शिक्षा को राजनीति नहीं, देशप्रेम चाहिए Cocktail of Poloticts & Education

यह केवल भारत में ही संभव है कि जेएनयू में संसद पर हमले के दोषी अफजल की बरसी पर कार्यक्रम के दौरान राष्ट्र विरोधी नारे लगाये गये। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत में भारत के ही एक विश्वविद्यालय के प्रांगण में भारत के विरुद्ध नारे लगाकर, भारत के टुकड़े-टुकड़े करने और भारतीयों को बाहर जाने के लिए कहना कुछ लोगों के लिए गलत नहीं है। दरअसल इन दिनों स्वयं को बुद्धिजीवी कहने वाले नित्य नई परिभाषाये रच रहे हैं। इसीलिए़ आतंकवादी और राष्ट्र द्रोहियों को गरीब या भटका हुआ कहकर बचाने की कोशिश होती है तो आतंकवाद का विरोध करने वाले को भाजपा का एजेंट घोषित किया जाता है। ऐसे करके ये ‘नासमझ’ बुद्धिजीवी खुद ही साबित कर रहे हैं कि केवल भाजपा ही आतंकवाद का विरोध करती है।
लोकतंत्र में सरकार को, व्यवस्था को, प्रधानमंत्री को, मंत्रियों को, विरोधियों को, दलों को, दलदलों को बुरा-भला कहने की बात समझी जा सकती है। उसका समर्थन भी किया जा सकता है। लेकिन अपनी ही जन्मभूमि का अहित करने की सोच रखने वाले ‘बुद्धिजीवी’ बेशक  हों पर मनुष्य नहीं हो सकते। जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर देशद्रोह का समर्थन करते हैं सबसे पहले उनकी मानसिक जांच कराना आवश्यक है। क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 19(1) के खंड अ से ए तक में स्पष्ट वर्णित है कि देश की एकता, अखंडता, शांति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न करना प्रतिबंधित है।
स्वयं को दुनिया का सबसे अधिक ज्ञानवान समझने वाली जमात के लोग जापान को भी पिछड़ा हुआ, मानवता का शत्रु  अथवा साम्प्रदायिक देश घोषित कर सकते हैं जहां बच्चों को सिखाया जाता है, ‘बुद्ध माता-पिता, बहन-भाई, मित्र-सखा सब से पहले हैं। लेकिन वही बुद्ध अगर हमारे देश पर हमला कर दें तो...?’ बच्चे बिना देरी उत्तर देते है, ‘मैं तलवार से भगवान बुद्ध का सिर काट लूंगा।’ अर्थात् राष्ट्रधर्म हर धर्म से बड़ा है। धन्य है ऐसी सोच! क्या उस छोटे से देश से हम राष्ट्रधर्म का सबक लेंगे या यह काम अक्ल के अंधे ही करेंगे? क्या ये पाकिस्तान जिन्दाबाद का नारा लगाने वाले नासमझ लोग पाकिस्तानी मूल के लेखक तारीक फतह के उस साक्षात्कार से कुछ सबक ले सकते हैं जिसमें उसने दावा किया है कि यहां की फिजां देखकर मैं यही कहूंगा कि हिंदुस्तान वाले जन्नत में रह रहे हैं।
लगता है जैसे सारी दुनिया में सिमट चुकी विचारधारा के लिए देश और संविधान का कोई अर्थ नहीं है। इसीलिए तो देश के सबसे मंदिर पर हमला करने वाले  आतंकवादी अफज़ल को निर्दाेष साबित करके देश की न्यायपालिका पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। ‘कुछ जज तय नहीं कर सकते कि अफजल दोषी है’ की आवाज बुलंद करने वाले ‘हैवान’ सर्वोच्च न्यायालय से बड़ा कैसे हुआ? ‘तुम एक अफजल मारेोंगे, घर-घर