कंधे का दर्द कंधों पर!-- डा. विनोद बब्बर

यह क्या है कि जमाना आपको किसी भी हाल में जीने नहीं देगा। अगर आप दुबले-पतले हैं, तो कागजी पहलवानजी, हजारों तरह की लानतें झेलने के लिए तैयार रहो। कंजूस हो, मक्खीचूस हो, ज्यादा कमाई के चक्कर में लगे हो, दिन के उजाले से लेकर रात के अंधेरे तक के हजारों अवसरों पर बेंधने वाले तीर उनके तरकस में आपको घायल करने के लिए तैयार हैं और..... खुदा न खास्ता अगर आपका डील-डौल अच्छा है, तो मियांकद्दू जी, ताना कसने वाले आपको भी कहां छोड़ने वाले हैं। अरे भाई, दूसरों का भी ध्यान रखा करो, जब तुम ही अपना वजन बढ़ाने में लगे रहोगे तो देश में अनाज का संकट पैदा ही होगा। अब लोग भूख से न मरें, तो और क्या करें? पर तुम्हें क्या, तुम तो खाए जाओ-खाए जाओ और चर्बी बढ़ाए जाओ।
यहीं तक क्यों? घर परिवार से लेकर समाज और राष्ट्र की भी कुछ चिंता करने की नसीहत देने वाले भी आपको बिना ढूंढे मिल जाएंगे। 
अब बाहर वालों को तो जैसे- तैसे निपट भी लें पर जब अपने-ही दुश्मन बने हो, तो क्या किया जा सकता है? बात अंदर की है, मगर फिर भी आपको बताये देते हैं। इधर हमारी पतलून क्या टाइट हुई कि हमारी श्रीमती जी हमारी ही दुश्मन हो गई, ‘कुछ करो, कुछ करो।‘ दुनिया हमारे बढ़ते साम्राज्य से जले-कुढ़े, यह तो समझ में आता है। पर घर पर नाश्ते के समय भी मूली  और गोभी के पराठों के बदले सिर्फ नसीहतंे ही मिले तो आखिर कब तक संयम रखा जा सकता है, पर मुसीबत है कि इस उम्र में संयम के अलावा आखिर चारा भी क्या है? चारा, मेरा मतलब नाश्ते के नाम पर एक अदद सूखी चपाती और पतली दाल मिलती हो, तो दुनिया हमारे दर्द को कैसे समझ सकती है? मैं अब यह समझ पाया हूं आखिर चारा क्यों बदनाम है? अब देखो अपने लालूजी भी आजकल चारे- वारे के चक्कर में नहीं हैं। अच्छे भले पटरियों पर दौड़ रहे है। पर फिर भी लोग मेरी तरह उनके भी पीछे पड़े रहते हैं। 
हाँ, तो मैं अपना दर्दे-गम सुना रहा था। खुदा के फज़ल से हमारी सेहत क्या बनी, हर आदमी हमें खा जाने वाली निगाहों से देखता। गोया, हम अपने नहीं, उनके खेत का चारा चर रहे हों। जिसे देखो वही वजन घटाने की नेक राय देता। अब, कोई इन तथाकथित शुभचिंतकों से पूछे कि आपके होते हुए हमें दुश्मनों की भला क्या जरूरत है, जो सुबह- शाम हमारी पतलून ढीली करने की कोशिश में लगे रहते हैं। 
न जाने किसी दुश्मन की सलाह पर हमारी मुसीबत धीरे-धीरे नाश्ते से लंच और डिनर तक भी पहुंच गई। हमारी श्रीमती जी ने घर पर मार्शल ला लगा दिया, जब देखो, खाने के नाम पर हरी सलाद और अंकुरित अनाज की प्लेट तैयार मिलती। जैसे हम आदमी न हुए, बकरी हो गये जो सुबह-शाम हरा चारा ही चबाये। 
आखिर, हमारे दुश्मनों को एक सुनहरा मौका मिल ही गया। जब हमारे एक मित्र ने एक जाने-माने स्वामीजी का योग शिविर आयोजित किया। उन्हें योगशिविर के लिए प्रायोजक चाहिए थे और हमारी श्रीमती जी को मौका। बस, फिर क्या था, शहर भर में लगे हर पोस्टर पर शिविर के अध्यक्ष के रूप में हमारा फोटू चिपका था। जब बात इतनी आगे बढ़ जाए यानी इज्जत का सवाल हो जाए, तो प्यारी-प्यारी नींद और नरम-नरम गद्दे का मोह छोड़ने के अलावा और कोई चारा नहीं होता। ओह! देखा आपने यह कम्बख्त चारा यहाँ भी हमारा पीछा छोड़ने को तैयार नहीं। 
तो लीजिए, योगशिविर का उद्घाटन होने जा रहा है। लोग फूलमालाओें और कीमती गुलदस्तों से स्वामी जी का स्वागत कर रहे थे और अध्यक्ष जी मेरा मतलब इस नाचीज के गले में भी ढे़ेरों फूलमालाएं पड़ रही थीं। हम फूल कर कुप्पा हुए जा रहे थे और मन ही मन अपनी प्राणप्रिया को सराह रहे थे कि आज उन्हीं के प्रयासों से हमारी शान में चार चांद लग रहे हैं। स्वागत के बाद योगाभ्यास शुरू होने जा रहा है। हमने भी अपनी चादर बिछा दी और बन गये योग-साधक। 
स्वामीजी अपने मधुर स्वर में योग के असंख्य/ अनगिनत लाभों के बारेे में बताने के बाद शुरू हो गये.......
