राज्यपाल----टकराव का औचित्य-- डा. विनोद बब्बर

राजनीति में नैतिकता की बातें करना बहुत आसान है परंतु जब बात स्वयं पर आए तो अपने ही  कहे शब्दों का पालन करना लगभग असंभव हाता है क्योंकि राजनीति विशुद्ध स्वार्थ का पर्याय बन चुकी रही है। नैतिकता को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाले राजनीतिज्ञों को आखिर कहीं तो अपनी कथनी और करनी को एक बनाने के लिए सोचना चाहिए। नई सरकार बनने के बाद जिस तरह से मोदी सरकार कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को बदलने की तैयारी में है और कांग्रेस उन्हें बनाए रखने पर आमादा है वह नैतिकता की उसी मनमानी व्याख्या का ताजा उदाहरण है। आज राज्यपालों को हटाने का विरोध कर रही कांग्रेस ने 2004 में सत्ता में आने पर पिछली एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाते समय जो तर्क प्रस्तुत किये थे वही तर्क आज स्वयं उसके गले नहीं उतर रहे और न ही भाजपा को याद करना चाहती है कि उसने उस समय राज्यपालों को हटाने का विरोध करते हुए क्या कहा था।
यह संवैधानिक सत्य है कि
राज्यपाल राज्य में केन्द्र का प्रतिनिधि यानि केन्द्र और राज्य के बीच कड़ी होता है। राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है और उन्हें हटाने का भी अधिकार सिर्फ उसी को है। जहाँ तक भारत के महामहिम  राष्ट्रपति जी की शक्तियों का प्रश्न है, हमारे संविधान के अनुसार वे सभी शक्तियां अप्रत्यक्ष रूप से केन्द्रीय मंत्रिमंडल को ही प्राप्त है। आपातकाल के दौरान किये गये संविधान संशोधन में यह प्रावधान किया गया था, ‘राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह मानने को बाध्य है।’ चूंकि राष्ट्रपति का पद राजनीति से ऊपर है पर मंत्रिमंडल में राजनैतिक लोग ही होते है। ये लोग प्रत्यक्ष रूप से राजनीति से जुड़े होने के कारण अपने और अपनो के हितों की रक्षा जरूरी समझते हैं अतः सरकार बदलने पर पिछली सरकार द्वारा ‘अपनो’ को उपकृत करने के लिए’ की गई राजनैतिक नियुक्तियों को बदलते हुए ‘अपनो’ की नियुक्ति हर पक्ष द्वारा इतनी बार हो चुकी है कि इसे आज मनमाना और पूर्वाग्रह से ग्रसित कहने की बजाय परम्परा के रूप में स्वीकार करना चाहिए।
दुनिया के अधिकांश देशों में सरकार बदलते ही सभी राजनैतिक नियुक्तियों के अंतर्गत पद पर आसीन लोग पद त्याग देते है। भारत में भी सोलिसिटी जनरल, सरकार के सलाहकार आदि भी हमेशा से ऐसा करते रहे हैं। इस बार भी स्वयं सोनिया गांधी, सैम पित्रौदा सहित अनेक लोगों ने सरकारी समिति की सदस्यता  छोड़ी। लेकिन राजनैतिक मुद्दाा बनाने के लिए कांग्रेस द्वारा राज्सपाल के मुद्दे पर टकराव का कोई औचित्य नहीं है। वैसे नई सरकार के इशारे पर कुछ राज्यपालों ने इस्तीफा देकर उच्च परम्परा का पालन किया है। लेकिन कुछ राज्यपाल हटने को तैयार नहीं। उनका मत है कि उनकी नियुक्ति संवैधानिक प्रावधानों के तहत पांच वर्ष के लिए हुई है लेकिन वे भूलते हैं कि संविधान के प्रावधानों के अनुसार राष्ट्रपति जब तक चाहें राज्यपाल अपने पद पर बने रह सकते हैं, लेकिन कैबिनेट की सलाह से  राज्यपाल को हटाया भी जा सकता है। पर हटाने के लिए ठोस वजह होनी जरूरी है।
जहाँ तक राज्यपाल की नियुक्ति  का प्रश्न है, इसमें योग्यता से निष्ठा का अधिक महत्व है। अब यह निष्ठा सत्तारूढ़ दल के प्रति अधिक है या देश के प्रति आज यह कोई रहस्य नहीं रह गया है।  ऐसे लोगों को भी राज्यपाल बनाया जाता रहा है जो चुनाव हार गये हैं लेकिन हाईकमान की नजरों में उसका महत्व है। कुछ खास नौकरशाहों को यह पद देने में अपने लाभ-हानि देखे जाते हैं तो अनेक बार ‘उपकृत’ करने का उपक्रम होता है। अनेक बार तो  उन्हें कानूनी सरंक्षण प्रदान के लिए इस पद से नवाजा जाता है जैसाकि एक महिला राज्यपाल के मामले में  हुआ। मुख्यमंत्री की कुर्सी छिनते ही आचार संहिता लागू होने के मात्र कुछ घंटे पूर्व उन्हें महामहिम का पद देना काफी विवादास्पद रहा।
