मूर्खाध्यक्ष का अभिभाषण

आदरणीय पुराने मूर्खाध्यक्षों  
परम् आदरणीय आने वाले युग के मूर्खाध्यक्षों!
आज आप लोगों ने मुझे अपना अधिपति चुना। उसके लिए हृदय से न सही , जिव्हा से आभार प्रकट करने की औपचारिकता निभाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव जी के विषय में क्या कहूं,-
वे कर रहे हैं मुझ पर कुछ खास मेहरबानी
लगता है जैसे उनकी है दुश्मनी पुरानी।
बुलाया था मुझको घर पर, दो चुटकुले सुनाने
चुटकुला बनाकर, मुझको की दिल्लगी सुहानी।।
आँकड़े गवाह हैं कि आप लोगों ने मुझे 25वाँ मूर्खाधिपति चुना है। 25 यानि दो और पाँच। इसे जोड़ा जाए तो सात होता है।  सात यानि शुभ। अर्थात् अब मैं या मेरा क्लोन ही सदा मूर्खाधिपति बने रहेगें। किसी के हिलाने- डुलाने से मैं न हिलूंगा और न ही डिंगूंगा। 
आपने पहली बार दाढ़ी वाले पर भरोसा जताया है तो अकारण नहीं हो सकता। इसमें आपकी मजबूरी भी झलकती है। यानि जिस तरह अब तक हमारी अनदेखी की गई। मगर अब ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि आज मुम्बई दिल्ली ही नहीं सारी दुनिया पर दाढी वालों का शासन है। मुम्बई में ठाकरे, टीवी चैनलों पर बाबा ही बाबा, देश के प्रधानमंत्री भी तो लम्बी दाढ़ी वाले ही हैं। खुदा झूठ न बुलाये, तो सारी दुनिया पर राज करने वाले अमेरिका को भी जिसके ख्वाब से भी डर लगता है, वह भी तो दाढ़ी वाला ही है न लादेन।
जब एक कुवांरा प्रधानमंत्री रहा तब भी आपने नहीं सोचा। मगर अब पहली बार एक कुंवारे पर भरोसा जताया है। लगता है यह भी आपकी मजबूरी रही होगी क्योंकि जिस तरह से आप कन्या भ्रूण के पीछे हाथ धोकर लगे हैं, बहुत संभव है अगले सभी मूर्खाधिपति तो क्या, राष्ट्रपति भी मेरे जैसे ही हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। 
प्राचीन व्यवस्था के अनुसार 25 वर्ष तक का जीवन ब्रह्मचर्य आश्रम माना जाता था। मैं इस बात के लिए आपको बधाई देता हूँ कि 25वें वर्ष में ही सही, एक कुंवारे को गद्दी सौंपकर आपने अपनी गलती सुधार ली है। मुझे उम्मीद है कि अगले वर्ष भी आप अपना ब्रह्मचर्य तोड़ने से पहले इस बिन्दू पर विचार अवश्य करेगें।
आपने जो जिम्मेवारी सौंपी हैं मैं उसे पूरी ईमानदारी से निभाने की कोशिश करूंगा। मैं जो भी करूंगा, आपके लिए, समाज के लिए और राष्ट्र के लिए ही तो करूंगा। आखिर मैं ठहरा कुंवारा। अब आपके अतिरिक्त कौन है हमारा? 
आज जब मेरे सिर पर ताज बंधा है तो मुझे अपनी स्वर्गवासी माँ की याद आ रही है। वह बेचारी मुझे दुल्हा बना देखने का अरमान लिए इस दुनिया से चली गई। आज यदि वह यहाँ उपस्थित होती तो मेरे सिर पर रखे इस मुकुट को देख, पूरा नहीं तो अपना आधा अरमान पूरा होते देखकर जरूर प्रसन्न होती।
एक बात स्पष्ट करना चाहता हूँ- मुझे न फालतू घोषणाएं करनी हैं और न ही ताम-झाम। मैं बस एक ही काम करूंगा और वह कि अधिकाधिक लोगों को अपनी मूर्ख मंडली में शामिल करूंगा। मैं दावे के साथ इस बात को कह सकता हूँ कि जिस समाज में मूर्खों की संख्या अधिक होती है, वह समाज और वह देश उतनी ही उन्नति करता है। जरा सोचिये, कभी फिरंगियों से जिनका सूरज कभी अस्त नहीं होता था, उनसे आजादी कैसे मिली? स्पष्ट है कि तब बुद्धिमानों की संख्या कम, अनपढ़ों- मूर्खों की संख्या ज्यादा थी। जिधर हांक दिया उघर चल दिये। जहाँ डटा दिया गया, वह डट गये। न सोचने की क्षमता, न समझने की जरूरत। कट गये, मर गये लेकिन आजादी लेकर ही रहे। हाँ, यह बात अलग है कि उस समय भी जिन्ना सहित कुछ जरूरत से ज्यादा समझदारों ने खून की नदियाँ बहाकर भी इस देश के टूकड़े करवा कर ही दम लिया था। आज बुद्धिमानों की संख्या ज्रूादा हो जाने के कारण हम आए दिन आतंकवाद और उग्रवाद का दंश झेल रहे हैं क्योंकि हमे अपनी समझदारी ने बंधक बना लिया है। 
मैं भी रानी, तुम भी रानी। कौन भरे इस देश का पानी?