‘ पद्मासन में बैठिए, कमर सीधी, लंबा सांस लीजिए, सांस को अंदर रोकिए। ज्यादा से ज्यादा देर तक रोकने की कोशिश कीजिए। पर ध्यान रहें, कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती न करें।‘ मैं अभी इस वाक्य का अर्थ समझने की कोशिश कर ही  रहा था कि तब तक दूसरा आसन शुरू हो गया, 'अपनी आंखंे कोमलता से बंद कीजिये और अपना ध्यान अपने आज्ञाचक्र पर लगाइए।‘ 
अजीब बात है, आंखें भी बंद रखो और ध्यान भी लगाओ, का निर्देश एक साथ दिया जा रहा था।
जैसे- तैसे दो घंटे बीते और हम घर वापस आए। पर लंगड़ाते हुए, जहां श्रीमती जी मुस्कुराते हुए हमारा स्वागत करने के लिए तैयार थीं। उन्होंने टांग में आई खिंचावट की परवाह न करने की सलाह देते हुए हमारे सामने वही पुराना चारा रख दिया तो हमें भी ताव आ गया। 
‘यह क्या, देख नहीं रही हो, हमारी टांग में  दर्द है और फिर भी अंकुरित अनाज? अब, यह नहीं चलेगा। फौरन लाओ गर्मागर्म परांठें और केसर- बादाम वाला दूध।
‘हां, हां, बड़ा पहाड़ तोड़ कर आए हो न। दो -चार आसन क्या कर लिये कि दिमाग सातवें आसमान पर जा पहुंचा है। अगर मेरी मानकर पहले -से ही योगाभ्यास करते, तो आज तुम्हारी टांग में दर्द न होता। अब एक सप्ताह तक चुपचाप यही आसन और यही अनाज- सलाद लेते रहो, फिर देखना तुम्हारी पर्सनैलिटी पर क्या चार चांद लग जाएंगे?
ठीक कहती हो मैडम, याद रखना, एक सप्ताह बाद तो हम तुम ख्वाबों में ही मिलंेगें।‘ पर न जाने वे किस मिट्टी की बनी हैं कि उनका दिल नहीं पसीजा। आखिर, हमारी सबसे बड़ी शुभचिंतक जो ठहरीं! 
अगले दिन शिविर से कंधा पकड़े वापस आए तो आज भी श्रीमती जी के चेहरे पर विजयी मुस्कान देखकर ऐसा लगा मानो वे हमारी प्राण प्यारी नहीं, प्राण प्यासी हांे। इधर कंधे के दर्द से हमारी जान निकले जा रही थी और उधर वे टेलिफोन पर अपनी सहेलियों से बधाइयां स्वीकार कर रही थीं क्योंकि अब वह शहर के जाने- माने व्यक्ति की पत्नी जो बन गई थीं। आप गलत न समझंे। वे अब भी मेरी ही पत्नी हैं। इधर मैं ही योगशिविर का अध्यक्ष बनकर अचानक शहर का जाना- माना व्यक्ति बन गया। सभी समाचार-पत्रों में मेरे चित्र छपे थे, इस खबर से श्रीमती जी की कई सहेलियांे को उनसे ईर्ष्या होने लगी। पर जलन को शुरू करने से पहले कन्फर्म करना जरूरी समझा और बधाई का नाटक किया। मगर हमारी भोली-भाली श्रीमती जी उनके नाटक को भी असलियत समझ फूली नहीं समा रही थीं। 
अगले दिन कंधे के ंदर्द के कारण मेरे योग शिविर में न पहुंच पाने के कारण दिन भर घर के टेलिफोन की घंटी घनघनाती रही और देर रात तक हमारे कंधे के दर्द का हाल पूछने वालों का तांता लगा रहा। लोग इस तरह शोक प्रकट करने पहंुच रहे थे मानों बात सिर्फ कंधे के दर्द की नहीं, चार कंधांे तक पहुंचने वाली हो। हैरानी की बात तो यह है कि दूसरों को चाय-काफी के साथ काजू-मिठाई पेश करने वाली हमारी  श्रीमती जी हमारा नंबर आते ही बड़ी-बड़ी आंखें निकालकर प्लेट यूं पीछे कर लेतीं जैसे 440 वाट का झटका लगा हो। 
