इस पार, उस पार
पिछले दिनों हमारे एक मित्र की जीवनसंगिणी का देहावसान हो गया। उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए गुरुद्वारे में आयोजन था। हमेशा की तरह समय से पूर्व पहुंचा। विशाल हाल में दीवान सजा था। जाने वाली देवी का चित्र श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के सम्मुख था। आसपास कुछ उदास चेहरे भी थे तो शीघ्र ही पूरा हाल भर गया। उसी हाल के एक कोने में एक छोटे से कक्ष में लगातार हलचल थी। बीच-बीच में कैमरे चमक रहे हैं। जब वे पीछे के द्वार से बाहर निकले तो उनके हाथों में फल के टोकरे और मिठाई के डिब्बे थे। उन चेहरों पर उल्लास था। कुछ खुशी से झूम भी रहे थे। उनके जाने के बाद एक दूसरा ग्रुप आ गया। फिर वहीं उल्लास। वहीं खुशियां।
मुख्य हाल में जो सभी रिश्ते नाते छोड़कर, सभी से मुख मोड़कर अनन्त की यात्रा पर जा चुकी थी, उनके गुणों और उनकी सेवाओं को स्मरण किया जा रहा था। तो इस छोटे कक्ष में संसार को आगे बढ़ाने के लिए नये रिश्ते जोड़े जा रहे थे। शायद रिश्ते जोड़ने से पहले गण और गुण मिलाने की कोशिश वहां भी जरूर की गई होगी। इन गुणों में कितने गुण सजावटी है और कितने बनावटी यह तो बाद में पता चलेगा लेकिन इस पार जिन गुणों को याद की जा रही थी। अनेक आंखों के आंसू और उदास चेहरे उनके ‘असली’ होने की गवाही दे रहे थे। गुणों का स्वाद और गुणों की कामना के बीच केवल एक मोटे लेकिन पारदर्शी शीशे की दीवार थी।
संसार के ये दो आवश्यक दृश्य टाले नहीं जा सकते। महाभारत के पश्चात चारो ओर भयावह दृश्य था। शवों के ढ़ेर तों कहीं आग। उस आग में भी टिटहरी के अण्डे सुरक्षित रहे। महाभारत के बाद भूख से व्याकुल गांधारी का शवों पर चढ़कर ऊंचे पेड़ से फल तोड़ना प्रमाण है कि मृत्यु संसार का रास्ता नहीं रोक सकती। अण्डों का सुरक्षित रहना ही निरन्तरता की गारंटी है। जीवन का थक जाना, थम जाना उतना ही स्वाभाविक है, जितना कली का फूल बनना। फूल का अपनी सुुगंध बिखरना। उस पारदर्शी शीशे के उस पार कली से फूल बनकर अपनी सुगंध फैलाने की आपेक्षाएं थी तो इस पार एक फूल के झड़ जाने के बाद भी उसकी सुगंध को महसूस किया जा रहा था। ऐसे में कैसे कहा जा सकते है कि सुगंध नश्वर है। जब सुगंध नश्वर नहीं तो संसार नश्वर कैसे हो सकता है? इतिहास साक्षी है, आवागमन होता रहा है। होता रहेगा। परंतु सद्कर्मो की सुगंध शाश्वत है।
नीरज जी ने इस संबंध में क्या खूब कहा है-
कफन बढ़ा तो किस लिए नजर तू डबडबा गई
सिंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गई
न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ बात है
किसी की आंख खुल गई, किसी को नींद आ गई।
दुनिया लाख कहे। कहती रहे कि ‘संसार नश्वर है’, ‘संसार मिथ्या है’ लेकिन सत्य तो यह कि मिथ्या तो भ्रम है। वह भ्रम जो हम पाप, अपराध, झूठ, हेराफेरी करते समय अपने मन में रखते हैं, ‘मुझे कोई नहीं देख रहा है। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा’ हमें भ्रम है कि हमारे पाप और परमात्मा के बीच की दीवार पारदर्शी नहीं है। वह हमारे केवल दुःखों को ही देखता है क्योंकि हम अपने दुःखों की नुमाईश लगाते हैं। खूब बढ़ा-चढाकर प्रदर्शित करते है। जरा से दर्द में लम्बे-लम्बे आंसू और जार-जार रोते बहाते हुए उसे बार-बार पुकारते हैं। परंतु अपने पाप छिपाते हैं। हम खुद को चतुर समझते है इसीलिए परमपिता के सामने अपने स्वाभाविक रूप में नहीं आते। बिल्कुल दुर्योधन की तरह जो अपनी माता गांधरी के सामने स्वाभाविक रूप में नहीं आया। जिसका परिणाम यह हुआ कि उसका सम्पूर्ण शरीर वज्र नहीं हो सका और........!
