बदलावः केवल बयार या साकार भी! --- डा. विनोद बब्बर

ज्यो-ज्यों चुनाव नजदीक आ रहे हैं, राजनीति के साथ-साथ आर्थिक स्थिति पर भी गर्मागर्म बहस जारी है। प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी कांग्रेस सरकार पर निशाना साध रहे हैं तो चिदंबरम उनके ज्ञान को डाक टिकट के पीछे लिखने योग्य ही मानतें। ज्ञान और योग्यता की इस जंग में 56 इंच के सीने से एके.56 तक, धरने से कुछ करने तक है बहुत कुछ नया है  लेकिन अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ द्वारा  पूंजीपतियों द्वारा भारतीय बैंकों की इस विशाल लूट अर्थात् देश की आर्थिक नीतियों की पोल खोलने वाले रहस्योद्घाटन पर सभी दलों का मौन चौंकाता है। 
आखिर बताया जाए कि क्या यह गलत है कि भारतीय बैंकों के सबसे बड़े 50 डिफाल्टरों की सूची में ज्यादातर बड़ी कंपनियां है जिन पर 40,528 करोड़ रूपये का कर्जा फंसा हुआ है। सरकारी बैंकों द्वारा जारी खराब ऋण में बहुत तेजी से वृद्धि हो रही है। मार्च 2008 में जो राशि 39,000 करोड़ रूपये थी वह  मार्च 2013 में यह 1,64,000 करोड़ रूपये थी और हाल ही में जारी रिजर्व बैंक की रपट के अनुसार यह राशि 2,29,000 करोड़ पर पहुंच चुकी है। इतना ही नहीं इस अवधि के दौरान 3,25,000 करोड़ रूपये के खराब कर्जों का पुनर्गठन करके उन्हें अच्छे कर्जाे में बदला गया है। इनमें 83 फीसदी कर्जे बड़ी कंपनियों के हैं। 
इतना ही नहीं आम आदमी की चिंता करने वाली सरकारें जनता के खून पसीने की कमाई की कितनी बेदर्दी से लुटा रही है उसका एक उदाहरण यह भी है कि गरीब किसान के छोटे- मोटे कर्ज अथवा कुछ सौ के बिजली या पानी के बिल के लिए उसे जलील करने वालों ने राहत के नाम पर बड़ी कम्पनियों को पिछले आठ सालों में  केवल चार केन्द्रीय करों में  31,88,757 करोड़ रूपये की टेक्स माफी अथवा छूट प्रदान की तो  सस्ती जमीन व अन्य रियायतें भी दी। राज्य सरकारें भी अपनी ओर से कर-रियायतें देती रही है। ये पूंजीपति किस तरह के हथकंड़े अपनाते हैं इसकी एक बानगी उस शराब किंग के रूप में प्रस्तुत है। यह कहावत कि ‘भारत में बीमार उद्योग तो हैं, लेकिन कोई बीमार उद्योगपति नहीं है।’ का साकार रूप प्रस्तुत उस कंपनी पर 13 बैंकों का 13750 करोड़ रूपये कर्जा था। कम्पनी अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पा रही थी परंतु वहीं ‘महापुरुष’ अपने जन्मदिन पर  एक मंदिर में एक करोड़ रूपये मूल्य का 3 किलो सोना चढ़ा रहे थे। एक अन्य नवधनिक परिवार को सरकार ने पिछले एक साल में कई बार प्राकृतिक गैस के दाम बढ़ाकर मोटी कमाई का अवसर प्रदान किया लेकिन उसपर बिजली के दाम कम करने का दबाव नहीं बना सकी। एक प्रवासी पूंजीपति  प्रमोद मित्तल स्पेन के बार्सीलोना शहर में अपनी बेटी की शादी में 505 करोड़ रूपये लुटाता है जबकि उसकी कंपनी इस देश के बड़े डिफाल्टर कर्जदारों में से एक हैं। 