आज एक सप्ताह से घर पर पड़ा हूं। योगाभ्यास से मेरा व्यक्तित्व पूरी तरह बदल गया है। यह कहना मुश्किल है कि श्रीमती जी हमारे बदले हुए हुलिये से कितना संतुष्ट हैं। पर मेरे लिए शीशे में देखकर खुद को पहचानना मुश्किल हो रहा है। इधर कंधे के दर्द में कोई आराम नहीं मिला, कई नुस्खे आजमा चुके हैं, कई डाक्टरों को दिखा चुके हैं, योगवाले स्वामीजी की शरण में जाकर उनसे भी जेब कटवा चुका हंूँ, पर दर्द है कि अंगद के पांव की तरह जमा हुआ है। मुझे अब तक दर्द के एक से बढ़कर एक सैंकड़ों शर्तिया नुस्खे प्राप्त हो चुके है,ं उन पर एक अच्छी खासी किताब लिखी जा सकती है, पर मजबूरी यह है कि बाजू में भयंकर दर्द अब भी जारी  है। नुस्खे तो दूसरों के थे, पर बाजू तो इस बदकिस्मत  की है।
कमाल तो तब हो गया जब बेटे ने शिकायत की कि मेरी वजह से उसका तलाक हो सकता है। हुआ यूं कि हमारी दर्दे-दास्तान बेटे के ससुराल तक भी पहुंच गई तो उन्होंने भी अपना नुस्खा आजमाने के लिए हमें अपनी प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल करने का फैसला किया। मगर नुस्खों से तंग आ चुके इस गरीब ने  उनकी लाई हुई दवा का लेप नहीं किया जो उनकी बेटी यानी हमारी बहू को बेहद नाखुश गवार गुज़रा। उसने हम पर अपने मायके वालों से नफरत करने का आरोप लगाते हुए बेटे को तलाक की धमकी दे डाली। बेटे की गृहस्थी पर आए संकट को टालने के लिए हमने वहां से आई दवा को संकट मोचन बनाया और बहू को फौरन उस दवा का लेप करने के लिए कहा। यदि इतनी- सी बात से उनका घर और हमारी इज्जत बच सके तो दवा का लेप तो क्या, मैं उसके मायके से आई चादर भी अपने ऊपर डलवाने को तैयार हूंँ। आखिर, बच्चों के लिए तो लोग बड़ी-बड़ी कुर्बानियां करते  है, मुझे तो सिर्फ हाथ ही कुर्बान करना है।
दूसरों की मानते-मानते, मन है कि मानता ही नहीं। बार-बार मेरा मन पिंजरे से बाहर निकलने के लिए छटपटाता है क्योंकि आजकल सलाद और अंकुरित अनाज के साथ- साथ कड़वी जड़ी -बूटियां भी हमारे ब्र्रेक फास्ट से डिनर पर छाई हुई हैं। मुझे अपनी श्रीमती जी से ज्यादा नाराजगी अपने मित्रों से है क्योंकि किसी कम्बख्त ने भी मेरे  दर्द को महसूस नहीं किया और न ही किसी ने इससे मुक्ति के लिए बादाम, काजू, केसर, देशी घी युक्त दूध पिलाने का नुस्खा हमारी श्रीमती जी को सुझाया। न जाने सारे के सारे कहां मर गये? कहीं ऐसा तो नहीं कि वे भी मेरे दर्द का मजा लेते हुए अपने पुराने दर्दों का हिसाब-किताब चुका रहे हों। अब तो मेरा दर्द कंधे से दिल तक पहुंच गया है, क्योंकि जिसे देखो वही मुस्कुरा कर व्यंग्य भरे लहजे में यह कह रहा हो, ‘मैंने तो तुम्हें पहले भी समझाया था, कुछ करो, कुछ करो, तब नहीं मान,े तो अब भुगतो।‘ 
दोस्तो! मैं परेशान हूं इसलिए, बताये देता हूं। कुछ भी करना पर, अपनी सेहत के दुश्मनों की कभी मत सुनना। देखने में चाहे  कद्दू दिखाई दो या दद्दू, हाथी लगो या गैंडा, पर किसी की परवाह न करना क्योंकि आपको ट्रिम स्लिम बनाने वाली बातों के नीचे ऐसा जाल छिपा है जिसे मैं तो देख नहीं सका। पर आपको सावधान कर रहा हूँ और अब भी उस घड़ी को कोस रहा हँूं जब गले में माला डलवाने के बाद चादर बिछाई थी, पर लगता है दर्द तो अब  चादर के मेरे ऊपर पड़ने पर ही जाएगा।   
कंधे का दर्द कंधों पर!-- डा. विनोद बब्बर कंधे का दर्द कंधों पर!-- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 08:44 Rating: 5

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