सभी चाहते हैं कि वीर क्रांतिकारी फिर से पैदा हो, लेकिन अपने नहीं, पड़ोसी के घर में। ऐसी समझदारी किस काम की? आजादी के बाद भी जब तक देश में मूर्खों की संख्या ज्यादा थी तब तक सरकारें पाँच साल आराम से चलती थी। ज्यों-ज्यों समझदारी बढ़ी, मेरा मतलब है, शिक्षा का प्रचार- प्रसार होता गया, मूर्खों की संख्या घटती गई। यही वजह है कि आज पंचवर्षीय चुनाव छमाही इम्तिहान बनकर रह गए हैं। पहले श्रमिक यूनियनें जो चाहती, प्रबंधन सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर देती थी। इसलिए ही न कि तब मुट्ठी भर नेता होशियार और ज्यादातर श्रमिक मूर्ख होते थे। कोई लाख कोशिश करे, परंतु वे न हिलते थे और न टूटते थे। ज्यों-ज्यों श्रमिक पढ़ने लिखने लगे, यूनियनें कमजोर होती गई। यही कारण है कि आज उनके अधिकारों को भी दबाया जाने लगा है। हमारी मान्यता है कि जिस समाज में जितने ज्यादा मूर्ख रहेंगे, उतने ही कम अधिकारों की मांग होगी। जब मांग कम होगी तो तनाव और आपसी झगड़े विवाद भी नहीं होंगे। आज देश की एकता अखण्डता पर जो आँच आ रही है उसके पीछे भी बुद्धिजीवियों का हाथ है। लोग भाषा, प्रांत, जाति, यहाँ तक कि नदियों- नालों को लेकर झगड़ रहे हैं। धत् तेरे की! जब पहले गाँवों में मूर्ख ज्यादा थे तो सब काम आपसी सहयोग से कर लेते थे। शहरों के दरवाजे और दिल प्रवासियों के लिए खुले रहते थे। उनका इंतजार रहता था। आज भी बस इतना सा बदलाव आया है कि कुर्सी की भूख समझदार होकर खामोश है। आखिर वोट बैंक का सवाल है। बुद्धिजीवी उसका लाभ उठाने लगे हैं। हर जह भ्रष्टाचार पनपने लगा है, आपसी सौहार्द्ध बिगड़ रहा है।
एक और बढ़ती जनसंख्या के कारण भूमि की कमी हो रही है तो दूसरी ओर जल के लिए मारा-मारी मची हुई है। जिस समझदार के घर सम्बरसिबल लगा है, वह खूब बहा रहा है और मूर्ख बेचारा टेंकर की इंतजार में सुबह से खड़ा है। जिस दिन हमारा यानि मूर्खों का बहुमत हो जाएगा  हम मिल जुलकर , तालाब- जोहड़ खोदेंगे। यह मजाक नहीं सच है। अरे जब बंदर-भालू समुद्र पर पुल बांध सकते हैं तो हम मूर्ख ही सही मनुष्य तो हैं। पाताल से पानी नहीं ला सकते हैं क्या?
यूं तो कहने करने को तो बहुत कुछ हैं लेकिन समय का भी तो ध्यान रखना है। पहली बार एक उपेक्षित मेरा मतलब कुंवारे, दाढ़ी वाले को ताज मिला है, अभी तो मुझे इस उपलब्धि पर मनभर रीझ लेने दो। आगे-आगे देखिये करता हूँ क्या। बस मुझ पर अपना विश्वास बनाये रखियेगा। और आज से ही मूर्खो की संख्या बढ़ाने में हर संभव सहयोग कीजिए। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि उस कुंवारी की तरह केवल अनी मूर्तियां लगवाकर आपको निराश नहीं करूंगा। मेरा प्रयास रहेगा कि नए-पुराने हर मूर्ख शिरोमणि की मूर्ति बीच बाज़ार लगे। मेरा एक ही स्वप्न है कि मूर्खों क संख्या बढ़ाकर इस देश में मूर्खतंत्र लागू करना। 
अंत में कहना चाहूंगा-
आज गगन मोहन सा छलिया, और धरा राधा सी बोली
द्वेष करें मन का प्रक्षालित, बन जाए फिर से हमजोली।
तन के साथ रंगे मन को भी, मर्यादित रह करें ठिठोली,
रंगों सा रंगीन हो जीवन, आओं सब मिल खेले होली।
जय मूर्ख! जय मूर्खतंत्र!! जय मूर्खों के भोले बाबा!!!
(27 फरवरी, 2011 को दिल्ली में आयोजित मूर्ख सम्मेलन में मूर्खाधिपति का पद ग्रहण करते समय विनोद बब्बर द्वारा दिया गया अभिभाषण)

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3 comments

  1. आने वाले समय के मूर्खतंत्र में कोई 'आरक्षण' नहीं होना चाहिए गुरुवर...
    || शुभ होली ||

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    1. आपकी तमन्ना पूरी हो गई। इस बार बलिया के अशोक द्विवेदी बने हैं मूर्खाध्यक्ष

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    2. हा हा हा ...
      ये पुरस्कार तो वाकई लाजवाब है.
      विभूतियों को नमन _/\_

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