कलात्मकता ही संस्कृति की अभिव्यक्ति है
शिल्पगुरु गिर्राजप्रसाद से डा. अम्बरीश कुमार का साक्षात्कार
गिर्राज जी, आपने अपनी कला के माध्यम से अनेक शिखरों को छुआ है। आपको एक नहीं, दो-दो बार राष्ट्रपति जी द्वारा सम्मानित किया गया। फ्रांस, आस्टेªलिया, चकोसिलवाकिया सहित विश्व के अनेक देशों में अपनी कला का लोहा मनवाया है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वग. राजीव गांधी की समाधि स्थल पर रखा विशाल दिया आपकी अद्वितीय योग्यता का जीता-जागता प्रणाम है। हाल ही में आपने वर्ड क्राफ्ट कौंसिल का ‘गोल्डन प्राइज’ जीत कर देश का गौरव बढ़ाया है। क्या बचपन से ही आपकी रूचि इस क्षेत्र में थी?
अम्बरीश जी। आप जो जानते ही हैं, मेरा जन्म 1949 मेे अलवर के पास रामगढ़ में हुआ। मेरे पिता श्री अजुर्नलाल जी एक साधारण कुम्भकार थे लेकिन मेरे ताऊ श्री लल्लुराम जी असाधारण प्रतिभा के स्वामी थी। बेशक उस समय मिट्टी के घंड़े, मटके आदि का ही चलन ज्यादा था लेकिन उनकी अंगुलियांे का कमाल वहां भी दिखता था। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। आरंभ में मैं सबसे नजर बचाकर मिट्टी को आकार देने की कोशिश करता। पिताजी जब देखते तो डांटते। पढ़ाई में भी अच्छा था। चौथी कक्षा में स्कूल में एक रुपया लाने के लिए कहा गया। आपनी आर्थिक स्थिति के कारण पिताजी ने देने से इंकार कर दिया। जब स्कूल में बार-बार शर्मिदा किया जाने लगा तो मैंने स्कूल जाने से इंकार कर दिया। और पिता की मदद करने लगा। वैसे मुझे शुरु से ही संगीत, कला, साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही है। उस समय ज्यादातर भजन कार्यक्रम होते थे। मैंने अनेक भजन भी लिखे। यह सिलसिला आज तक जारी है।
परिवार में कौन-कौन है। दिल्ली कब और कैसे आना हुआ? अपने संघर्ष के बारे में हमारे पाठकों को संक्षेप में बताये।
हम दो भाई और एक बहन थे। छोटा भाई नहीं रहा। मैं मात्र 14 वर्ष की आयु में 1964 में दिल्ली आया। कोटला मुबारकपुर में किसी के पास 3 रु. रोज पर काम किया। ठेकेदार बहुत काम लेता था। हर रोज 50 मटके बनाने पड़ते थे। लेकिन मेरी हाथ में सफाई थी। माल हाथो-हाथ बिक जाता। इसलिए जब मैं परेशान होकर गांव चला गया तो वह गांव जा पहुंचा और पहले 4 रु. और फिर 5 रु.रोज देने लगा। उस समय 5 रुपएं बहुत बड़ी रकम थी। 1966 में मेरी शादी हुई। 1968 में मैं अपनी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गया। जब घर छोड़ा तो पिताजी ने 50रु. देते हुए कहा था- बेटा, हमारी बदनामी मत कराना। बेशक कम करना पर अच्छा ही करना। उनकी बात को गांठ बांध कर मात्र दो जोड़ी कपड़े लेकर दिल्ली आया। 8 रु. किराये आदि में खर्च हो गए लेकिन 40 रुपए पत्नी ने रूमाल में बांधकर कहीं रख दिए। उसे चूहे ले गए। मिट्टी तक के लिए भी पैसे नहीं थे। 20 रुपए महीने पर किराये का एक प्लाट लिया। दिन-रात कड़ी मेहनत की। मेरा बना माल एडवान्स बिक जाता। लेकिन मेरी कलात्मक अभिव्यक्ति जब-जब बाहर आना चाहती, लोग मजाक बनाते- यह लड़का समय बर्बाद करता है। कई बार मन उदास भी होता लेकिन मैंने कला को मरने नहीं दिया। इसी बीच एक व्यापारी को मेरे बारे में जानकारी मिली। उसने मुझे बहुत बेहतरीन सैम्पल दिखाये। मैंने फौरन हां कर दी। दो दिन बाद उसे अपना काम दिखाया तो वह मुंह मांगे दाम देने के लिए हो गया। 1971 तक कुछ पैसे कमा लिए तो पिताजी से बिंदापुर में नई बस रही प्रजापत कालोनी में प्लाट खरीदने की अनुमति मांगी लेकिन पहले छोटी बहन की शादी करने के आदेश से उस समय इरादा छूट गया। मगर मन में संकल्प जिंदा रहा जिसने 1973 में मात्र 23 रु. गज से 200 गज का प्लाट दिलवाया ही दिया। आज जो कुछ है आपके सामने है।
साधारण काम से कलात्मकता की तरफ बढ़ने की कोई खास प्रेरणा?