पूजा-उपासना पद्धति कोई भी हो, सभी परपीड़ा को अपने हृदय में अनुभव करते हुए मानवता की सेवा करने और अपने सदृगुणों की सुगंध सर्वत्र फैलाने की सीख देते है। यदि कोई धर्म ऐसा रोकता है तो वह कुछ भी हो परंतु धर्म हो ही नहीं सकता। मानवता ठीक उस पारदर्शी शीशे की तरह है जो न केवल इस पार बल्कि उस पार से दिखती है। खुद को ही नहीं, सभी को भी। इतिहास से लोकश्रुति तक सर्वत्र उसी शीशे का विस्तार है। उसी शीशे की अनन्त परछाईयां है। हमारे स्वभाव को प्रदर्शित करते शीशे का अनन्त प्रभाव है।
इस संसार रूपी रंगमंच पर रिश्तांे का जुड़ना या रिश्ते निभाने वाले पात्र का विश्राम के लिए अनन्त में विलिन हो जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना स्मृतियों से विलुप्त हो जाना है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बाद भी हमारी स्मृति रहे लेकिन वाणी और व्यवहार ऐसा कि होते हुए भी कोई याद न करें। संसार को चलते जाना है। चलते जाना है। चलते-चलते इतना और कहना चाहूंगा- ‘सबको बुरा कहो, जरूर कहो। परंतु यह इतना अहसास अवश्य रहेे कि सबको बुरा कहकर खुद को अच्छा किससे कहलवाओंगे?’ - विनोद बब्बर
मुख्य हाल में जो सभी रिश्ते नाते छोड़कर, सभी से मुख मोड़कर अनन्त की यात्रा पर जा चुकी थी, उनके गुणों और उनकी सेवाओं को स्मरण किया जा रहा था। तो इस छोटे कक्ष में संसार को आगे बढ़ाने के लिए नये रिश्ते जोड़े जा रहे थे। शायद रिश्ते जोड़ने से पहले गण और गुण मिलाने की कोशिश वहां भी जरूर की गई होगी। इन गुणों में कितने गुण सजावटी है और कितने बनावटी यह तो बाद में पता चलेगा लेकिन इस पार जिन गुणों को याद की जा रही थी। अनेक आंखों के आंसू और उदास चेहरे उनके ‘असली’ होने की गवाही दे रहे थे। गुणों का स्वाद और गुणों की कामना के बीच केवल एक मोटे लेकिन पारदर्शी शीशे की दीवार थी।
संसार के ये दो आवश्यक दृश्य टाले नहीं जा सकते। महाभारत के पश्चात चारो ओर भयावह दृश्य था। शवों के ढ़ेर तों कहीं आग। उस आग में भी टिटहरी के अण्डे सुरक्षित रहे। महाभारत के बाद भूख से व्याकुल गांधारी का शवों पर चढ़कर ऊंचे पेड़ से फल तोड़ना प्रमाण है कि मृत्यु संसार का रास्ता नहीं रोक सकती। अण्डों का सुरक्षित रहना ही निरन्तरता की गारंटी है। जीवन का थक जाना, थम जाना उतना ही स्वाभाविक है, जितना कली का फूल बनना। फूल का अपनी सुुगंध बिखरना। उस पारदर्शी शीशे के उस पार कली से फूल बनकर अपनी सुगंध फैलाने की आपेक्षाएं थी तो इस पार एक फूल के झड़ जाने के बाद भी उसकी सुगंध को महसूस किया जा रहा था। ऐसे में कैसे कहा जा सकते है कि सुगंध नश्वर है। जब सुगंध नश्वर नहीं तो संसार नश्वर कैसे हो सकता है? इतिहास साक्षी है, आवागमन होता रहा है। होता रहेगा। परंतु सद्कर्मो की सुगंध शाश्वत है।
