विकास की कसौटी बनाम राजनीतिक सूझबूझ

हर वह व्यक्ति जो किसी दूरदराज के गांव अथवा छोटे शहर में रहता है देश के दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों के बारे में उसकी धारणा लगभग यह होती है कि वे उसके गांव अथवा शहर से बेहतर होंगे। वहां अच्छा प्रशासन होगा। आने-जाने के साधन सहज उपलब्ध होगे। सड़कें चौड़ी और साफ सुथरी होने के कारण आवागमन आसान होगा। बिजली, पानी तो शुद्ध वायु की तरह हमेशा उपलब्ध  रहते ही होंगे। वहां शिक्षा, स्वास्थ्य, रहन-सहन के अच्छे साधन निश्चित रूप से होंगे। अतः वहां के लोग बहुत प्रसन्न होंगे।  लेकिन पिछले दिनांे  एक स्वायत्त संस्था नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के एक अध्ययन ने जो तस्वीर प्रस्तुत की है वह इस मिथक को तोड़ने वाली है। इस संस्था ने दस लाख से ज्यादा जनसंख्या वाले पचास से अधिक नगरों का अध्ययन कर यह पाया कि महानगरो के मुकाबले विकसित हो रहे छोटे नगरों का वातावरण बेहतर हैं। कुछेक उपलब्धताओं की बात यदि छोड़ दें तो विकसित समझे जाने वाले महानगर  प्रति व्यक्ति आय, रहन-सहन, शिक्षा, सफाई, गरीबी, पर्यावरण जैसे मामलों में तुलनात्मक दृष्टि से पिछड़ रहे हैं। यह कोई आश्चर्य नहीं कि इस अध्ययन मंे मुंबई 19वें, देश की राजधानी दिल्ली 23वें, कोलकाता को 24वें स्थान के योग्य समझे गए। इस अध्ययन से एक खास बात जो उभर कर सामने आई है वह यह कि उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत के नगरों का जीवन स्तर बेहतर पाया गया।  स्कूल, अस्पताल, यातायात, लाइब्रेरी, पार्क, पेयजल को सामाजिक स्तर से जोड़ा जाता है। इस दृष्टि से कन्नूर, त्रिचूर और कोच्चि को सबसे बेहतर घोषित किया गया जबकि सबसे खराब घोषित तीनांे नगर (आगरा, श्रीनगर और मेरठ) उत्तर के हैं। यदि साफ- सफाई को कसौटी माने तो सूरत, चंड़ीगढ़, मैसूर, मैंगलोर, जमशेदपुर ही खरे उतरते दिखाई देते है। राजनैतिक प्रतिरोध के कारण दिल्ली सरकार द्वारा नगर-निगम का फण्ड रोके जाने के कारण सफाई कर्मचारियों को वेतन मिलने में हो रही कठिनाई के कारण सफाई प्रभावित हो रही है। जगह-जगह कूड़े के ढ़ेर है लेकिन औद्योगिक नगर सूरत में सफाई रात को की जाती है जिससे जनजीवन भी प्रभावित नहीं होता। ईको फ्रेंड सिटी के रूप में प्रसिद्ध चंड़ीगढ़ देश की राजधानी से काफी बेहतर है। इस अध्ययन रिपोर्ट में आंखे खोलने वाले अनेक अन्य तथ्य भी हैं। यदि इनसे सबक लिया जाए तो केन्द्र सरकार शीघ््रा स्थापित होने वाले 100 स्मार्ट नगरों को और बेहतर बनाया जा सकता है। 
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात संसाधनों का अभाव कहा जाए या दूरदर्शिता की कमी, अनुभव बताते हैं कि असंतुलित विकास के कारण महानगरों का आकर्षण बढ़ा। रोजगार तथा अन्य सुविधाओं की तलाश में जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग महानगरों की ओर पलायन कर गया जिससे वहां की व्यवस्था लगभग चरमरा गई। पर्यावरण असंतुलन से प्रदूषण तक, बिजली, पानी, परिवहन से स्वास्थ्य और शिक्षा सुविधाओं तक अनेक विसंगतियां उत्पन्न हुई। परिणाम स्वरूप इन महानगरों के एक की बजाय अनेक चेहरे हो गए। दिल्ली की ही बात करे तो गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से झुग्गी बस्तियों तक, देहात से पॉश कालोनियों तक यहां अनेक दिल्लियां बन गई। शानदार दिल्ली से शर्मशार दिल्ली बड़ी होती गई। झुग्गी बस्तियां और अनाधिकृत कालोनियां वोट बैंक की राजनीति के कारण फलती- फूलती रही।  