केजरीवाल और उनका स्वराज-- डा. विनोद बब्बर

दिल्ली की राजनीति ने एक के बाद दूसरा धमाल कर दिखाया। बिजली हाफ, पानी माफ, वाई-फाई  मुफ्त,  टैक्स कम, सुशासन ज्यादा के वादो की धुन पर झूमने वाली दिल्ली देख रही है कि उनके नये आका कठिन वादे पूरे करने की योजना बनाने की बजाय अपने संघर्ष के दिनो के साथियों को शून्य करने की योजना बनाने में अपनी ऊर्जा लगा रहे है। कुछ दिन इन्तजार, फिर सुगबुगाहट के बाद अब दिल्ली देश भर में उठ रही अपनी खिल्ली को लेकर गंभीर है। इसकी एक बानगी देखे, ‘राजनीति कोे काजल की कोठरी कहा जाता था लेकिन अब तो इसे नौटंकीबाजो का अड्डा कहा जाना चाहिए। इंसान से इंसान के भाईचारे का राग अलापने वाले का अपने भाईयों से सलूक देखकर कोई भी समझ सकता है कि ईमानदारी का चोगा या नैतिकता की टोपी सब बकवास  है।’ प्रातः पार्क में मिले एक बुजुर्ग ने कहा तो मैं चौंका। ये वहीं बुजुर्ग हैं जो कल  ‘मैं आम आदमी’ टोपी वाली लगाये घर-घर केजरीवाल को जिताने की अपील कर रहे थे। दो महीने से भी कम समय में ही अपने आदर्श को आदर्श से दूर जाते देखकर दुःखी होने वाले ये बुजुर्ग अकेले नहीं है। आजकल दिल्ली मैट्रो से बस और पार्कों तक केजरीवाल के कथित ‘स्वराज’ की ही चर्चा है।
केजरीवाल के ‘स्वराज’ की चर्चा करने से पूर्व अन्ना आंदोलन की चर्चा करना आवश्यक समझता हूं। भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों में कार्यरत देश के जाने-माने लोगों को शामिल कर एक समिति बनी थी। राष्ट्रीय ख्याति के मेरे एक मित्र भी उस समिति में शामिल किए गए। जब मैंने उनसे उनके अनुभव जानने चाहे तो उन्होंने बताया, ‘एक लड़का इस सारे परिदृश्य को संचालित करने की कोशिश कर रहा है। मुझे उसके इरादे ठीक नहीं लगते। कुछ दिन तेल और तेल की धार देखते हैं।’  लगभग एक माह बाद उन्होंने मुझे फोन पर बताया कि उन्होंने समिति छोड़ दी है क्योंकि उसे उस लड़के ने ‘हाईजैक’ कर लिया है। बेशक उस समय उस लड़के की कोई्र पहचान नहीं थी लेकिन उसने बहुत चतुराई से दूसरों को इस्तेमाल करते हुए स्वयं को स्थापित कर लिया। कहना न होगा, वह लड़का कोई और नहीं अरविंद केजरीवाल ही था।  
दरअसल दिल्ली चुनाव के दौरान ही आम आदमी पार्टी के बदले हुए स्वरूप पर पार्टी के संस्थापक और संकट के दिनो में सबसे अधिक आर्थिक सहयोग देने वाले शांतिभूषण ने उम्मीदवारांे की छवि पर प्रश्न उठाया तो पार्टी ने उनकी अनदेखी करना उचित समझा। इसे दिल्लीवालो का ‘विवेक’ कहा जाए कि उन्होंने किसी तर्क, सबूत को सुनने, समझने की बजाय झाडू को एक तरफा समर्थन देकर शेष सभी की उम्मीदो पर झाडू चला दिया। चुुनाव के दौरान ‘मुझे स्वराज चाहिए’ की टोपी लगाने वाले इस अभूतपूर्व जीत के बाद ‘स्वराज’ की अपनी परिभाषा तैयार करते नजर आए जिसके अनुसार ‘जो केजरीवाल कहे केवल वही सही, शेष सब गलत। जिसे पार्टी में रहना हो, आंख कान बंद करके केवल जी हजूरी करे वरना बाहर निकालने जाने के लिए तैयार रहे।’
दूसरो का स्टिंग करना सिखाने वाले केजरीवाल के ही अनेक स्टिंग सामने आने के बाद उनकी छवि निश्चित रूप से घूमिल हुई लेकिन अपने ‘स्वराज’ को लागू करने के लिए उन्होंने कभी पार्टी के स्तंभ माने जाने वाले प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को ही बाहर का रास्ता नहीं दिखाया बल्कि प्रो. आनंद कुमार और अजीत झा को भी राष्ट्रीय कार्यकारिणी से निकाल दिया गया। जिस तरह बाउंसरों की उपस्थिति, मारपीट के बाद जनलोकपाल के सबसे बड़े समर्थक द्वारा अपनी पार्टी के आंतरिक लोकपाल रामदास की भी छुट्टी कर दी गई। एक स्टिंग में केजरीवाल जी ने जिस तरह अपने साथियों के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया है अब इससे बाद भी यदि किसी के मन-मस्तिष्क में इस नई तरह की राजनीति में भी सिद्धांतों - मूल्यों  के लिए कोई स्थान होने की गलतफहमी शेष हो तो इसे उस व्यक्ति अथवा समाज की मानसिक समस्या समझा जाना चाहिए। ऐसे अपशब्द सार्वजनिक जीवन में सक्रिय किसी व्यक्ति ने इससे पूर्व शायद ही कभी इस्तेमाल किये गए हो।
