स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी ने विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के क्रम में खादी के इस्तेमाल को राष्ट्र के अभिमान का चिह्न मानते हुए कपास उत्पादक किसानों और खादी वस्त्र तैयार करने वाले मजदूरों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से आवश्यक बताया था। गांधी के लिए ‘खादी वस्त्र नहीं विचार’ थी। जब खादी की अनगढ़ता और खुरदरापन को असुविधाजनक कहा गया तो गांधी का कथन था- ‘खादी को ऐसे प्यार करो जैसे कोई मां अपनी कुरूप सन्तान को करती है।’ कभी राष्ट्र कवि सोहनलाल द्विवेदी का गीत जन-जन का गीत बना-
खादी के धागे धागे में अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा अन्यायी का अपमान भरा,
इसी गीत की इन पंक्तियों-
खादी की रजत चंद्रिका जब आकर तन पर मुसकाती है,
तब नवजीवन की नई ज्योति अन्तस्तल में जग जाती है,
खादी तो कोई लड़ने का है जोशीला रणगान नहीं,
खादी है तीर कमान नहीं खादी है खड्ग कृपाण नहीं,
खादी को देख देख तो भी दुश्मन का दल थहराता है,
खादी का झंडा सत्य शुभ्र अब सभी ओर फहराता है!
लम्बे समय से खादी देशभक्तों, बुद्धिजीवियों का पहनावा रही है तो इसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं। इन्हीं कारणों ने खादी को अत्यंत पवित्र बना दिया पर आजादी के बाद राजनीति की कालिख ने खादी को भी नहीं छोड़ा तो सुप्रसिद्ध कवि डॉ. हरिओम पवार ने कहना पड़ा- ‘यहां शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला, डाकू ने खादी पहनी तो सम्मान मिला’ शायद कुछ लोगों को ये पंक्तियाँ अतिरंजित लगी हो लेकिन अनेकानेक परिस्थितियों के बाद जब एक राजनीतिज्ञ खुलेआम खुद को खादी वाला गुंडा बताये तो मानना ही पड़ता है कि धुएं के नीचे आग जरूर है।
दरअसल मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा जो भिंड जिले के पार्टी प्रभारी भी हैं, ने भिंड में एक सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘एक फिल्म आई थी वर्दी वाला गुंडा, लेकिन मैं सफेद वर्दी वाला गुंडा हूं। अब यहां किसी और की गुंडागर्दी नहीं चलेगी। न किसी अफसर की और न ही रेत माफिया की। सरकार ने इसीलिए मुझे यहां भेजा है और मैं पूरी तरह सक्षम हूं।’ उन्होंने आगे कहा कि जिले में एक ही दादा रहता है। आरोप यह भी है कि उनके समर्थकों ने हवाईं फायरिंग कर उनका स्वागत किया।
विपक्ष ने मंत्रीजी के इस बयान की निंदा की है तोे दूसरी ओर मंत्री समर्थकों का कथन है कि अनूप मिश्रा ने चिकित्सा महकमे के अफसरों को चेतावनी देते हुए कहा कि वो सरकार की योजनाओं को ईमानदारी से लागू करें. इसमें किसी ने लापरवाही बरती तो उसको छोडा नहीं जाएगा। अब यहां किसी और की गुंडागर्दी नहीं चलेगी. न किसी अफसर की और न ही रेत माफिया की. सरकार ने इसीलिए मुझे यहां भेजा है और मैं पूरी तरह सक्षम हूं।
जहाँ तक स्वयं को ‘खादी वाला गुंडा’ बताने की बात है, यह कोई पहला उदाहरण नहीं है जब किसी राजनीतिज्ञ ने खादी को बदनाम किया हो। पिछले ही दिनों उत्तर प्रदेश खादी एवं ग्रामोद्योग बोर्ड के उपाध्यक्ष एवं राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त नटवर गोयल लखनऊ में एक फोटो पत्रकार के साथ मारपीट कर जेल पहुंचे। वह फोटोग्राफर एक शासकीय सहायता प्राप्त कालेज को ढहाकर बनाई जा रही इमारत की फोटो खींचने गया था।