नीरज जी ने इस संबंध में क्या खूब कहा है-
कफन बढ़ा तो किस लिए नजर तू डबडबा गई
सिंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गई
न जन्म कुछ, न मृत्यु कुछ बस इतनी सिर्फ बात है
किसी की आंख खुल गई, किसी को नींद आ गई।
दुनिया लाख कहे। कहती रहे कि ‘संसार नश्वर है’, ‘संसार मिथ्या है’ लेकिन सत्य तो यह कि मिथ्या तो भ्रम है। वह भ्रम जो हम पाप, अपराध, झूठ, हेराफेरी करते समय अपने मन में रखते हैं, ‘मुझे कोई नहीं देख रहा है। मेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा’ हमें भ्रम है कि हमारे पाप और परमात्मा के बीच की दीवार पारदर्शी नहीं है। वह हमारे केवल दुःखों को ही देखता है क्योंकि हम अपने दुःखों की नुमाईश लगाते हैं। खूब बढ़ा-चढाकर प्रदर्शित करते है। जरा से दर्द में लम्बे-लम्बे आंसू और जार-जार रोते बहाते हुए उसे बार-बार पुकारते हैं। परंतु अपने पाप छिपाते हैं। हम खुद को चतुर समझते है इसीलिए परमपिता के सामने अपने स्वाभाविक रूप में नहीं आते। बिल्कुल दुर्योधन की तरह जो अपनी माता गांधरी के सामने स्वाभाविक रूप में नहीं आया। जिसका परिणाम यह हुआ कि उसका सम्पूर्ण शरीर वज्र नहीं हो सका और........!
पूजा-उपासना पद्धति कोई भी हो, सभी परपीड़ा को अपने हृदय में अनुभव करते हुए मानवता की सेवा करने और अपने सदृगुणों की सुगंध सर्वत्र फैलाने की सीख देते है। यदि कोई धर्म ऐसा रोकता है तो वह कुछ भी हो परंतु धर्म हो ही नहीं सकता। मानवता ठीक उस पारदर्शी शीशे की तरह है जो न केवल इस पार बल्कि उस पार से दिखती है। खुद को ही नहीं, सभी को भी। इतिहास से लोकश्रुति तक सर्वत्र उसी शीशे का विस्तार है। उसी शीशे की अनन्त परछाईयां है। हमारे स्वभाव को प्रदर्शित करते शीशे का अनन्त प्रभाव है।
इस संसार रूपी रंगमंच पर रिश्तांे का जुड़ना या रिश्ते निभाने वाले पात्र का विश्राम के लिए अनन्त में विलिन हो जाना उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना स्मृतियों से विलुप्त हो जाना है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बाद भी हमारी स्मृति रहे लेकिन वाणी और व्यवहार ऐसा कि होते हुए भी कोई याद न करें। संसार को चलते जाना है। चलते जाना है। चलते-चलते इतना और कहना चाहूंगा- ‘सबको बुरा कहो, जरूर कहो। परंतु यह इतना अहसास अवश्य रहेे कि सबको बुरा कहकर खुद को अच्छा किससे कहलवाओंगे?’ - विनोद बब्बर
इस पार, उस पार
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जीवन से ईर्ष्या मिटे, रहें सदा खुशहाल,
ReplyDeleteमोह माया भी ना करे,जीवन को बेहाल 1
जीवन को बेहाल , सभी का ही सुख चाहेँ,
सद्व्यवहार से हों , हर्षोल्लास की राहें 1
पाठक देश समाज पे,वारें सब ही तन मन,
मंगलमयी नव वर्ष हो,लाए सुखमयी जीवन