अनियोजित विकास के विनाशकारी प्रभाव-- डा. विनोद बब्बर
विकास एक सतत प्रक्रिया है लेकिन उसके लिए अपनाएं जाने वाले संाधनों से भी पहने नीतियों और नीयत की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यह वैश्विक अनुभव है कि अनियोजित विकास बहुत महंगा पड़ता है क्योंकि वह अकसर विनाश की ओर ले जाता है तो अपमान और आत्मग्लानि का कारण भी बनता है। जैसाकि मेरे साथ हुआ। यूरोप यात्रा की समाप्ति पर एक विदेशी मित्र ने अपने यहां रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। बातचीत के दौरान उसने मुझसे दिल्ली और लंदन के अंतर के बारे में पूछा तो मैंने मुस्कारते हुए कहा, ‘सबसे बड़ा अंतर हैे ईश्वर प्रदत्त जलवायु तो दूसरा सारी दुनिया को लूटकर प्राप्त की गई आपकी अमीरी है। मेरा उत्तर सुनकर मेरा मित्र मुस्कुराया और बोला, ‘तुम्हारी आधी बात ठीक है। यह सही है कि हमें ईश्वर ने बेहतर जलवायु दी है और यह भी सच है कि हमने दुनिया को लूटा है। लेकिन अमीर हम नहीं तुम हो। देखो, लंदन में रहते मुझे बरसों बीत गये लेकिन मैंने आज तक अपने घर के सामने की सड़क बनते नहीं देखा। एक बार बन गई, आज भी वहीं है और बढ़िया है। मैं अनेक बार दिल्ली गया हूँ। जब, जहाँ देखो, सड़क, नालियाँ बनती दिखाई देती है। बताओ हमारे पास धन ज्यादा है या तुम्हारे पास?’ मैं निरुत्तर था। कैसे कहता कि हमारी सड़कंे इसलिए बार-बार बनती और टूटती हैं क्योंकि हमारे नेताओं-अफसरों की रोजी-रोटी उसी से चलती है। हमारे नेताओं के शब्दकोश में विकास का अर्थ जनता का नहीं, केवल अपना और अपनों का विकास है।
यह प्रसंग इसलिए स्मरण हुआ कि देश की राजधानी दिल्ली की अनाधिकृत कालोनियों में विकास के नाम पर नित्य बनने वाली गलियों, सड़कों के कारण वहाँ रहने वाले लाखों लोगों का जीवन नरकीय बन चुका है। इन क्षेत्रों में सड़क बनते ही कभी बिजली तो कभी पानी या सीवर के लिए खुदाई का काम आरंभ हो जाता है। टेलिफोन केबल के लिए भी अनेक बार खुदाई होती रहती है। आश्चर्य कि हर बार लापरवाही से सड़क बनाने का अंजाम होता है सड़क का लेबल हर बार 8 से 12 इंच ऊँचा हो जाना। परिणाम होता है कुछ ही वर्षो में शानदार पक्के मकानों का सड़क लेबल से नीचा हो जाना। यह जगजाहिर है कि अनाधिकृत कालोनियों में रहने वाले लोग आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं। बार-बार मकान का लेबल उठाना उनकी क्षमता से बाहर होता है अतः उनका जीवन नरकीय हो जाता है। विकास के नाम पर यह विनाशकारी आक्रमण और वज्रपात विदेशों से डिग्रीधारी हमारे सुयोग्य नीति-निर्माताओं को फिर से सोचने के लिए विवश नहीं करता तो स्पष्ट है कि हमारी विकास के प्रति सोच न केवल विनाशकारी है, बल्कि राष्ट्रीय संसाधनों का दुरूपयोग है।
दिल्ली सहित अधिकांश नगरों, महानगरों में पेयजल की उपलब्धता और गंदेपानी का निपटान बहुत बड़ी समस्या है। एक ओर तो हम भूमिगत सीवर के लायक संस्कार नहीं सीख पा रहे हैं क्योंकि अपने घर का कचरा, पॉलीथिन, रसायन आदि सीधे और नष्ट न होने वाले कचरे आदि सब ढके नालों अथवा सीवर में डालते है तो दूसरी ओर सीवर और नालों की सफाई में भ्रष्टाचार समस्याओं के समाधान की बजाय उसे और उलझाते है। यह अनिंत्रित लोकतंत्र का एक दुष्परिणाम है कि हमने देश का कर्णधार बनने जा रहे लोगों की न्यूनतम योग्यता तय करने के बारे में कभी सोचा तक नही। उसपर भी तुर्रा यह कि हमने अपने अयोग्य नेताओं को ऐसे तकनीकी मामलों में भी नीति-निर्माता बना दिया है। उनके लिए विकास का अर्थ हर तरफ कंक्रीट से ढकना है। ऐसे में बरसात का पानी भूजल स्तर को बढ़ाने की बजाय समस्या बन जाता है। एक तरफ भूजल का स्तर खतरनाक तेजी से नीचे गिर रहा है और सारा साल पेयजल की किल्लत रहती पर तो दूसरी ओर थोड़ी सी बरसात होते ही पानी भर जाना। इस अनियोजित विकास की कीमत सम्पूर्ण राष्ट्र को चुकानी पड़ती है जहां हमारे तथाकथित विकास माडल के कारण उत्पन्न बीमारिया भी तेजी से बढ़ रही है।
