बनाने का प्रयास करते रहे हैं। आर्यों को विदेशी, राष्ट्र की अवधारणा को पश्चिम की देन बताना, गणतंत्र को भारत के लिए सर्वथा अपरिचित बताने वाले अंग्रेज मिथ्या प्रचार में  माहिर थे लेकिन दुःखद आश्चर्य तो तब होता है जब हमारे अपने अंग्रेजीदा भाई भी पश्चिम की हीनभावना फैलाने वाली ग्रन्थि के शिकार नजर आते है। वेद सहित हमारे लगभग हर ग्रन्थ में राष्ट्र की परिकल्पना स्पष्ट रूप से उपलब्ध होती है। राष्ट्र के सर्वविध कल्याण के लिये राष्ट्र भृत् यज्ञ का वर्णन (यजुर्वेद 9.10 अध्याय) है। 
हर राष्ट्र अपनी भूमि, जनसमूह, संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, धर्म, साहित्य, कला, राजनीति, जीवनदर्शन आदि के प्रति देशवासियों के हृदय में जो नैसर्गिक स्वाभिमान होता है, उसी के बल पर जीवांत रहता है। कहा भी जाता है कि ‘सृष्टि के प्रारम्भ में मानव मात्र के कल्याण के लिए ऋषियों के पावन अन्तः करणों में प्रकाशित, वेद-ज्ञान।’ हमें अपने मनीषियों ऋषियों की वाणी में राष्ट्रीयता का गौरव गान सुनाई देता है। जैसाकि  वेदों मे यत्र-तत्र सर्वत्र, राष्ट्रीयता का स्वर मुखरित होता रहा है।  आदि कवि वाल्मिकी की अमर कृति रामायण, महर्षि वेद व्यास की महनीय कृति महाभारत, कवि कुलुगुरु कालिदास का रघुवंश, आदि सभी की श्रेष्ठ रचनाओं में राष्ट्रीयता की धारा बहती है। 
गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस में वनवास समाप्ति के बाद नए लंकाधिपति द्वारा श्रीरामजी से कुछ दिन रूकने के आग्रह पर श्रीराम जी के मुख से कहलाते है- ’जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” अर्थात जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से भी बढकर है। इतना ही हमारे हर धर्मग्रन्थ में मातृभूमि की वंदना और उसकी स्वतंत्रता का भाव है। ऋग्वेद में स्पष्ट आहवान है- यतेमहि स्वराज्ये। गणतंत्र दिवस पर यह स्मरण करना समचिन होगा कि   ऋग्वेद में ‘गणांना त्वां गणपति’ आया है। गण और जन ऋग्वेद में हैं। महाभारत के शांतिपर्व में युधिष्ठिर ने शरशैय्या पर पड़े भीष्म से अनेक प्रश्न पूछता है। उन्हीं प्रश्नों में में उसने पितामह से आदर्श गणतंत्र की परिभाषा पूछी। भीष्म का उत्तर था- ‘भेदभाव से गण नष्ट होते हैं।’ इसी प्रकार अथर्ववेद (6.64.2) में समानो मंत्र‘ समितिः  - समानं चेतो अभिसंविषवम् मनुष्यों के विचार तथा सभा सबके लिए समान हो कहा गया है। एक विचार एवं सबको समान मौलिक शक्ति मिलने की बात कही है। विधान के राज्य की संक्षिप्त परिभाषा भी यही है। गण के लिए आंतरिक संकट बड़ा होता है- आभ्यंतर रक्ष्यमसा बाह्यतो भयम, बाह्य उतना बड़ा नहीं। गणतंत्र के मूल शब्द गण की अवधारणा अर्थशास्त्र के रचयिता कौटिल्य (चाणक्य) और आचार्य पाणिनी के काल में भी वर्णित है तब समाज के प्रतिनिधियों के दलों को गण कहा जाता था और यही मिलकर सभा और समितियां बनाते थे।