कहने को 2005 से पहले के नोट बदलने को नकली नोटों से मुक्ति और देश में मौजूद काले धन का पता लगाने का अभियान कहा जा रहा है लेकिन बड़े मगरमच्छ मुद्रा के लगातार अवमूल्यन और क्रयशक्ति में गिरावट के दौर में नोटों जमा करते होंगे ऐसी संभावना कम ही है। देश के सबसे बड़ी अदालत द्वारा अनेक बार फटकार लगाए जाने तथा जर्मन सरकार द्वारा उनके बैंकों में काला धन जमा करने वालो की सूची जिसमें 100 भारतीयों के भी नाम है, उपलब्ध कराने के बावजूद सरकार ने चोरों के नाम उजागर नहीं किए तो जाहिर है कि कहीं दाल में काला जरूर है। इन दिनों दिल्ली में उभरे ‘ईमानदार विकल्प’ की चर्चा भी जोरों पर है लेकिन वे तथाकथित लोग विदेशों से लगातार सहायत्ता राशि तो प्राप्त कर रहे हैं परंतु सरकार द्वारा ब्यौरा मांगे जाने पर मौन रहते है। दिल्ली उच्च न्यायालय में सरकार द्वारा प्रस्तुत प्रतिवेदन में ‘ईमानदार’ नए विकल्प की हठधार्मिता की जानकारी चौंकाती है। क्या ‘हमाम में सभी नंगे हैं’ की अवधारणा निराशा उत्पन्न नहीं करती है? 
ग्लोबल फाइनेंसियल इंटेग्रिटी (जीएफआइ) के ताजा अनुमान के अनुसार भारत से प्रतिवर्ष 1,35,000 करोड़ रुपये (27 अरब डॉलर) स्विस बैंक आदि में जमा कराया जाता है। दुनिया में धन के अवैध प्रवाह पर नजर रखने वाली यह संस्था बताती है कि भारत से बाहर जाने वाले दो नंबरी धन का प्रवाह बढ़ता जा रहा है और 2011 में 4,00,000 करोड़ रूपये देश से बाहर गया। यदि 2002 से 2011 के बीच पूरे दशक का अनुमान लगाएं तो 15,70,000 करोड़ रूपये अवैध रूप से देश के बाहर गया। यदि इस काले धन को  वापस लाया जा सके तो देश की कायापलट हो सकती है। हम न केवल विदेशी कर्ज से मुक्त हो सकते हैं जोकि सितंबर, 2013 तक 400 अरब डॉलर था, बल्कि आधारभूत संरचनाओं के विकास के लिए भी हमारे पास पर्याप्त संसाधन उपलब्ध हो सकते है। आश्चर्य है कि आजादी के फौरन बाद भ्रष्टाचार को ‘देश का पैसा देश में ही तो है’ कह कर नजरअंदाज करने वालों को ‘देश का पैसा विदेश में’ होने पर भी कोई आपत्ति नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि कालाधन बाहर भेजने वाले इतने ताकतवर बताए जाते हैं कि सरकार इनके खिलाफ कोई भी कदम उठाने में खुद को असमर्थ ही पाती है। क्या भ्रष्टाचार की जड़ें हमारी व्यवस्था में इतने गहरे तक पहुंच चुकी हैं कि पूरा तंत्र ही इनके सामने पंगु बनकर रह गया है। जबकि भ्रष्टाचार के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में पारित प्रस्ताव का उद्देश्य है, गैरकानूनी तरीके से विदेशों में जमा धन वापस लिया जा सके। इस संकल्प पर भारत सहित 140 देशों ने हस्ताक्षर किए और 126 देशों ने इसे लागू कर काले धन की वापसी की कार्रवाई भी शुरू कर दी है पर हम फिलहाल खामोश हैं।