हाँ, एक बार विट्ठल भार्ठ पटेल भवन में प्रजापति समाज के कार्यक्रम में रक्षामंत्री जगजीवन राम ने कहा था, ‘हमारे दस्तकारों को अपनी तकनीक और सोच में बदलाव कर अपने उत्पादों को बेहतर बनाना चाहिए।’ उनकी बात मेरे मन को छू गई। मैंने अपने ढ़ंग से जीने का फैसला किया। 1980 में मेरे काम को देखकर मुझे पहली बार मड़ी हाउस की एक कला प्रदर्शनी में भाग लेने का अवसर मिला। लोगों ने मेरे काम को सराहा। नए संबंध बने। नई चुनौतियां भी मिली। लेकिन प्रभु की कृपा और बड़ों के आशीर्वाद से देश -विदेश की अनेक प्रदर्शनियों में भाग लेकर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने के अवसर मिले। 1978 में मुझे दिल्ली सरकार का स्टेट अवार्ड मिला। उसी साल मुझे और मेरी पत्नी को माननीय राष्ट्रपति श्री आर.वेकटरमन जी के हाथो नेशनल अवार्ड प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। 2006 में फिर राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी ने शिल्पगुरु का सम्मान प्रदान किया। सूरज कुंड में हर वर्ष लगने वाले क्राफ्ट मेले के प्रवेश टिकट पर चाक घुमाते हुए मेरा चित्र लगना मेरे पूर्वजों की कला का सबसे सम्मान था।
क्या आपके बच्चे आपके काम में आपके साथ है? नई पीढ़ी परंपरागत कामों से दूरी क्यों बना रही है?
मेरा बड़ा बेटा श्यामप्रसाद भी कलात्मक अभिरूचि वाला है। लेकिन उसका कार्यक्षेत्र फोटोग्राफी है। शूटस एण्ड शूटस अकादमी के निदेशक श्याम को अपने क्षेत्र में नेशनल अवार्ड हासिल है। लेकिन छोटा बेटा भुवनेश प्रसाद टेराकोटा का बहुत अच्छा कलाकार है। उसे भी न केवल स्टेट अवार्ड बल्कि राष्ट्रपति कलाम साहिब से नेशनल अवार्ड मिल चुका है। उसे भी देश-विदेश में अपनी कला के लिए जाना जाता है। वैसे आपकी बात सच है कि आज की नई पीढ़ी अपने परम्परागत काम को छोड़ने लगी हैं। दुःखद बात तो यह है कि परंपरागत काम करने वालों को उनका अपना समाज भी आपेक्षित सम्मान नहीं देता। यहां तक अपना काम करने वाले के घर रिश्ता करने में संकोच किया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हाँ, इस बात से भी इंकार नहीं कि मिट्टी के काम में अत्यंत मेहनत है। आजकल शहरों में मिट्टी की समस्या है। रंगने के लिए बानी (गेरु) ही नहीं मिलती। मिट्टी के परंपरागत बर्तनों का इस्तेमाल घटा है। उसपर कला के लिए गहरी लगन और धैर्य की जरूरत है। आज सभी जल्दी परिणाम चाहते हैं। ऐसे में कुछ दिक्कते तो आ रही है। खैर समय खुद कोई रास्ता निकालेगा। वैसे सभी को यह समझना होगा, ‘जब तक कला है, संस्कृति है। और फिर माटी तो कला का प्रथम साधन है। माटी से खिलौने बनते हैं तो देवता भी। माटी के बर्तन बनते हैं तो नए- पुराने सभी मकान चाहे वे ईंट के हो या कच्चे माटी के ही बने है। जीवन माटी के साथ इस तरह बीत गया कि मुझे तो कलात्मकता ही संस्कृति का प्राणत्तव मालूम होती है।’
आप पिछले कुछ वर्षों से केंसर से जूझ रहे है। कई आपरेशनों का सामना करना पड़ा है। क्या अभी भी अपने हाथ से काम करते हैं?