हाँ, विदेशियों को गण नहीं माना जाता था। इसका एक दृष्टांत मिलता है जब आचार्य चाणक्य   वन में साधना कर रहे थे इसी बीच  यूनान से सेल्युकस ( जोकि चंद्रगुप्त के ससुर थे) भारत पधारे। एक दिन सेल्युकस ने चाणक्य से मिलने की इच्छा प्रकट कर दी तो चंद्रगुप्त ने गुरु चाणक्य के पास सन्देश वाहक भेजकर चाणक्य की अनुमति प्राप्त की। सेल्युकस के वहाँ पहुँचने पर औपचारिक अभिवादन के बाद चाणक्य ने पूछा, ‘मार्ग में कोई कष्ट तो नहीं हुआ।” इस पर सेल्युकस ने कहा, ‘भला आपके रहते मुझे कष्ट होगा ? आपने मेरा बहुत ख्याल रखा।” चाणक्य बोले, ‘जी हां, सचमुच आपका हमें आपका ख्याल तो रखना ही था’ और इसके बाद चाणक्य ने सेल्युकस के भारत की भूमि पर कदम रखने के बाद से वन आने तक की हर घटना का ब्यौरा प्रस्तुत किया। इतना तक बताया कि सेल्युकस ने सम्राट से क्या बात की, एकांत में अपनी पुत्री से क्या बातें हुईं। मार्ग में किस सैनिक से क्या पूछा।’
सेल्युकस ने व्यथित कहा, ‘इतना अविश्वास? मेरी गुप्तचरी की गई ।  यह तो मेरा अपमान है।’
चाणक्य ने विनम्रतापूर्वक समझाया, ‘इसे अपमान, अविश्वास अथवा जासूसी न समझे। आप हमारे अतिथि हैं आपके अपमान की तो बात तो मैं सोच भी नहीं सकता लेकिन जहाँ तक सूचनाओं की बात है तो वह मेरा राष्ट्रधर्म है। आप हमारे अतिथि अवश्य हैं  पर विदेशी हैं। अपनी मातृभूमि से आपकी जितनी प्रतिबद्धता है, वह इस राष्ट्र से नहीं हो सकती। यह स्वाभाविक भी है  मैं तो सम्राज्ञी की भी प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखता हूं । मेरे इस धर्म को आप अन्यथा न लें।’
आचार्य चाणक्य की बात सुनकर  सेल्युकस उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला, ‘जिस राष्ट्र में आप जैसे राष्ट्रभक्त हों, उस देश की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता।“ चाणक्य का व्यवहार ‘संघे शक्तिः कलौ युगे’ का साकार रूप था। आखिर प्रत्येक राष्ट्र अपनी शक्ति के दर्प के कारण ही अपने आस्तित्व को कायम रख सकता है। 
लोकतंत्र के मूलभूत आदर्श का दर्शन भी हमें वेदों में मिलता है। ऋग्वेद से लेकर अथर्ववेद के संहिता ग्रंथों में राष्ट्र के उत्कर्ष के कतिपय नीतिसूत्रों का स्पष्ट उल्लेख मिलता हैं। अथर्ववेद (12, 1) का पूरा पृथ्वी सूक्त ही हमारा राष्ट्रगीत है, जिसमें विविध प्रकार के वर्ण, जाति, धर्म, जनपद से सम्बद्ध मानवों को एकसूत्र संघटित रहने का उपाय बताया है। जिसका ‘माता मन्त्र भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ तो विशेष प्रसिद्ध है।
ऋग्वेद का यह अंतिम सूक्ष्म हैं उसका ऋषि संवनन है। इस सूक्त में अर्थसंगति के रूप से दो विभाग बनते हैं। प्रथम मंत्र के द्वारा ऋषि स्तुति करता है- ‘हे अग्नि, आप सभी मानवों को चारों ओर से सम्मिलित करते हैं। आप स्वयं वेश्वानर के रूप में सभी प्राणियों को व्याप्त किये हुए हैं। आप पृथ्वी के वेद्स्विरूप स्थान में ऋत्विजों के साथ चमकते रहते हैं। आप हमें धन, रत्नादि सुलभ करायें।’
इस मंत्र में ‘विश्वानि वसूनि’ के द्वारा आठ रत्नों की प्राप्ति की सूचना मिलती है। ये आठ रत्न, बंधु, मेथा  यश, ब्रह्म, वेदचतुष्टयी, रत्न, भग-ऐश्वर्य, और व्रत है। इन आठ रत्नों की प्राप्ति हो गई, परंतु राष्ट्र का संगठन न हुआ, तो क्या लाभ? इसके हेतु ऋग्वेद 20-191 के इस सूक्त के द्वितीय, तृतीय ओर चतुर्थ मंत्र में राष्ट्र के संविधान का निर्देश है। उपक्रम के रूप में 
