क्या अब दिल्ली भी चलेगी देश के साथ? -- डा. विनोद बब्बर

दिल्ली एक बार फिर अपने भाग्य विधाताओं के द्वार पर पहुंच रही है। लोकतंत्र में मतदाता मोहर लगाने अथवा मशीन का बटन दबाने तक ही सही लेकिन निर्णायक होता है। यह भी सत्य है कि अगले पांच वर्षें तक उसकी सुनी जाए या न सुनी जाए लेकिन तकनीकी रूप से उसे भाग्य विधाता का दर्जा दिया जाता है। दिल्ली भारत का दिल है तो उसे मिनी भारत भी कहा जाता है । परंतु पिछले विधानसभा चुनाव में उसने शेष भारत से बिल्कुल अलग ढंग से अपना फैसला देकर  सारेे देश के मतदाताओं के दिलों में नई हलचल उत्पन्न की तो देशभर के पार्टियों के मन में सिहरन तक दौड़ा दी।
एक बिल्कुल नई कार्यसंस्कृति का आगाज माने जाने वाले इस परिवर्तन ने बहुत सी आशाएं जरूर जगाई लेकिन परिवर्तन के नायक बने व्यक्ति ने जिस तरह मर्यादाओं को ताक पर रखा उससे सभी को निराशा हुई। लेकिन उम्मीदें बरकरार रही। हर छोटी-बड़ी बात पर जनता से राय लेने का दिखावा करने वाला वह कथित नायक अपने व्यवहार में जिस तरह की मनमानी दिखता रहा उससे उसके अपने निष्ठावान कार्यकर्ता तक स्तब्ध थे।  यह इस देश का दुर्भाग्य था कि राजनैतिक भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए निकला यह रथ नए प्रकार के भ्रष्ट आचरण का शिकार बनकर फुस हो गया। इतिहास ने जो मौका उन्हें दिया था उसे उन्होंने ‘ऐतिहासिक भूलों’ का बंधक बना दिया। जनलोकपाल विधेयक बनाने के नाम पर संविधान तक को ताक पर रखने से करोड़ों लोगों की आशाएं जगाने वाले इस अभियान की भ्रूणहत्या का ‘श्रेय’ किसी बाहरी शक्ति की बजाय उसके नायक को दिया जाना उचित ही है। 
अपनी अयोग्यता से अधिक अपने अस्थिर स्वभाव के कारण पद छोड़कर ‘शहीद ’ बनने की कोशिश   उस समय असफल हो गई जब उसने भ्रष्टाचार से जंग को असली भ्रष्टाचारियों की बजाय एक पार्टी विशेष के विरूद्ध मोड़ दिया। दिल्ली से बनारस पहुंचा यह नायक अपने पास मात्र 500 रु. होने का दावा करता रहा लेकिन मुंह की खाकर लौटा तो कई हजार रुपए भाड़े वाले विमान पर। जाहिर है इस दोगलेपन पर समर्थकों को निराशा होनी ही थी। जब किसी के समर्थकों का ही दिल टूट जाए तो उस दल को कोई नहीं बचा सकता। बेशक आप ने दिल्ली में विधानसभा में 29 फीसदी तो लोकसभा में 33 फीसदी वोट पा्रप्त किए तथा कांग्रेस  विधानसभा में 24.5 फीसदी से लोकसभा में 15 फीसदी पर पहुंच गई। लोकसभा चुनाव में पास न होने पर दुःखी होने की बजाय आप वाले स्वयं को ‘फेल होने वालों में सबसे अधिक अंक’ लेने वाला घोषित करते नजर आए तो इसे विड़ंबना ही कहा जाएगा।
लगातार 15 वर्षों तक दिल्ली पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस  लोकसभा चुनाव में उतरी ही  पराजित मानसिकता से साथ थी इसलिए उसका तीसरे स्थान पर खिसकना आश्चर्य से अधिकं खेद का विषय है। केन्द्र के बाद अनेक राज्यों में हाशिये पर जा रही कांग्रेस आज भी गहरी तन्द्रा में है। अतः फिर से केजरीवाल को समर्थन देने की बजाय चुपचाप तमाशा देखती रही। यह सर्वविदित है कि लगभग सभी विधायक इतने अल्पकाल के बाद फिर से चुनाव में नहीं जाना चाहते थे।  बीच-बीच में ‘इसकी’ या ‘उसकी’ सरकार बनाने की चर्चा जरूर रही लेकिन कोई भी गंभीरता से सामने नहीं आया। अतः  ‘उचित अवसर’ की तलाश पूरी होते ही चुनाव का बिगुल बज गया।
