परिवार में निहित हैं विश्व मंगल के सूत्र
परिवार पर विचार रखने से पूर्व अपने एक अनुभव की चर्चा करना चाहूंगा। कुछ वर्ष पूर्व उत्तरांचल में एक पहाड पर चढ़ाई करते हुए मैंने देखा, एक 8-10 साल की बच्ची एक बच्चे को पीठ पर लादे चढ़ाई कर रही है। बच्चा कुछ स्वस्थ था इसलिए वह बार- बार नीचे खिसक जाता था। बच्ची रूकती, उसे ऊपर को व्यवस्थित करती और फिर से आगे बढ़ती। एक नहीं, अनेको बार ऐसा हुआ। मैंने उस बच्ची से पूछा- ‘भारी है क्या?’ बच्ची ने फौरन मेरी तरफ आंखे तरेरी, ‘नहीं, भाई है।’ मैं हैरान कि इस छोटी सी बच्ची ने मुझे जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाया जो दुनिया के किसी स्कूल, कालेज के पाठ्यक्रम में शामिल नहीं है। यह है परिवार की नींव।
जहां तक मैं समझा हूं- ‘मैं’ से ऊपर उठने का नाम परिवार है। आत्मकेन्द्रित व्यक्ति और परिवार परस्पर विरोधी परिस्थितियां है। परिवार के कई रूप हो सकते हैं लेकिन उसका विस्तार अनन्त तक है। समाज परिवार का प्रथम विस्तार है। राष्ट्र परिवार की अगली सीढ़ी है लेकिन अन्त नहीं है क्योंकि भारतीय दर्शन ‘वसुधैव कुटबम्’ सम्पूर्ण विश्व को परिवार घोषित करता है। हम तो उन पितरो को भी तर्पण करते है जिन्हें हमने कभी देखा नहीं। उनका नाम तक नहीं जानते। इस तरह हमारे परिवार का विस्तार सम्पूर्ण ब्रह्मांड है। वास्तव में परिवार हजारो वर्ष की परम्पराओं का संरक्षक है। पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पूर्वजों से प्राप्त संस्कारों को हम अगली पीढ़ी को सौपते है। जब हम दिवाली मनाते हैं तो हम स्वयं को अध्योया के उत्सव के उस क्षण से जोड़ते हैं जो श्रीराम के वनवास से वापस लौटने पर मनाया गया था।
जब हम ‘मैं’ से आगे बढ़ते हैं तो सबसे पहले स्वार्थ की बलि दी जाती है। दुनिया की कोई मां अपने बच्चे को भूखे रखकर स्वयं भोजन ग्रहण नहीं कर सकती। हर पिता अपने बच्चों को खुद से अधिक योग्य बनाने के लिए कोई कसर बाकि नहीं रखता है। त्याग, समर्पण, स्नेह का नाम है परिवार। परिवार समाज की प्रथम पाठशाला है। जहां स्तनपान कराते हुए माँ लोरी सुनाती है तो संस्कृति का एक अध्याय उसे पढ़ा रही होती है। वह संस्कृति जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ का उद्घोष करती है। उस बच्ची ने यही तो किया। यही सिखाया। पर पीड़ा को महसूस करना। उसके निराकरण के लिए कुछ करने की छटपटाहट का नाम है परिवार। जो विवाह और सन्तानोपत्ति के बाद भी ‘मैं’ को तिरोहित नहीं कर पाते वे साथ रहकर भी परिवार की अवधारणा से दूर रहते है। ऐसे लोग ही इस संस्था की असफलता का कारण है।