से अफजल निकलेगा’ के नारे लगाने वाले के वकील भूलते हैं कि यह इस देश का संविधान ही है जिसने उन्हें अभिव्यक्ति का अधिकार दिया है। जिसका दुरुपयोग करते हुए आप मातृभूमि से गद्दारी करने वालों को भी महिमामंडित कर रहे हों। क्या ये लोग 26/11 सहित सभी आतंकवादी घटनाओं को भुलाने के पक्ष में है जिसमे हजारों निर्दाेषों को अपने प्राण गंवाने पड़ें? क्या इनकी नजर में देश की अखंडता एवं संप्रभुता की रक्षा के लिए सैनिक, पुलिसकर्मी व अन्य सुरक्षा दलों के जवानों का बलिदान व्यर्थ था? अगर इनका उत्तर ‘हां’ है तो ये लोग भी कटघरे में खड़े करने के काबिल हैं।
ये उस विचारधारा के लोग है जिनके आकाओं ने 4 जून 1989 को थियानमेन स्क्वायर पर जमा हुए लोकतंत्र समर्थकों पर सैन्य कार्रवाई कर सैंकड़ों को मौत के घाट उतार दिया था। इन्हें समझाना चाहिए कि सरकार का विरोध और देश का विरोध दो अलग-अलग परिस्थितियां हैं। सरकार की नीतियों का विरोध, उसपर नीतियां बदलने के लिए दबाव बनाना इस देश के नागरिकों का लोकतांत्रिक अधिकार है लेकिन देश के विरूद्ध अभियान पर कोई भी सरकार मौन नहीं रह सकती। यदि वर्तमान सरकार ने दोषियों के विरूद्ध कार्यवाही की है तो यह उसका धर्म है। यदि वह ऐसा न करती तो उनकी कर्तव्य विमूढ़ता भी देशद्रोह ही कहलाती। ‘संविधान और देश की अखंडता का सम्मान करना सभी के लिए आवश्यक है’ यह स्पष्ट संदेश दिया जाना सर्वोपरि था, है और रहना चाहिए। अतः दोषियों के विरूद्ध की जाने वाली  कार्यवाही दिखावटी अथवा सजावटी न हो इसके लिए देशद्रोह जैसे जघन्य अपराध के लिए विशेष फ़ास्टट्रेक अदालत बनाई जानी चाहिए जो अधिकतम एक माह में अपना फैसला सुनायें।
यहां इस बात की पड़ताल भी आवश्यक है कि हमारे विश्ववि़द्यालयों का वातावरण शैक्षिकता से दूर क्यों जा रहा है। यह शिक्षा प्रणाली का दोष है या पाठयक्रम का? आखिर इसे संयोग क्यों माना जाये कि जब जेएनयू में देशविरोधी नारे लग रहे थे ठीक उसी समय जेएनयू का एक प्रोफेसर प्रेस क्लब में अफजल की बरसी पर कार्यक्रम कर रहा था और वहां भी देशद्रोही नारे लगे। कहीं ऐसा तो नहीं कि आज शिक्षा पर राजनीति हावी है। क्या  स्लेबस सेे अधिक जोर विचारधारा का घुट्टी पिलाने पर हैं? यदि ऐसा नहीं है तो क्या किसी शैक्षिक संस्थान के अधिसंख्यक छात्रों का एक विचारधारा विशेष से जुड़ना संयोग मात्र माना जा सकता है? आखिर क्या कारण है कि देशद्रोही अफजल की बरसी तो यहां मनाई जाती है पर देश के लिए बलिदान देने वाले हनुमन्त थप्पा जैसी सैनिकों को इतने उत्साह से स्मरण नहीं किया जाता? आखिर इब्राहिम गार्दी, अशफाकुल्ला खान, अब्दुल हमीद, अब्दुल कलाम  की स्मृति को नमन करते हुए इन्हें शर्म क्यों आती है? क्या शिक्षा और देशप्रेम में कोई वैर हो सकता है? खुद को बुद्धिजीवी कहलाने वालों को अपनी बौद्धिक विलासता का औचित्य स्पष्ट करना चाहिए कि निर्दोषों की जान लेने वालों के प्रति ही इनकी सहानुभूति क्यों उमड़ती है?