राष्ट्रीय परिषद की बैठक में उपस्थित पंकज पुष्कर, विधायक देवेंद्र सहरावत, सांसद धर्मवीर गांधी व कुछ अन्य ने बताया कि  बैठक की शुरू होते ही पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल के संकेत पर मनीष सिसोदिया ने राष्ट्रीय परिषद के सदस्यों का हस्ताक्षरित प्रस्ताव रखा। जब इस प्रस्ताव पर अपना पक्ष रखे जाने की बात योगेंद्र ने कही तो शारीरिक तौर पर  शक्तिशाली लोग लगातार योंगेंद्र और भूषण को हाथ लगाकर बाहर जाने को कहने लगे। जब प्रशांत ने स्वर तेज किया तो उनके कंथे को पकड़कर एक व्यक्ति ने बाहर की ओर धकेला गया। तब योगेंद्र ने तेज आवाज में कहा, ‘यह उचित नहीं है, पार्टी के सदस्यों के साथ आप लोग इस तरह का सलूक करेंगे।’ इसके जवाब में सिसोदिया ने कहा, ‘आप लोग बाहर जाएं, यही राष्ट्रीय परिषद का फैसला है।’ आम आदमी पार्टी के नेता एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय छात्र संघ के पूर्व महामंत्री डॉ उमेश सिंह के अनुसार पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल अपनी मुट्ठी में अधिकार रखने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। बेशक पार्टी प्रवक्ता आशुतोष ने स्टिंग से सामने आई  अभद्र भाषा के लिए माफी मांगी है लेकिन वरिष्ठ प्रोफेसर आनंद कुमार  केजरीवाल के मुंह से अपने लिए इस्तेमाल किए गए शब्दों से स्तब्ध हैं। इन तमाम बातों को देखते हुए मेधा पाटकर ने पार्टी से इस्तीफा देना ही उचित समझा। उनसे पूर्व भी अनेक जाने-माने लोग केजरीवाल जी के दोहरे व्यवहार  के कारण पार्टी से नाता तोड़ चुके हैं। जो शेष बचे हैं उनके बारे में यह कहना कठिन है कि कौन कब तक उनके साथ रहेगा। 
दूसरो को भड़काये जाने के आरोपों के कारण केजरीवाल जी के भाषण के संपादित अंश जारी किए गए जो उनके अहम को स्पष्ट करने के लिए काफी हैं। जनाब कहते हैं- ‘मैंने पार्टी को अपने खून-पसीने से बनाया-खड़ा किया..डायबिटीज से पीड़ित होने के बावजूद मैंने 15 दिन अनशन किया। मेरी हालत देखकर मेरे डाक्टर रोए, मेरी मां रोई-पत्नी रोई।’ स्पष्ट है कि माननीय केजरीवाल जी अपने प्रयासों के सामने दूसरों के प्रयासों को कोई महत्व नहीं देना चाहते वरना वे यह जरूर जानते होंगे कि ऐसा करने वाले वे अकेले नहीं थे बल्कि अनेक लोगों ने अपना काम- धंधा छोड़कर यही सब कुछ किया। इन लोगों में तो अनेक ऐसे भी थे जिनकी पत्नी भी सरकारी अधिकारी तो दूर मजदूरी तक नहीं करती थी। उन्होंने एक नई तरह की राजनीति के लिए घोर कष्ट तक सहने होंगे। लेकिन उन तमाम लोगों का त्याग तुच्छ और केजरीवाल साहिब का त्याग सबसे बड़ा था इसीलिए तो यह पार्टी उनकी है। 
राष्ट्रीय कार्यकारिणी के  वहां मौजूद सदस्यों का एक तरह से भावनात्मक भयादोहन करते हुए वह कहते हैं, ‘मैं आज हार मानता हूं, आप जीत गए। मैं अब इस लड़ाई को और नहीं बढ़ाना चाहता हूं। ये न स्वराज है न आंतरिक लोकतंत्र हैं। आज या तो आप उन्हें (पार्टी में पारदर्शिता की मांग उठाने वालों को) चुन लीजिए या मुझे चुन लीजिए।’ इसके बाद वह बैठक से चले गए। उसके तत्काल बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का पक्ष सुने बगैर उन्हें निकाल बाहर कर दिया गया। स्पष्ट है कि सबकुछ पूर्व नियोजित था। केजरीवाल जी की कथनी और करनी के अंतर को समझने के लिए उनके ही कथन काफी हैं। वह अपने ढ़ंग के ‘स्वराज’ के हिमायती हैं जिसकी झलक उन्होंने अपने ही साथियों को दिखा ही दी है। बाहरी लोगों द्वारा  वरिष्ठ साथियों को बाहर धकेल वाले से उनके ‘आंतरिक लोकतंत्र’ का चेहरा भी बेनकाब हो ही गया है।
जनता को मूर्ख समझने वाली राजनीति से मुक्ति के लिए छटपटाती दिल्ली को अब भी विश्वास है कि उनके नए आकाओं को सद्बृद्धि आएगी और वे अपने झूठे अहम को तिरोहित कर राजनीति के इस नए प्रयोग की भ्रूणहत्या के अपराधी नहीं बनेगे। आखिर इसी में ही तो ‘स्वराज’ और ‘लोकतंत्र’ की गरिमा है।
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