संत कबीर ने कहा है- ‘माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे। इक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहे।।’ दुःख-सुख जीवन का हिस्सा है। बचपन से मेहनत करने की आदत है इसलिए इन दिनों काम न कर पाने के कारण बेचैनी महसूस करता हूं। लेकिन मन में लगातार कला के विभिन्न आयाम चलते रहते है। कभी-कभी हिम्मत करता भी हूं तो ज्यादा देर बैठ नहीं सकता। तमन्ना है माटी का यह शरीर माटी में मिलने के आखिरी क्षण तक माटी को नए-नए आकार देता रहे।
आप हमारे पाठको को क्या विशेष संदेश देना चाहेगे।
मैंने पहले ही कहा कि मैं तो सिर्फ चार कलास पढ़ा हूं। आज के बड़ी-बड़ी डिग्रियो ंवालों को क्या संदेश दे सकता हूं। मैं पिछड़े क्षेत्र में जन्मा, साधनहीनता के बावजूद अपनी मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी। आज जो कुछ हूं- बड़ों के आशीर्वाद से हूं। उनकी हर बात का सम्मान किया। ध्यान रखा- ऐसा कोई काम न करू जिससे उनका सिर नीचा हो। भजन -संकीर्तन, संगीत के प्रति विशेष रुचि रही है इसलिए भगवान के प्रति पूरी आस्था है। यदि कोई समझना चाहे तो यही मेरा संदेश है।
गिर्राज जी, हमारे संपादक विनोद बब्बर जी आपके बहुत पुराने मित्र हैं। यूं तो आपको बहुत से सम्मान मिले हैं लेकिन हाल ही में आपको मिले ‘गोल्डन प्राइज’ के लिए उनकी तथा राष्ट्र-किंकर के समस्त पाठको की ओर से आपको कोटिशः शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए क्या मैं मिठाई की आशा कर सकता हूं?
शुभकामनाओं के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। अम्बरीश जी, मिठाई आपको जरूर मिलेगी। कभी पधारों मारे देश! कभी हमारी कुटिया में आओ। जो रूखा-सूखा होगा, आपको भेंट करेगे।
ध् बातचीत के लिए धन्यवाद। हमारी कामना है- आप स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे, दीर्घायु हो और अपनी कला के माध्यम से भारत का नाम रोशन करते रहे।
गिर्राज जी, आपने अपनी कला के माध्यम से अनेक शिखरों को छुआ है। आपको एक नहीं, दो-दो बार राष्ट्रपति जी द्वारा सम्मानित किया गया। फ्रांस, आस्टेªलिया, चकोसिलवाकिया सहित विश्व के अनेक देशों में अपनी कला का लोहा मनवाया है। पूर्व प्रधानमंत्री स्वग. राजीव गांधी की समाधि स्थल पर रखा विशाल दिया आपकी अद्वितीय योग्यता का जीता-जागता प्रणाम है। हाल ही में आपने वर्ड क्राफ्ट कौंसिल का ‘गोल्डन प्राइज’ जीत कर देश का गौरव बढ़ाया है। क्या बचपन से ही आपकी रूचि इस क्षेत्र में थी?
अम्बरीश जी। आप जो जानते ही हैं, मेरा जन्म 1949 मेे अलवर के पास रामगढ़ में हुआ। मेरे पिता श्री अजुर्नलाल जी एक साधारण कुम्भकार थे लेकिन मेरे ताऊ श्री लल्लुराम जी असाधारण प्रतिभा के स्वामी थी। बेशक उस समय मिट्टी के घंड़े, मटके आदि का ही चलन ज्यादा था लेकिन उनकी अंगुलियांे का कमाल वहां भी दिखता था। मैं उनसे बहुत प्रभावित था। आरंभ में मैं सबसे नजर बचाकर मिट्टी को आकार देने की कोशिश करता। पिताजी जब देखते तो डांटते। पढ़ाई में भी अच्छा था। चौथी कक्षा में स्कूल में एक रुपया लाने के लिए कहा गया। आपनी आर्थिक स्थिति के कारण पिताजी ने देने से इंकार कर दिया। जब स्कूल में बार-बार शर्मिदा किया जाने लगा तो मैंने स्कूल जाने से इंकार कर दिया। और पिता की मदद करने लगा। वैसे मुझे शुरु से ही संगीत, कला, साहित्य के प्रति गहरी रुचि रही है। उस समय ज्यादातर भजन कार्यक्रम होते थे। मैंने अनेक भजन भी लिखे। यह सिलसिला आज तक जारी है।परिवार में कौन-कौन है। दिल्ली कब और कैसे आना हुआ? अपने संघर्ष के बारे में हमारे पाठकों को संक्षेप में बताये।