  देश की आजादी के बाद अधिंकांश समय सत्ता में रही कांग्रेस ने सदा अपने लोगों को पद व सुविधाएं दी तो उसे सत्ता हाथ से निकलने पर उन नैतिक मूल्यों के सम्मान की रक्षा अवश्य करनी चाहिए जिनकी वह बार-बार दुहाई देती रही है। यदि वह ऐसा नहीं करती तो देश की जनता में संदेश जाएगा कि वह जनमत के संदेश को समझने और सत्ता का मोह त्यागने में असमर्थ है। आज जब कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे खराब प्रदर्शन के साथ संसद में मुख्य विपक्षी दल भी बनने की स्थिति में नहीं है तो क्या उसे अपनी गलतियों और कमजोरियों को पहचानने और उनसे कुछ सबक सीखने की कोशिश करनी चाहिए? यदि वह स्वयं अपने द्वारा स्थापित परम्पराओं पर चलने का साहस दिखाती तो हार भी उसके लिए जीत बन सकती थी। सर्वत्र उसके लोकतंत्र प्रेम और परम्पराओं के सम्मान के लिए प्रशंसा होती। आज कांग्रेस के अनेक नेता मोदी के प्रशंसक बने सामने आ रहे है तो आखिर अपने नेतृत्व को यह समझाने की जरूरत किसी ने क्यों नहीं महसूस की कि लोकतंत्र का अर्थ है अपने सहित सबके अधिकारों के लिए संघर्ष करना है, न कि निजी सुविधा जुटाने की लड़ाई लड़ना। पात्र न होते हुए भी संसद में मान्यता प्राप्त विपक्ष का नेता जिसे केबिनेट मंत्री का दर्जा मिलता है, के लिए दबाव बनाने वाली ऐतिहासिक कांग्रेस इतिहास के इस मोड़पर जबरदस्त चूक करना दुःखद है।
अनेक बार विपक्षी सरकारों पर अंकुश लगाने के लिए इस पद के दुरूपयोग की चर्चा रही है। प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने के बाद भी विरोधी दल की सरकार को काम करने से रोकने अथवा उसकी कमियां ढ़ूंढ़ने और उसे बर्खास्त तक करने के कारण  इस सजावटी पद को ही समाप्त करने की मांग भी उठी। एक बार पंजाब पुलिस प्रमुख रहे  वरिष्ठ पुलिस अधिकारी केपीएस गिल ने एक साक्षात्कार में इस पद को ‘बूढ़ी वेश्या’ कहा था। श्री गिल के अनुसार, ‘1993 में उस समय के मंत्री स्व.राजेश पायलट ने मुझें मणिपुर का राज्यपाल बनने के लिए रिक्वेस्ट की थी, पर मैंने मना कर दिया। राज्यपाल बूढ़ी वेश्या की तरह होते हैं, जो काम का इंतजार करते रहते हैं, पर उनके पास कोई काम नहीं होता।’ बेशक गिल साहिब के कथन को अतिश्योक्ति मान लिया जाए पर इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता।
 हर विवाद अपने गर्भ में एक मौका छिपाये होता है। वर्तमान विवाद भी अपने साथ एक चुनौती और अवसर लेकर आया है जब मोदी सरकार हर बार सत्ता परिवर्तन पर मनमाने ढ़ंग से राज्यपालों को हटाने की बजाय आम सहमति बनानी का कार्य कर सकती है। तत्काल देश के बुद्धिजीवियों और सभी दलों की बैठक बुलाकर कोई रास्ता निकाला जा सकता है अथवा संविधान में ही संशोधन कर यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि इस राजनैतिक नियुक्ति का कार्यकाल ‘केन्द्र सरकार की सद्इच्छा तक’ कर दिया जाए। क्या ही अच्छा हो यदि इस पद को हमेशा के लिए विवादों से मुक्त करने और श्रेष्ठ परम्परा  के निर्माण के लिए यदि राज्यपाल की योग्यता, उसकी नियुक्ति से हटाने तक की प्रक्रिया को पारदर्शी और निष्पक्ष बनाया जाए। राजभवनों को बूढ़े राजनतिज्ञों की शरणस्थली बनाने की बजाय  बेदाग समाजसेवियों या सेवानिवृत न्यायधीशों को इस पद पर बिठाने की स्वस्थ परम्परा डाली जाए। उनका सीधे राजनीति से अथवा नौकरशाही से बाहर आते ही इस पद पर नियुक्ति और पद त्यागते ही फिर से सक्रिय राजनीति में प्रवेश रोका जाना चाहिए। यदि प्रधानमंत्री,, गृहमंत्री, विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री की एक समिति उस राज्य के राज्यपाल के संबंध में निर्णय ले तो इस प्रतिष्ठित पद की गरिमा की रक्षा संभव है वरना विवाद होते रहेगे।
लोकतंत्र की यह शक्ति होती है कि वह हर दवाब से निकलने का रास्ता स्वयं बनाता है। भारत का लोकतं. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है अतः उसकी जिम्मेवारी भी बड़ी है कि वह तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक स्वस्थ परम्परा प्रस्तुत करें। सौभाग्य से देश के देश के सर्वोच्च पद पर विराजमान महामहित राष्ट्रपति जी एक सुलझे हुए राजनेता हैं तो नरेन्द्र मोदी जमीन से उठे व्यक्ति है। लोकतांत्रिक परम्पराओं को और बेहतर बनाना हम सब की जिम्मेवारी है लेकिन विपक्ष को भी टकराव का रास्ता छोड़ते हुए रचनात्मक सहयोग करना चाहिए।

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