आज के दौर में तेजी से दौड़ती जिन्दगी की सफलता व्यक्ति और परिवार की कर्मनिष्ठा पर निर्भर है। जीवन के हर मोड़ पर हो रही प्रतिस्पर्द्धा में वही आगे बढ़ सकता है जो विवेकपूर्ण निर्णय लेकर सावधानी से आगे बढ़ता है। परिश्रम से साधन और शक्ति का सृजन होता है, जिससे परिवार सुखी और जीवन उत्कृष्ट बनता है। परिवार में प्रत्येक सदस्य का अपना महत्व होता है। सबके व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों से ही वह सुचारू रूप से आगे बढ़ता है। मां की ममता, प्यार-दुलार, पिता का नियोजन-निर्देशन- नियंत्रण और भाई-बहनों का सहयोग-सेवा- समर्पण परिवार को स्वर्ग बनाते है। कोई परिवार तब धन्य होता है, जब उसके सदस्य श्रेष्ठ कार्य करते हैं और अपने उत्तम व्यवहार से सबका दिल जीत लेते हैं। सफलता उस परिवार की चिरसंगिनी बन जाती है। धन, यश प्राप्त होता है। यह तभी संभव है, जब परिवार के सदस्य सहृदय, सरल, सदाचारी, समर्थ, साहसी, संस्कारवान तथा विवेकवान हों।
परिवार शब्द परि और वार से मिलकर बना है। परि का अर्थ है चारो ओर। वार के अनेक अर्थ हो सकते हैं। आंगल भाषा में भी war (युद्ध) है। बहुत संभव है परिवार के सदस्यों में मतभिन्नता हो। असहमति हो। यदाकदा कहा-सुनी भी हो सकती हो। शायद उससे ज्यादा भी हो। लेकिन परिवार हमें सिखाता है कि उसके बावजूद वार नहीं करना बल्कि अपना श्रेष्ठ उनपर वार (न्यौछावर) कर उसे सद्मार्ग पर लाना है। त्याग- समर्पण की यह गोंद परिवार ही नहीं समाज और राष्ट्र को सशक्त एवं प्रतिष्ठित बनाती है।
पारिवारिक जीवन बनाम गृहस्थ आश्रम की व्यवस्था देने हमारे दूरदर्शी मनीषियों का मंतव्य केवल वंश संचालन, जीवन प्रवाह बनाये रखने और एक दूसरे के दुःख में साथ देकर अपने परिजनों के साथ बेहतर ढ़ंग से जीवन-यापन करना ही नहीं होगा। उनकी परिकल्पना में मनुष्य को आत्म-कल्याण, सामाजिकता, विश्व बंधुत्व से जोड़ना भी रहे होंगे। अतः परिवार को त्याग, उदारता, सहयोग एवं स्नेह की सुगंध वाला पुष्प कहा जा सकता है। जिनमें अनुशासन, शिष्टाचार, सदाचार, नियम एवं मर्यादाओं की पंखुड़ियां भी हैं। यह आत्म-विकास का मधुवन है। जिसे स्नेह और श्रद्धा की खाद चाहिए। सद्भावना रूपी गंगाजल चाहिए। वातावरण में शालीनता, सहजता और सौमनस्यता हो तो धरती पर स्वर्ग की परिकल्पना साकार हो उठती है। पारिवारिक जीवन में अपने उत्तरदायित्वों का शुद्ध संसाधनों से निर्वहन से बड़ी साधना, उपासना वर्तमान में शायद ही कोई हो।
मनुष्य को सामाजिक प्राणी, सोशल एनिमल कहा गया है। अगर उसमें से सामाजिकता निकाल दो तो एनिमल ही बचेगा। आज जब हम सामाजिक अपराधांे की बात करते हैं। निर्भया जैसे कांड पर आंसू तो बहाते हैं परंतु उसकी जिम्मेवारी लेने को कोई तैयार नहीं है। हमें अपने आपसे पूछना चाहिए कि क्या हमने अपने बच्चे को सामाजिकता सिखाई? क्या उसे पूर्वजों से प्राप्त धरोहर को आगे बढ़ाया? नहीं क्योंकि हमारे पास समय ही नहीं है। हम तो भौतिक जरूरते ंपूरी करने में लगे है। कहीं- कहीं तो पति-पत्नी दोनो ही कामकाजी है। ऐसे में उन्हें संस्कार कौन दे? और क्यों दे?? क्या कोई नहीं है जो यह कर्तव्य निभा सके? है,, बिल्कुल है। बल्कि है नहीं, हैं। लेकिन कहा हैं? अगर हम ज्यादा पढ़ लिख गये हैं। ज्यादा आधुनिक हो गये है। तो हो सकता है ये ‘हैं’ ओल्डहोम में हों। वहां न हो