हम दो भाई और एक बहन थे। छोटा भाई नहीं रहा। मैं मात्र 14 वर्ष की आयु में 1964 में दिल्ली आया। कोटला मुबारकपुर में किसी के पास 3 रु. रोज पर काम किया। ठेकेदार बहुत काम लेता था। हर रोज 50 मटके बनाने पड़ते थे। लेकिन मेरी हाथ में सफाई थी। माल हाथो-हाथ बिक जाता। इसलिए जब मैं परेशान होकर गांव चला गया तो वह गांव जा पहुंचा और पहले 4 रु. और फिर 5 रु.रोज देने लगा। उस समय 5 रुपएं बहुत बड़ी रकम थी। 1966 में मेरी शादी हुई। 1968 में मैं अपनी पत्नी को लेकर दिल्ली आ गया। जब घर छोड़ा तो पिताजी ने 50रु. देते हुए कहा था- बेटा, हमारी बदनामी मत कराना। बेशक कम करना पर अच्छा ही करना। उनकी बात को गांठ बांध कर मात्र दो जोड़ी कपड़े लेकर दिल्ली आया। 8 रु. किराये आदि में खर्च हो गए लेकिन 40 रुपए पत्नी ने रूमाल में बांधकर कहीं रख दिए। उसे चूहे ले गए। मिट्टी तक के लिए भी पैसे नहीं थे। 20 रुपए महीने पर किराये का एक प्लाट लिया। दिन-रात कड़ी मेहनत की। मेरा बना माल एडवान्स बिक जाता। लेकिन मेरी कलात्मक अभिव्यक्ति जब-जब बाहर आना चाहती, लोग मजाक बनाते- यह लड़का समय बर्बाद करता है। कई बार मन उदास भी होता लेकिन मैंने कला को मरने नहीं दिया। इसी बीच एक व्यापारी को मेरे बारे में जानकारी मिली। उसने मुझे बहुत बेहतरीन सैम्पल दिखाये। मैंने फौरन हां कर दी। दो दिन बाद उसे अपना काम दिखाया तो वह मुंह मांगे दाम देने के लिए हो गया। 1971 तक कुछ पैसे कमा लिए तो पिताजी से बिंदापुर में नई बस रही प्रजापत कालोनी में प्लाट खरीदने की अनुमति मांगी लेकिन पहले छोटी बहन की शादी करने के आदेश से उस समय इरादा छूट गया। मगर मन में संकल्प जिंदा रहा जिसने 1973 में मात्र 23 रु. गज से 200 गज का प्लाट दिलवाया ही दिया। आज जो कुछ है आपके सामने है।
साधारण काम से कलात्मकता की तरफ बढ़ने की कोई खास प्रेरणा?
हाँ, एक बार विट्ठल भार्ठ पटेल भवन में प्रजापति समाज के कार्यक्रम में रक्षामंत्री जगजीवन राम ने कहा था, ‘हमारे दस्तकारों को अपनी तकनीक और सोच में बदलाव कर अपने उत्पादों को बेहतर बनाना चाहिए।’ उनकी बात मेरे मन को छू गई। मैंने अपने ढ़ंग से जीने का फैसला किया। 1980 में मेरे काम को देखकर मुझे पहली बार मड़ी हाउस की एक कला प्रदर्शनी में भाग लेने का अवसर मिला। लोगों ने मेरे काम को सराहा। नए संबंध बने। नई चुनौतियां भी मिली। लेकिन प्रभु की कृपा और बड़ों के आशीर्वाद से देश -विदेश की अनेक प्रदर्शनियों में भाग लेकर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने के अवसर मिले। 1978 में मुझे दिल्ली सरकार का स्टेट अवार्ड मिला। उसी साल मुझे और मेरी पत्नी को माननीय राष्ट्रपति श्री आर.वेकटरमन जी के हाथो नेशनल अवार्ड प्राप्त करने का सौभाग्य मिला। 2006 में फिर राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी ने शिल्पगुरु का सम्मान प्रदान किया। सूरज कुंड में हर वर्ष लगने वाले क्राफ्ट मेले के प्रवेश टिकट पर चाक घुमाते हुए मेरा चित्र लगना मेरे पूर्वजों की कला का सबसे सम्मान था।क्या आपके बच्चे आपके काम में आपके साथ है? नई पीढ़ी परंपरागत कामों से दूरी क्यों बना रही है?
