लो, फिर आ गई दिवाली!--डा. विनोद बब्बर

लो, फिर आ गई दिवाली! फिर से सजेंगे बाजार, जमकर होगी खरीददारी। दीये वाले से लेकर मिठाई, कपड़े, बर्तन, जेवर वाले तक हर व्यापारी आस लगाये बैठा है, मुनाफे की, लक्ष्मी के आगमन की। पर हमारी चिंता किसे है जो बच्चों और श्रीमतीजी की मांगों से त्रस्त है क्योंकि बच्चों को सर्दी के कपड़ों से ज्यादा पटाखों की पड़ी है, तो श्रीमतीजी भी इस बार घर की रंगाई-पुताई पर अड़ी हैं, उन्हें पुराने ब्लैक एण्ड व्हाइट टीवी को भी रंगीन में बदलने की चिंता है, तो अपने पिता से दहेज में मिले घिस चुके झुमकों की मरम्मत भी इस बार ज़रूर करवानी है। बहन और बेटी भी किसी खास गिफ्ट की उम्मीद लगाये बैठी हैं। आखिर, बरस भर का त्यौहार है। मोहल्ले का चौकीदार, जमादार, डाकिया और न जाने कौन-कौन मेरी तलाश में है। मगर मैं तो हमेशा की तरह इस बार भी देवी लक्ष्मी की राह देख रहा हूं। बस, एक बार किसी तरह से देवी मेरे घर आ जाए, फिर देखना किस तरह से सभी को खुश करता हूं।
इस बार ही क्यों, जब से होश संभाला है, हर बार मैंने पूरी श्रद्धा से लक्ष्मी को अपनी कुटिया में आमंत्रित किया। उनके स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछाये, खुद आधे पेट रूखी-सूखी खाकर भी शुद्ध घी का दीया जलाया ताकि किसी तरह लक्ष्मी इस देहरी में भी अपना पंाव रखे। मेरा इंतजार, इंतजार ही रह गया और लक्ष्मी जी तो जा विराजीं किसी नेता, बाहुबली,  अफसर के घर। उनके चेहरे और लाल हो गए पर हमारा तो खून भी सूख गया।, हमारा सारा बजट बिगड़ गया। सालभर की बचत तो ठिकाने लगी ही, लाला का उधार भी बाकी रह गया।
आखिर क्यों नहीं आती लक्ष्मी मेरे घर? यह सवाल बार-बार मेरे मन को आक्रोश से भर देता। पर याद आती मां की सीख, ‘बेटा, संतोष सबसे बड़ा धन है,उसे तो मत गंवाओ।’
मां यह भी बताती थी कि मेरी छठी के दिन मेरा नाम चन्द्र प्रकाश रखा गया। पर घर का अंधेरा कहां दूर हुआ? स्थिति और बिगड़ कर फांकांे तक पहुंच गई, तो सयानों की राय ली गई। उन्होंने मंथन किया कि लक्ष्मी चन्द्र प्रकाश के रहते यहां कैसे आ सकती है, वह तो चन्द्र की अनुपस्थिति वाली रात को ही कृपा करती है, उसे प्रकाश से क्या लेना-देना?
यदि भलाई चाहो तो फौरन इसका नाम बदल डालो, वरना लक्ष्मी हमेशा के लिए रूठ सकती हैं। मरता क्या न करता? घर के बडे-बुजुर्गोंं की बात ठीक लगी। पर उन्हें प्रकाश का कोई उपयुक्त विलोम नहीं सूझा। कोई राह न निकलते देख तय किया गया कि उचित नामकरण कर इसे ‘अनाम’ ही रखा जाए। बरसांे बीत गए, पर लक्ष्मी जी को खुश कर सकंे, ऐसा नाम नहीं सूझा और न ही लक्ष्मी को इस ‘अनाम’ पर दया आई। उसने भी दूरी बनाये रखी। हां, सभी अपनी सुविधानुसार ‘अनाम’ को नाम देने लगे। मगर सैंकड़ों नामों के होते हुए भी यह ’अनाम’ नाचीज़ उपहास का पात्र बनता रहा। छः बरस का होते- होते अपने मोहल्ले के मास्टर जी से इस ‘अनाम’ का नाम स्कूल में लिखवाने की प्रार्थना की गई। सारी स्थिति का अवलोकन करते हुए श्रद्धेय मास्टर जी ने स्कूल के रजिस्टर में ’अनाम’ को ’विनोद’ लिखा। वास्तव में, यह नया नाम अपने आप में सार्थक था क्योंकि सैंकड़ों नामों से लोग मुझसे विनोद किया करते थे। विडम्बना यह है कि लक्ष्मी जी ने फिर भी कृपा नहीं की, हाँ जवान होते-होते एक लक्ष्मी जरूर मेरी जिंदगी में आ गई। मगर यह गृहलक्ष्मी जल्द-ही गृहस्वामिनी बन बैठी और मैं ... मैं... इस बार ’बेनाम’ की के साथ- साथ बेघर भी...। तब से आज तक, दिन-रात मेहनत और हर कोशिश के बाद भी लक्ष्मी तो क्या, गृहलक्ष्मी को भी नहीं रिझा सका।