तो शायद गांव में हों। कहीं अकेले। सब कुछ होते हुए भी बेबस। अजीब बात है। आवश्यकता भी है और उपलब्धता भी है फिर भी परिवार का दायित्व निर्वहन अधूरा है! विचार करे कि कहीं हम अपनी आजादी के लिए आने वाली पीढ़ी को मानसिक गुलामी तो नहीं दे रहे हैं? अगर हम आज मौन रहे तो कल अपराधबोध हमे छोड़ने वाला नहीं है। ध्यान रहे परिवार की रीढ़ है हमारे बुजुर्ग और हमारी मातृशक्ति। जिस परिवार में मातृशक्ति का सम्मान नहीं, वह परिवार नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में रामचरित मानस को एक प्रसंग हैं। 14 वर्ष के वनवास के बाद राम जी एक दिन अयोध्या में एक पेड़ के नीचे बैठकर अपने तीनों भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न को जीवन में देश, समाज और परिवार का महत्व समझा रहे हैं कि समाज और राष्ट्र का हित सबसे बड़ा है। हर परिवार को उसके बारे में सोचना चाहिए। जब तक हम दूसरे की पीड़ा और व्यथा नहीं समझेंगे, राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। राम कहते हैं - परहित सरिस धरम नहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं अधमाई।। अर्थात् दूसरों के हित और सुख से बढ़कर कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने से बड़ा कोई पाप नहीं।
ईट पत्थरों से मकान बनते हैं, घर नहीं। भौगोलिक सीमाओं से राज्य बनते हैं, राष्ट्र नहीं। ठीक इेसी प्रकार से कुछ लोगों के साथ रहने से परिवार नहीं बना करते। जहां स्नेह, सद्भावना हो, एक-दूसरे के दर्द का अहसास हो, सहयोग की भावना हो, जहां बच्चों की किलकारियां गूंजे तो बुजुर्गों के अनुभव का भी सम्मान हो। जहां हृदय में संवेदना हो। व्यवहार में उल्लास, उत्साह हो। उस समुह को परिवार कहा जा सकता है। दूसरे अर्थाें में कहे तो इंसानों के प्रेमपूर्ण मिलन से परिवार बनता है और परिवारों के व्यवस्थित समूह को समाज कहते हैं। श्रेष्ठ समाज ही किसी विकसित और प्रगतिशील देश का आधार बनता है। लोगों की भीड़ परिवार या समाज नहीं हो सकते। हां, यह भी सत्य है कि परिवार केवल रक्त संबंधों से ही नहीं बनता। विचार भी परिवार का आधार होता है। दुनिया, विशेष रूप से भारत में अनेक विचार परिवार भी है। संघ परिवार, स्वाध्याय परिवार, गायत्री परिवार आदि, आदि। ये परिवार ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ विश्व मंगल की कामना से निस्वार्थ भाव से कार्यरत हैं। मेरी इस अवधारणा में मित्र भी शामिल हैं। मित्र वह नहीं जो बसंत बहार देखकर आया हो। वह भी नहीं जिसकी चर्चा रहीम करते हैं- ऐ रहीम दर दर फिरी, मांगी मधुकरि खाही। यारो यारी छोडिये, वे रहीम अब नाहीं।। परिवार का सदस्य तो वह मित्र है जो ‘कुपथ निवार, सुपथ चलावा’ का अनुगामी हो। जो ‘बल अनुमान सदा हित करिहैं’ में विश्वास रखता हो। ‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परखिहिं चारी’ प्रमाण है कि मित्र परिवार की परिधि से बाहर नहीं हो सकता। लेकिन समस्या यह है