दुःखद आश्चर्य है कि जिस दल के शासन में अफजल को उसकी करनी की सजा दी गई, उस दल के युवराज  अपने पूर्वजों के कृत्य को कलंकित करने वाले ऐसे प्रदर्शनों को उचित ठहराते हैं। देशद्रोही आवाज में अपना शक्ति और स्वर मिलाकर वह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। उन्हें समझना चाहिए कि जिस तरह से देशभर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं वह इस बात की एक बार फिर से पुष्टि है कि घास की रोटी खाकर अपना स्वाभिमान बचाने वाले राणा प्रताप के वंशज उनके गैरजिम्मेवार रवैये को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे।  हर बात को राजनैतिक लाभ हानि अथवा वोटों के तराजू पर नहीं तोला जा सकता। संभव है कि वह इस सरकार को अपनी न मानते हों लेकिन उन्हें स्वयं में इतना विवेक विकसित करना चाहिए कि जिस देश और देश की जनता ने उन्हें और उनके पूर्वजों को सिर आंखों पर बैठाया वे सम्मान का हकदार है, उसके देशद्रोही नहीं। सरकारंे आती हैं, जाती हैं लेकिन देश सदा रहने वाला है। यह देश कांग्रेस, भाजपा, कम्युनिस्ट, सपा, किसी नेहरु अथवा किसी मोदी से बड़ा है। बड़ा रहना चाहिए।
किसी भी शिक्षा संस्थान की पहचान उसकी गुणवत्ता, शोध और अनुसंधान होना चाहिए न कि राजनैतिक विचारधारा। यह निर्विवाद सत्य है कि जेएनयू लगातार विवादों में हैं लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि उसे बंद कर दिया जाए अथवा इसे इसके हाल पर छोड़ दिया जाये। ‘न दैन्यम्, न पलायनम्’ को अंगीकार करते हुए निष्पक्ष लोगों को इसके भारतीयकरण का कार्य सौंपा जाये। न केवल यहां, बल्कि सभी को यह समझना चाहिए कि  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित नहीं हो सकती। जिस देश ने हमें पहचान दी, जिस संविधान ने हमें अधिकार दिये उसका सम्मान करना हम सबका प्रथम कर्तव्य है। हर व्यवस्था को चुस्त-चौकस करते हुए सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि जहां भी देशद्रोही होंगे वह स्थान चाहे शैक्षिक संस्थान हो या धार्मिक स्थल, किसी का घर हो या कार्यालय, वहां पुलिस अथवा सुरक्षा बलों को प्रवेश के लिए किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं है।
शिक्षा अनघढ़ पत्थर से तराश कर हीरा बनाने की प्रक्रिया है। अनुपयोगी को उपयोगी बनाना, आत्मकेन्द्रित को समाज केन्द्रित बनाना, आत्मसुधार एवं परिष्कार करते हुए समाज के वातावरण को और बेहतर बनाने का प्रशिक्षण ही  शिक्षा है। डिग्रियां, प्रमाण-पत्र प्राप्त करना भर शिक्षा की सार्थकता नहीं हो सकती। आधुनिकता और परंपरा का समन्वय, अपने पूर्वजों से प्राप्त श्रेष्ठ संस्कारों का संरक्षण करते हुए आधुनिक विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिक का ज्ञान अर्जन करना शिक्षा का प्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कर्तव्य होना चाहिए लेकिन वर्तमान यथार्थ इससे भिन्न है।
वर्तमान सरकार को लगभग दो वर्ष होने जा रहे हैं लेकिन आगामी सत्र में भी स्कूल से विश्वविद्यालय तक के पाठयक्रम में बदलाव संभव प्रतीत नहीं होता क्योंकि अब तक नई पुस्तकें आ जानी चाहिए थी। शिक्षा की विसंगति और इसे देश के यथार्थ से न जोड़ने के लिए आखिर हम कब मैकाले और गलत इतिहास लिखने वाले उसके मानसपुत्रों को कोसते रहेंगे? यदि यह कार्य अब तक नहीं हुआ तो इससे यह संकेत जाने से कैसे  रोका जा सकता कि  बड़ी-बड़ी बातें करने और वास्तविक बदलाव करने में अंतर होता हैं। क्या यह उचित समय नहीं होगा कि बिना राजनैतिक स्वार्थ की परवाह किये बिना केवल राष्ट्र-हित को सर्वोपरि मानते हुए शैक्षिक संस्थानों से राजनीति को निकाल बाहर किया जाए। छात्र संघ के चुनाव भी गैरराजनैतिक आधार पर हों। बाहरी तत्वों का प्रवेश विश्वविद्यालय परिसर में प्रतिबंधित किया जाए।
और हां,, बेशक मिडिया का एक वर्ग  पक्षपातपूर्ण व्यवहार कर रहा है लेकिन किसी को भी कानून को अपने हाथ में लेकर सीमा लांघने की अनुमति नहीं दी जा सकती। दोषी कोई भी हो उसे सजा मिलनी ही चाहिए।
 विनोद बब्बर संपर्क-  09458514685, 09868211911
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