‘आखिर, लक्ष्मीजी हमसे इतना नाराज क्यों हैं? समुद्रमंथन से देवी लक्ष्मी प्रकट हुई थीं, तो बरसों के मंथन के बाद लक्ष्मी की नाराजगी का कारण भी आज अचानक प्रकट हो गया। बात समझ में आयी, लक्ष्मीजी का वाहन उल्लू है जो बिल्कुल ब्ल्यू लाइन की तरह चलता है। सवारी को कहां से चढ़ाना है, कहां उतारना है, सड़क पर चलना है या सवारियों पर, पूरी तरह उसी की इच्छा पर निर्भर है क्योंकि उसके लिए कोई नियम तो है नहीं। श्रीमतीजी ने भी शंका का समाधान करते हुए ढाढ़स बंधाया, ‘जिस नारी का वाहन उल्लू हो, उससे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए। आखिर, मुझे ही देख लो,  मैं भी तो तुम्हारे साथ रहकर बेबस हूँ।’ सचमुच बहुत दया आई, देवी जी को मुझ उल्लू के साथ रहना पड़ रहा है। पर बुद्धि ने बार- बार पूछना चाहा ’देवी जी कृपया इतना तो बता दें कि विवश सवार होता है या वाहन? पर फिर मां की सीख याद आई, ‘बेटा सबको बुरा कहोगे, तो सोच लो फिर तुम्हें अच्छा कौन कहेगा?’ मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी क्योंकि लक्ष्मी की राह में फूल बिछाते न बिछाते, पर गृहलक्ष्मी के मुुंह से कब कांटे झड़ने लगंे, कहना मुश्किल था। आज फिर दिवाली है, चारों ओर शोर ही शोर है। अंधेरी रात में रोशनियां आसमान को छूने के लिए मचल रही हैं। लपक रही हैं अंधेरे को निगलने के लिए, रंग-बिरंगी आतिशबाजी अंगूठा दिखा रही है, दूर-दूर से चमचमाती चाइनीज़ लड़ियां सस्तेपन का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए जैसे कह रही हों ‘हम आज हैं, कल रहे न रहें, देखो हमारे रहते कहीं अंधेरा बचने न पाये।’ पर मेरे घर पर तो आज भी वही पंचमुखी माटी का दीया ही टिमटिमा रहा है, बार-बार ऐसा लगता है कि अब बुझा कि तब बुझा। उसकी बाती छल-कपट के मजबूत रेशे की नहीं है, उसमें जल रहा घी  मासूम बच्चों के मुंह से छीने हुए निवाले का है। इसीलिए, इसमें रिश्वत, बेईमानी, छलकपट वाले घी जैसी चमक नहीं है। इधर मेरे मन में भी निराशा के पटाखे फूट रहे हैं, तो उधर श्रीमतीजी की सुलगती आंखों में अभावों की फुलझड़ियां साफ दिखाई पड़ रही हैं। इतना सब होते हुए भी हमारी दिवाली में दिवाली जैसा कुछ नहीं है।
असत्य पर सत्य की विजय, अंधकार पर प्रकाश की विजय के नारे लगाता जीवन दीये की बाती की तरह जला जा रहा है। आज भी हमारे हिस्से में वही शोर और धुआँ आया है। सवेरा होने को है, पर धनकुबेर अब भी हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। शोर और धुएँ से बेहाल जब मैं बाहर झांक कर देखता हूं, तो बाहर लक्ष्मी- पुत्रांे की खुशियों के अवशेषों से सड़क ढकी पड़ी है। चारांे ओर बिखरे पटाखों के टुकड़े, कीमती गिफ्ट पैक, रंग-बिरंगे पैकिंग पेपर, डिब्बे, मिनरल वाटर की खाली बोतलें जैसे चीख-चीख कर कह रही हों, ’कूड़ा बनना ही हमारी-तुम्हारी दिवाली है।’ तभी कंधे पर बोरे टांगे कूड़ा बीनने वाले दो बच्चे रईसों की दिवाली की जूठन को अपने-अपने बोरे में भरने के लिए टूट पड़े।
वाह! देवी लक्ष्मी, तू भी हम से खूब विनोद करती है! आखिर, हमारे पास तेरे स्वागत के लिए ये सब आमोद-प्रमोद है ही कहां? ---डा. विनोद बब्बर 09868211911

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