अब जबकि कोई असमन्जस शेष नहीं रहा और विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है। ऐसे में प्रश्न यह है कि दिल्ली इस बार किस ओर जाएगी। देश में बह रही हवा जो अप्रत्याशित रूप से दिल्ली के पड़ोस तक पहुंच चुकी है क्या दिल्ली की जनता के दिल-दिमाग में भी दस्तक देगी? क्या दिल्ली परिवर्तन के भटके नायक को अपनी भूल सुधारने का एक मौकाा देगी? क्या कांग्रेस को प्राणदान मिलगा? क्या फिर से दिल्ली का फैसला बंटा हुआ होगा? क्या देश का दिल कहे जानी वाली दिल्ली देश की धड़कन बनी रहेगी? संभावनाएं अनेक हो सकती है। अंतिम निर्णय चूंकि दिल्ली के प्रबुद्ध मतदाता को करना है इसलिए उससे विवेकपूर्ण फैसले की आपेक्षा सारा देश करता है।
इन चुनावों की सबसे बड़ी विशेषता यह होगी कि दोनो प्रमुख दलों का परम्परागत नेतृत्व परिदृश्य में ही नहीं होगा। दशकों भाजपा का चेहरा रहे विजय कुमार मल्होत्रा और मदनलाल खुराना परिदृश्य में नदारद है तो जुझारू विजय गोयल को प्रदेश की राजनीति से लगभग बाहर कर दिया गया है। पिछला चुनाव जरूर डॉ. हर्षवर्धन के नेतृत्व में लड़ा गया था लेकिन सफलता से दो कदम की दूरी पर ठिठक जाने के कारण वे कुर्सी से दूर रह गए। आज वे केन्द्रीय मंत्रीमंडल के महत्वपूर्ण सदस्य है इसलिए उनका दिल्ली लौटना असंभव नहीं तो कठिन जरूर है। प्रो. जगदीश मुखी लगातार पांच चुनाव जीत चुके हैं लेकिन उनकी बढ़ती आयु उन्हें चुनावी दौड़ से दूर करेगा तो नए प्रदेशाध्यक्ष बने उपाध्याय का उतावलापन उनकी राह का कांटा बनेगा। ऐसे में संभव है कि महाराष्ट्र, हरियाणा की तरह आखिरी क्षण में कोई नया चेहरा सामने आऐ।
लगातार 15 वर्षों तक कांग्रेस को सफल नेतृत्व देने वाली शीला दीक्षित बेशक बढ़ती उम्र के कारण दौड़ में न हो लेकिन वह आज भी  किसी अन्य नेता के मुकाबले अधिक सक्रिय और स्वीकार्य हो सकती है। वर्षों से ताक में बैठे कुछ अपने नेता उनके नीचे की जमीन खिसकाने के लिए जोर लगा रहे है। शीला रहित टीम की घोषणा भी हुई लेकिन बाद में उससे इंकार किया गया। सज्जन कुमार, जगदीश टाइटर को नेतृत्व सौंपकर कांग्रस अपयश नहीं लेना चाहेगी तो जयप्रकाश अग्रवाल पहले ही चुनाव हार कर खामोश है। लवली, हारुन, मुकेश काफी सक्रिय है ंलेकिन अजय माकन इन सब पर भारी पडेगे। सरकार किसी की भी बने लेकिन यह तय है कि कांग्रेस के लिए अवसर न्यूनतम है इसलिए जो भी कांग्रेस को प्रभावी विपक्ष की भूमिका दे सकेगा वहीं भविष्य का नेता होगा।
‘आप’के नेता को बालासाहिब ठाकरे से सबक सीखने की जरुरत है। यदि केजरीवाल स्वयं को मुख्यमंत्री बनने के लोभ से मुक्त रखने में सफल हो जाते तो उनकी पिछली सरकार भी चलती और उनकी विचारधारा भी चलती। आज जिस तरह से उनके घोर समर्थक भी उनसे पल्ला झाड़ चुके हैं उसका एकमात्र जिम्मेवार वह स्वयं हैं। आज भी उनसे किसी दूसरे को आप का नेता घोषित करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सत्ता का लालच उन्हें न केचल कुर्सी से दूर ले गया बल्कि यश-कीर्ति को भी चट कर गया। ऐसे में यह भ्रम शायद ही किसी को हो कि उन्हें और उनके दल को दिल्ली की जनता पिछली बार जैसा या उससे अधिक स्नेह, सहयोग, समर्थन देगी। 
तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि इस बार भाजपा के लिए दिल्ली का चुनाव ‘केक वाक’ होने जा रहा है? नहीं हर्गिज नहीं। यदि भाजपा को सफलता प्राप्त करनी है तो उसे सबसे पहले गुटबाजी से मुक्ति पानी होगी। टिकट वितरण में बहुत अधिक सावधानी बरतनी होगी।  साफ छवि के साथ-साथ पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता का ध्यान रखना होगा। दल-बदलुओं को टिकट देकर भाजपा अपने कैडर को खोना नहीं चाहेगी तो परिणाम सार्थक, सकारात्मक हो सकते है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यदि  अंतिम वोट पड़ जाने तक भाजपा से कोई बड़ी गलती नहीं होती है तो दिल्ली में भाजपा बहुमत सरकार बनाने में सफल हो सकती है। हां यह भी सत्य है कि कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में चल रही खिंचतान के बावजूद उसके प्रति भी उसके परपरागत वोटर का गुस्सा जरूर कुछ कम हुआ है। इसलिए आप की कीमत पर कांग्रेस के सुधार की संभावना से भी नकारा नहीं जा सकता।
शीला दीक्षित सहित कांग्रेस के अनेक नेता तो दूसरी ओर आप के सुप्रीमों अरविंद केजरीवाल मोदी के विजन और सक्रियता की प्रशंसा कर चुके हैं लेकिन चुनावी सभाओं में दोनों लम्बे समय तक राष्ट्रपति शासन के लिए भारतीय जनता पार्टी को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करेंगे। यह भी तय है कि उसपर विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप भी लगाया जाएगा। तो दूसरी ओर भाजपा अपने कैडर, के साथ-साथ ‘मन की बात’ के माध्यम से जनता के दिल को छू लेने वाले मुद्दे उठाने के लिए केवल और केवल नरेंद्र मोदी की क्षमता पर निर्भर रहेगी। केजरीवाल इन चुनावों को जगदीश मुखी बनाम केजरीवाल बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन उसके इस प्रयास को विफल करने के लिए संभव है इस बार मुखी को विधानसभा चुनाव में टिकट ही न दी जाए ताकि मुकाबले को सीधे-सीधे ‘मोदी बनाम केजरीवाल’ बनाकर दिल्ली को देश की राह पर चलने का रोडमैप दिया जा सके। फिलहाल इंतजार है चुनाव आयोग के अगले कदम का तो उसके बाद मतदाता के फैसले को जानने की उत्सुकता  तो रहेगी ही।  ' दिल्ली का असर सारे देश पर पड़ता है' यह  मिथक को गलत साबित हुआ देखना यह है कि  असर  होता है या नहीं 
क्या अब दिल्ली भी चलेगी देश के साथ? -- डा. विनोद बब्बर क्या अब दिल्ली भी चलेगी देश के साथ? -- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 03:06 Rating: 5

1 comment

  1. ... बिचारे मुखी जी, यह नहीं समझ पा रहे होंगे कि उनके ऊपर लगातार हमले क्यों हो रहे हैं? पहले केजरीवाल, फिर आपने भी उनको टिकट नहीं देने की भविष्यवाणी कर दी है. भाजपा की अंतर्कलह तो पहले ही से उनके सामने थी. बिचारे मुखी जी! भाजपा के अन्य बुजुर्गों के साथ क्या उनको भी .... !!!!!!

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