नदियां नालों में बदली तो आवश्यक सुविधाओं का संकट बढ़ता गया। यह कहानी दिल्ली या किसी एक महानगर तक सीमित नहीं रही। लगभग हर जगह देश के विभिन्न भागों से पलायन कर लोग आते गये। एक ओर परिवारों का विखंड़न हुआ तो दूसरी ओर सामाजिक मान्यताएं और परम्पराएं प्रभावित हुई। अपने अभिभावकों के नियंत्रण से मुक्त हुई पीढ़ी अनेक व्यसनों का शिकार हो गई। दिखावे और झूठी शान का प्रचलन बहुत तेजी से बढ़ा। सहज जिंदगी जीने वाले अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि के परिवेश के अंतर यानि परम्परा और आधुनिकता के बीच पिसने लगे। यदि तनाव और अपराध के तेजी से बढ़ने के कारणों को ईमानदारी से जानने का प्रयास किया जाये तो  इन महानगरों के जिंदगी की अनेक विसंगतियों की तस्वीर हमारे सामने आती है। आश्चर्य की बात है कि  अपराधी को दण्डित करने के लिए  सुरक्षा बलों, आधुनिक उपकरणों, अदालतों और जेलांे की संख्या तो बढ़ाई गई लेकिन अपराध को समाप्त करने की दिशा में कोई कारगर कदम नहीं उठाये गये। उन परिस्थितियों को बदलने की बहुत कोशिश नहीं हुई इसीलिए इन महानगरों के जीवन में तनाव  स्थाई रूप से घर कर गया। भागम भाग और अफरातफरी घर से बाहर तक यानि पारिवारिक असफलता से रोड रेज तक का कारण बन रही है।
केवल इतना ही नहीं, असंतुलित विकास ने वृद्धों और बच्चों के सामने बहुत विकट परिस्थितियां उत्पन्न कर दी है। बच्चांे के रोजगार तथा अन्य कारणों से महानगर जाने के कारण वृद्ध गांव में अकेले पड़ गए। उचित देखभाल और भावना स्पर्श के अभाव ने उनके लिए समस्याओं का पिटारा खोल दिया। संयुक्त परिवार के विखंडन ने अगली पीढ़ी यानि बच्चों को उपेक्षित कर दिया। माता-पिता की व्यस्तता के चलते उन्हें संस्कार देने वाला उस परिवेश में कोई संवेदनशील व्यक्ति नहीं रहा तो यह महत्वपूर्ण जिम्मेवारी बेलगाम टीवी चैनलों के बाद इन्टरनेट ने संभाल ली। उक्त अध्ययन में भी इन तमाम विसंगतियों की झलक दिखाई देती है। 
कारण भी स्पष्ट है कि महानगरीय जनजीवन सभी को समान सुविधाएं से बेहतर वातावरण, सुरक्षा, स्वच्छता, शांति उपलब्ध कराने में असफल रहा है। ऐसे में देश की सरकार को स्मार्ट सिटी बनाने में बहुत विवेक से काम लेने की आवश्यकता है। देश के हर जिले में एक औद्योगिक क्षेत्र  हो जहां उस क्षेत्र में पैदा होने वाले कृषि उत्पादों की प्रोसंसिंग के लिए इकाईओं की स्थापना को प्राथमिकता दी जाए। हर जिले में शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन की आधुनिक सुविधाएं सुनिश्चित की जाए। स्वतंत्रता के अड़सठ वर्षों बाद भी कम से कम एक इंजीनियरिंग कालेज, मेडिकल कालेज, आईटीआई हर जिले में न होना हमारे विवेक और श्रमशीलता पर प्रश्नचिन्ह है। इस असफलता का मुख्य कारण विरोध के लिए विरोध की मानसिकता का लगातार फलना-फूलना ही है। यह विशेष रूप से स्मरणीय है कि कभी बंगाल में टाटा कार बनाने के लिए स्थापित किये जा रहे कारखाने का जबरदस्त विरोध कर उसे राज्य से खंदेड़ने में सफल रही नेता नेे मुख्यमंत्री बनने बाद में स्वयं उसे अपनी गलती माना था। क्योंकि सत्ता में आने के बाद उन्हें विकास के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने की सार्थकता समझ में आई। यह स्थिति केवल बंगाल की नहीं, सारे देश की थी और अब भी है। 
हर छोटे बड़े नगर से गांव तक का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिए रोजगार के अवसर बढ़ाने को सभी  आवश्यक मानते है। सभी इस बात से भी थोड़े हेरफेर के साथ सहमत है कि बढ़ती जनसंख्या की जरूरते पूरे करने के लिए कृषि पर निर्भरता की सीमा है। अतः औद्योगिक विकास ही एकमात्र विकल्प है और उसके लिए भूमि चाहिए। सड़क के लिए भूमि चाहिए। स्कूल, कालेज, अस्पताल, आधुनिक आवास, बेहतर सुविधाओं के लिए भूमि चाहिए। लेकिन राजनीति की अपनी विवशताएं हैं।  विरोध पक्ष को भी जमीन चाहिए। वह अपनी जमीन तैयार करने के लिए विकास के रोडमैप को कुचलता है तो उसे रोकने वाला कोई नहीं।
क्या बदलते परिदृश्य में हमें  घात-प्रतिघात की राजनीति को तिलांजलि  देनी चाहिए? यदि हम विवेकशील हैं तो हमारा उत्तर निश्चित रूप से सकारात्मक ही होगा। तब ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयस’ अथवा अन्य किसी भी संस्था का अगला अध्ययन केवल महानगरों  का ही नहीं सम्पूर्ण देश की गुलाबी तस्वीर प्रस्तुत करेगा। ... और दुर्भाग्य से यदि हम राष्ट्रीय एकता, खुशहाली और स्वाभिमान के महत्व को समझने में असफल रहे तो  प्रदूषित, अविकसित, पिछड़े, सूची को बढ़ाती रहेगी। सौ तो क्या हजार स्मार्ट सिटी भी हमें स्मार्ट नहीं बना सकती।-- विनोद बब्बर

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