‘संगच्छध्वम्’ वाक्य का सूचक है, तथा उपसंहार के रूप में ‘यथा वः सु सह असति’ संघ के एकमत्य का प्रतिपादक है।
द्वितीय मन्त्र में संगठन के तीन साधन बताये हैं। यह भगवती वेदमाता अपने मानव-पुत्रों को उपदेश के रूप में सुनाती है -सं गच्छध्वम! हे मेरे पुत्र मानव, आप सब एक सूत्र में बंध जायें, संगठित हो जायें। विश्वहित के लिये अपना सुदृढ़ संगठन शीर्घ ही साथ लें। संगठन के ये तीन साधन है।  ‘संवदध्वम्’  परस्पर का विरोध त्यागकर एक ही भाषा बोलने का यत्न करें।  . ‘सं वो मनांसि जानताम्’ आपकी संवादयुक्त वाणी एक हो इतना नहीं, आपके अन्तःकरण भी एक विषय को जानें, अर्थात एकविध (राष्ट्र के हितकारी) अर्थ को आप सब जानें।  ‘देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते।’ जैसे विश्वराज्य के अधिकारी सूर्य आदि देव अथवा पिण्ड-ब्राह्मण्ड के रूप से पिण्डराज्य के अधिकारी चक्षु आदि इन्द्रियों में अधिष्ठित सूर्य आदि देव समस्त साधनसम्पति के प्राप्तयर्थ अपने विभागों का बिना प्रमाद के संचालन करते हैं, ठीक वैसे ही आप सब मानव एकमद होकर, परस्पर के विरोध या बैमनस्य का छोड़कर समाज, राज्य या प्रजातंत्र का शासन सफलता से करते रहें। 
वास्तव में यह विश्व एक महान राज्य है, जिसमें भिन्न-भिन्न विभागों के अधिकारी, मंत्रिगण अने-अपने विभागों को कुशलता से चलाते रहते है। जैसे आज के प्रजातंत्र शासन में कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, प्रशासन आदि अपने- अपने कार्य करते हैं विश्वराज्य मंे भी वही व्यवस्था चालू है। तीन साधन- परस्पर संवाद,  मनों में ऐकमत्य से अवबोध तथा  अन्यों में हस्तक्षेप न करते हुए अपने दायित्वों का हित चिंतन। 
यह उल्लेख भी आवश्यक है कि हमारे शास्त्रों में राजा का शाब्दिक अर्थ जनता का रंजन करने वाला या सुख पहुँचाने वाला है। हमारे यहाँ जनमत की अवहेलना एक गंभीर अपराध था, जिसके दंड से स्वयं राजपरिवार भी नहीं बच सकते थे  राजा सागर को अपने अत्याचारी  पुत्र को निष्कासित करना पड़ा था। महाभारत के अनुशासन पर्व में स्पष्ट कहा गया कि जो राजा जनता की रक्षा करने का अपना कर्त्तव्य पूरा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार देने योग्य है। राजा का कर्त्तव्य अपनी जनता को सुख पहुँचाना है। इसी प्रकार बौद्ध मत जो भारत से दुनिया के एक बहुत बड़े भाग में फैला उसके साहित्य को मानना भी चाहिए जिसके अनुसार एक बार तथागत बुद्ध से पूछा गया कि गणराज्य की सफलता के क्या कारण हैं? बुद्ध ने सात कारण बतलाए थे- 1. जल्दी-जल्दी सभाएं करना और उनमें अधिक से अधिक सदस्यों का भाग लेना। 2. राज्य के कामों को मिलजुल कर पूरा करना। 3. कानूनों का पालन करना तथा समाज विरोधी कानूनों का निर्माण न करना। 4. वृद्ध व्यक्तियों के विचारों का सम्मान करना। 5. महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार न करना। 6 स्वधर्म में दृढ़ विश्वास रखना। 7. अपने कर्तव्य का पालन करना। हमारे मनीषियों राष्ट्र और गणतंत्र पर जो चिंतन देकर गए है उसके आलोक में आज के गणतंत्र को भी उसी कसौटी पर रखकर उसकी सफलता -असफलता का आंकलन संभव है। 
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