मेरा बड़ा बेटा श्यामप्रसाद भी कलात्मक अभिरूचि वाला है। लेकिन उसका कार्यक्षेत्र फोटोग्राफी है। शूटस एण्ड शूटस अकादमी के निदेशक श्याम को अपने क्षेत्र में नेशनल अवार्ड हासिल है। लेकिन छोटा बेटा भुवनेश प्रसाद टेराकोटा का बहुत अच्छा कलाकार है। उसे भी न केवल स्टेट अवार्ड बल्कि राष्ट्रपति कलाम साहिब से नेशनल अवार्ड मिल चुका है। उसे भी देश-विदेश में अपनी कला के लिए जाना जाता है। वैसे आपकी बात सच है कि आज की नई पीढ़ी अपने परम्परागत काम को छोड़ने लगी हैं। दुःखद बात तो यह है कि परंपरागत काम करने वालों को उनका अपना समाज भी आपेक्षित सम्मान नहीं देता। यहां तक अपना काम करने वाले के घर रिश्ता करने में संकोच किया जाता है। जबकि सच्चाई यह है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता। हाँ, इस बात से भी इंकार नहीं कि मिट्टी के काम में अत्यंत मेहनत है। आजकल शहरों में मिट्टी की समस्या है। रंगने के लिए बानी (गेरु) ही नहीं मिलती। मिट्टी के परंपरागत बर्तनों का इस्तेमाल घटा है। उसपर कला के लिए गहरी लगन और धैर्य की जरूरत है। आज सभी जल्दी परिणाम चाहते हैं। ऐसे में कुछ दिक्कते तो आ रही है। खैर समय खुद कोई रास्ता निकालेगा। वैसे सभी को यह समझना होगा, ‘जब तक कला है, संस्कृति है। और फिर माटी तो कला का प्रथम साधन है। माटी से खिलौने बनते हैं तो देवता भी। माटी के बर्तन बनते हैं तो नए- पुराने सभी मकान चाहे वे ईंट के हो या कच्चे माटी के ही बने है। जीवन माटी के साथ इस तरह बीत गया कि मुझे तो कलात्मकता ही संस्कृति का प्राणत्तव मालूम होती है।’आप पिछले कुछ वर्षों से केंसर से जूझ रहे है। कई आपरेशनों का सामना करना पड़ा है। क्या अभी भी अपने हाथ से काम करते हैं?
संत कबीर ने कहा है- ‘माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे। इक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूंगी तोहे।।’ दुःख-सुख जीवन का हिस्सा है। बचपन से मेहनत करने की आदत है इसलिए इन दिनों काम न कर पाने के कारण बेचैनी महसूस करता हूं। लेकिन मन में लगातार कला के विभिन्न आयाम चलते रहते है। कभी-कभी हिम्मत करता भी हूं तो ज्यादा देर बैठ नहीं सकता। तमन्ना है माटी का यह शरीर माटी में मिलने के आखिरी क्षण तक माटी को नए-नए आकार देता रहे।
आप हमारे पाठको को क्या विशेष संदेश देना चाहेगे।
मैंने पहले ही कहा कि मैं तो सिर्फ चार कलास पढ़ा हूं। आज के बड़ी-बड़ी डिग्रियो ंवालों को क्या संदेश दे सकता हूं। मैं पिछड़े क्षेत्र में जन्मा, साधनहीनता के बावजूद अपनी मेहनत में कोई कमी नहीं छोड़ी। आज जो कुछ हूं- बड़ों के आशीर्वाद से हूं। उनकी हर बात का सम्मान किया। ध्यान रखा- ऐसा कोई काम न करू जिससे उनका सिर नीचा हो। भजन -संकीर्तन, संगीत के प्रति विशेष रुचि रही है इसलिए भगवान के प्रति पूरी आस्था है। यदि कोई समझना चाहे तो यही मेरा संदेश है।
गिर्राज जी, हमारे संपादक विनोद बब्बर जी आपके बहुत पुराने मित्र हैं। यूं तो आपको बहुत से सम्मान मिले हैं लेकिन हाल ही में आपको मिले ‘गोल्डन प्राइज’ के लिए उनकी तथा राष्ट्र-किंकर के समस्त पाठको की ओर से आपको कोटिशः शुभकामनाएं प्रेषित करते हुए क्या मैं मिठाई की आशा कर सकता हूं?
शुभकामनाओं के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। अम्बरीश जी, मिठाई आपको जरूर मिलेगी। कभी पधारों मारे देश! कभी हमारी कुटिया में आओ। जो रूखा-सूखा होगा, आपको भेंट करेगे।
ध् बातचीत के लिए धन्यवाद। हमारी कामना है- आप स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे, दीर्घायु हो और अपनी कला के माध्यम से भारत का नाम रोशन करते रहे।
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