कि आज ऐसे परिचित तो बहुत हैं जो स्वयं को मित्र घोषित करते हैं परंतु जिनके चित्त निर्मल न हो वे मित्र अथवा दोस्त हो ही नहीं सकते। जिसे अच्छा और सच्चा मित्र मिल जाये उसका विस्तृत परिवार प्रसन्न, संतुष्ट रहता है। मेरा मानना तो यह है कि पिता- पुत्र में भी मित्रवत संबंध होने चाहिए। भाई-भाई मित्र हो। संबंधों में खुलापन और पारदर्शिता होनी चाहिए। जब हम खुलेपन की बात करते हैं तो उसे नंगापन मान लिया जाता है। वैश्वीकरण को वेश्यायीकरण में बदलने वाले मित्र और मर्यादा को विरोधी समझते है जोकि गलत ही नहीं घोर आपत्तिजनक है।
ध्यान रहे परिवार का कोई विकल्प नहीं है। परिवार एक संकल्प है। आओ हम सब अपने समाज, अपने राष्ट्र और अपनी संस्कृति के संरक्षण परिवार के बारे में सोचे क्योंकि भारतीय संस्कृति केवल और केवल परिवार की नींव पर टिकी है। आज पूरा विश्व आशा भरी निगाहों से हमारी ओर देख रहा है। पोप लिव इन रिलेशन वालों को परिवार का महत्व बता रहे हैं। पश्चिम की एक कम्पनी अपने कर्मचारियों को विवाह के समय 10 लाख दे रही है मगर उसमें शर्त है कि वे 25 वर्ष तक अलग नहीं होगे। क्योंकि वे भी समझ चुके है कि विश्व शांति की नींव परिवार की स्थिरता और शांति में है। मनौवैज्ञानिकों का मत है कि दुनिया का हर अपराधी परिवार की असफलता का प्रतिफल है। जो परिवार अपनी अगली पीढ़ी को संस्कार नहीं दे सकते वे ही अशांति के कारक है।
ध्यान रहे परिवार का कोई विकल्प नहीं है। परिवार एक संकल्प है। आओ हम सब अपने समाज, अपने राष्ट्र और अपनी संस्कृति के संरक्षण परिवार के बारे में सोचे क्योंकि भारतीय संस्कृति केवल और केवल परिवार की नींव पर टिकी है। आज पूरा विश्व आशा भरी निगाहों से हमारी ओर देख रहा है। पोप लिव इन रिलेशन वालों को परिवार का महत्व बता रहे हैं। पश्चिम की एक कम्पनी अपने कर्मचारियों को विवाह के समय 10 लाख दे रही है मगर उसमें शर्त है कि वे 25 वर्ष तक अलग नहीं होगे। क्योंकि वे भी समझ चुके है कि विश्व शांति की नींव परिवार की स्थिरता और शांति में है। मनौवैज्ञानिकों का मत है कि दुनिया का हर अपराधी परिवार की असफलता का प्रतिफल है। जो परिवार अपनी अगली पीढ़ी को संस्कार नहीं दे सकते वे ही अशांति के कारक है।
और अंत में मैं अपनी स्वर्गीय मां को श्रद्धा से स्मरण करना चाहूंगा जो अक्सर कहा करती थी- ‘अच्छे से तो सब निभा लेते हैं पर अच्छा वह होता है जो सबसे निभाता है। बेटा तू अच्छा बन।’
डा. विनोद बब्बर ( 09458514685, 09868211 911) द्वारा परिवार पर केंद्रित संगोष्ठी दिया गया बीज वक्तव्य
परिवार में निहित हैं विश्व मंगल के सूत्र
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परिवार पर आपका यह व्याख्यान अनुकरणीय है. परिवार के विभिन्न व्यवहारिक स्वरूपों पर सामयिक दृष्टिकोण... काश! परिवार के तमाम स्वरूपों में सदस्य एक दुसरे के प्रति जवाबदेह भी हों. हार्दिक साधुवाद...
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