इस बात से शायद ही कोई असहमत हो कि बढ़ती जनसंख्या अनेक समस्याओं को आमंत्रित कर रही है। लगभग हर वर्ष कहा जाता है कि इस साल ‘रिकार्डतोड़ गर्मी रही’। हमे पेड़ पौधो को बचाने की चिंता नहीं। जो पेड़ हमारे लालच से बचे भी है तो हमारे विकास माडल ने हर फुटपाथ को पूरी तरह सीमेंट से ढक दिया गया है तो वहां लगे पेड़ पौधों को पानी कहां से मिलेगा इसकी चिंता किसी को नहीं। पाताल में समाते भूजल तक पेड़ की जड़े पहुंच नहीं पाती अतः जरा सी तेज हवा या आंधी उसका काल बन जाती है। ऐसे में पर्यावरण का क्या हो सकता है समझना मुश्किल नहीं।
हमारे देश में सदा से सड़कों के किनारे पेड़ लगाने का प्रचलन रहा है लेकिन आज की टोल वसूलने वाली सड़कों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। कहने को हम कागजों में नदी, तालाब के संरक्षण की बात करते हैं तो पेड़ लगाकर धरती को बचाने के नारे भी खूब उछालते हैं पर सच्चाई कुछ ओर ही है। जो पेड़ लगते भी है उनकी देखभाल की कोई व्यवस्था नहीं है। जब तक वृक्षारोपण के बाद की जिम्मेवारी तय नहीं होगी पर्यावरण संरक्षण का कोई अर्थ नहीं होगा। जबं स्वच्छ वायु, स्वच्छ पानी की कल्पना अनियोजित विकास की अवधारणा की भेंट चढ़ रही हो तो शहरीकरण की चपेट में आने से प्रकृति और नैसर्गिकता को कैसे रोका जाए इस प्रश्न पर हमारे नीति-निर्धारणों के मौन को आखिर अपराध नहीं तो और क्या माना जाए?
दुनिया में सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। भारत में भी नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फलता-फूलता रहा है। हमने नदियों को देवता माना पर आज क्या दशा है हमारी नदियों की? राजधानी दिल्ली में गंदे नाले में बदल चुकी यमुना नदी को नदी कहना नदी का अपमान है। निर्मल यमुना के नाम पर हजारों करोड़ रूपये बहाने के बाद भी स्थिति ‘जस की तस’ इसपर किसी को भी अपराधबोध न होना विकास के गलत माडल का दुष्परिणाम है।
यदि ईमानदारी से विश्लेषण करे तो हमे समझ में आता है कि विकास के इस मॉडल पर बेशक हम आत्ममुग्ध हो क्योंकि इसने हमें हाईवे, मॉल, मल्टीप्लेक्स एवं संचार व परिवहन के द्रुतगामी साधन दिये परंतु इसकी कीमत पर हमने अपना पर्यावरण बिगाड़ लिया, सांस्कृतिक मूल्य खो दिए। समाज को बाजार बनाने वाली इस व्यवस्था ने चकाचौध तो अवश्य दी है पर समाज में तेजी से बढ़ती असमानता की कीमत पर। इसे विकास कहे या मात्र मुखौटा जहां कल के साधारण परिवार आज औद्योगिक घराने बने बेशुमार दौलत के स्वामी है पर अम आदमी तो साफ हवा पानी से भी वंचित है।
देश में सरकार बदलना ही काफी नहीं, व्यवस्था को भी राष्ट्र के संसाधनों के प्रति संवेदनशील होना भी चाहिए तभी विकास का वास्तविक लाभ देश के आम आदमी तक पहुंच सकेगा। जिस समाज में गरीबों की बहुत बड़ी संख्या मौजूद हो वहां कोई भी योजना और उसके क्रियान्वयन के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण का होना आवश्यक है। नये नगर बसाने की योजना बना रही सरकार जब योजना आयोग को ही समाप्त करने की तैयारी कर रही है उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि विकास के तदर्थ माडलों को बिना जांचे-परखे लागू किये जाने के दुष्परिणामों की जिम्मेवारी आखिर किस पर होगी? क्या यह समय की मांग नहीं है कि जिस तरह एक डाक्टर को देश का स्वास्थ्य मंत्री नियुक्त किया गया है, अन्य मंत्रालयों का दायित्व भी उस क्षेत्र के किसी विशेषज्ञ को सौंपा जाए। योग्यता में वरिष्ठता आड़े नहीं आनी चाहिए। नई सरकार से देश को बहुत सी आशाएं हैं अतः व्यवस्था बदलने की चुनौती स्वीकारे बिना बहुमूल्य संसाधन बर्बाद होते रहेंगे और हम विकास के झूठे दावों के बीच कसमसाते रहेंगे। आखिर विकास का अर्थ केवल एक वर्ग का विकास कब तक स्वीकार किया जाएगा।
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