भारतीय बाजारों पर विदेशी सामान खास तौर पर चीन हावी है पर हमारे राजनेता मस्त है। नेपाल के नाम पर बहुत बड़ी मात्रा में चीन से सामान आयात किया जाता है। नेपाल को भारत की सड़कों उपयोग की अनुमति है जिसका दुरपयोग इस आयात के नाम पर किया जाता है बेशक इस आयात से हमारी सरकार को कर के रूप में कुछ भी प्राप्त न होता हो लेकिन वह माल नेपाल पहुंचने से पहले ही खुर्द-पुर्द हो जाता है। इसके अतिरिक्त जो आयात भारत के लिए, भारत के नाम पर ही  हो रहा है उस स्थिति में भी माल की कीमत, मात्र और गुणवत्ता में फेरबदल कर वास्तविक लागत को कम कर दिखाया जाता है। इस धंधे में बहुत बड़े पैमाने पर टैक्स घोटाला होता है जिसकी जानकारी हमारी सरकारों को न हो, यह संभव नहीं है। केवल 2005 से पहले के नोटों को चलन से बाहर कर कालेधन पर अंकुश लगाने की ख्वाब पालने वाली सरकार को आयात-निर्यात शुल्क बचाने के नाम पर भ्रष्ट तरीकों पर सबसे पहले अंकुश लगाने की योजना बनानी चाहिए। 
जहां तक काले धन का प्रश्न है, टैक्स की देनदारी से बचने के प्रयास से हुई आय अथवा बचत काला धन कहलाती है जो दो तरीको से पैदा होता है। पहला जिसे गलत तरीका माना जाता है उसमें आपराधिक गतिविधियांें जैसे अपहरण, तस्करी,  नशीले पदार्थों का व्यापार, अवैध खनन, जालसाजी, घोटालेके अतिरिक्त सरकारी भ्रष्टाचार,  रिश्वतखोरी और चोरी भी शामिल है। यह आर्थिक से अधिक कानून व्यवस्था से संबंधित अपराध माने जा सकते हैं जिनपर नियंत्रण करना स्वयं को सभ्य कहने वाले समाज के लिए चुनौती है। इसके अतिरिक्त उसे भी काला धन कहा जाता है जो टैक्स बचाने के लिए टैक्स विभाग से छुपाया जाता है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि छोटे व्यवसायी जो अपनी आय से अपनी परिवार की जरूरतें भी ठीक से पूरी नहीं कर पाते उन्हें आप टैक्स चोर कैसे कह सकते हैं। क्या वर्तमान में जब महंगाई बहुत तेजी से बढ़ रही है आयकर की वर्तमान सीमा कितनी तर्क संगत है। क्या यह बात हैरान करने वाली नहीं कि जब सारी दुनिया में कीमतें स्थिर हैं तो भारत में महंगाई लगातार लगभग 10 फीसदी प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही हैं। स्पष्ट है कि इसकी वजह हमारी खराब नीतियां और बेकाबू प्रबंधन ही हैं। देश का साधारण आदमी स्वयं को कालेधन को बढ़ाने और ठिकाने लगाने वाली काली नीतियों से आहत है।
कालेधन के लगातार बढ़ने का एक महत्वपूर्ण कारण चुनाव है। यहां तक कि ‘ईमानदार पार्टी के मुखिया’ द्वारा अपने चुनाव में दर्शाये गये खर्च और वास्तविक खर्च के अंतर को स्वयं चुनाव आयोग भी हजम नहीं कर पा रहा। चुनाव खर्च को पारदर्शी बनाने तथा उसे नियंत्रित किये बिना न तो राजनीति को स्वच्छ बनाया जा सकता है और न ही अर्थव्यवस्था को कालेधन के अभिशाप से मुक्त किया जा सकता है। इन दिनों देश में बदलाव की बहुत अटकले लगाई जा रही हैं लेकिन कोई भी बदलाव केवल चेहरे बदलने मात्र से सार्थक नहीं माना जा सकता। जरूरत है बदलाव की यह बयार राजनैतिक व्यवस्था के साथ-साथ अर्थ व्यवस्था तक भी पहुंचे वरना जनता को एक बार फिर निराशा ही हाथ लगेगी।
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