अभी बहुत दिन नहीं हुए जब किंगफिशर एयरलाइंस के मालिक विजय माल्या ने कहा था, ‘मुझे भारत में यह कडवी सीख मिली है कि अपनी धन संपदा का प्रदर्शन कतई नहीं करना चाहिए। खादी पहनने वाला अरबपति राजनीतिज्ञ होना इससे ज्यादा बेहतर है।’
इससे पूर्व वह झारखंड जहाँ एक जनजाति विशेष श्रद्धा के कारण आज भी खादी ही पहनती है। वहाँ खादी ग्रामोद्योग के नाम पर घोटाले हो सामने आए हैं। फर्जी बिलों आधार पर केंद्र और राज्य सरकार से भारी-भरकम अनुदान सीधे-सीधे पचा जाने की कहानी केवल उसी राज्य तक सीमित नहीं है, अनेक स्थानों पर ऐसा हो रहा है इसीलिए खादी गायब हो रही है। परिणाम स्वरूप आम आदमी से इसकी दूरी बढ़ रही है क्योंकि खादी की कीमत इतनी ज्यादा हो चुकी है कि उससे कई गुना कम कीमत पर बढ़िया कपड़े सहज उपलब्ध हैं। ऐसे में खादी खास होकर गई है। जब खादी खरीदना मुश्किल, उसे बिना प्रेस पहनना मुश्किल, धोना कठिन परंतु छोटे से छोटा ‘जनसेवक’ मजे से खादी पहन रहा है। हमारे पास के क्षेत्र का एक पार्षद जो कल तक फटेहाल था, आज उसके चमाचम खादी वस्त्र के कनाट प्लेस में धुलने की बात स्वयं उसी के साथी स्वीकारते हैं। स्पष्ट है कि उनके पास पार्षद के रूप में प्राप्त नाममात्र के भत्ते के अतिरिक्त भी कुछ रंग-बिरंगे स्रोतों से धन का प्रवाह होता है। जब यह आज की राजनीति का एक नंगा सत्य है तो समझा जा सकता है कि खादी की तरह राजनीति भी अच्छे यानिे आम आदमी की पहुँच से बाहर क्यों हैं।
गुलामी के दौर से पूर्व की भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था दस्तकार केन्द्रित थी। हर गाँव अपने आप में सम्पूर्ण इकाई था। कृषि और दस्तकारी परस्पर निर्भर थी। इस व्यवस्था को विदेशी लुटेरों ने नष्ट कर अपना साम्राज्य स्थापित किया। इस बात को समझा गया तभी तो गांधीजी ने गाँव एवं कुटीर उद्योग केन्द्रित योजनाएं बनाने का स्वप्न जगाया था जिसे स्वयं उन्हीं के परम शिष्यों ने अपने पैरो तले कुुचल दिया जबकि उससेें स्वाभिमान के साथ-साथ स्वरोजगार की सहज प्राप्ति हो सकती थी और हमारा देश अनेक समस्याओं से बच सकता था। सस्ती दर पर सर्वजन सुलभता के माध्यम से वर्गभेद का दुर्गभेदन भी संभव था परंतु आज खादी उस दर्शन से बहुत दूर जा चुकी है इसीलिए तो मध्यप्रदेश के मंत्री की ‘खादी वाले गुंडे’ स्वीकारोति चौंकाती नहीं लेकिन जाने-अनजाने सामने आया यह सत्य चिंतन की मांग अवश्य करता है कि आखिर आजाद भारत में हर नोट पर विराजमान गांधी के विचार को इस तरह अपमानित करने वालों के प्रति हमारा व्यवहार क्या होना चाहिए। क्या उस विचार को केवल सजावट की वस्तु बनाकर रखना उनके प्रति किसी श्रद्धा का प्रतीक माना जा सकता है? आज की राजनीति से त्रस्त लोगों को बहकाने के लिए ही क्या बार-बार देश के युवाओं और अच्छे लोगों से राजनीति में आने का आह्वान किया जाता है?
सोहनलाल द्विवेदी ने कहा थां -
खादी में कितने ही नंगों भिखमंगों की है आस छिपी,
कितनों की इसमें भूख छिपी कितनों की इसमें प्यास छिपी!
तो उनका अभिप्राय उस समय की परिस्थितियों से था। खादी लाखों लोगों की आशाओं का केन्द्र थी। गरीब, भूखे नंगों के पेट भरने की रोटी और तन ढकने की गारंटी थी लेकिन लगता है आज इन पंक्तियों के अर्थ बदल गये हैं। आज तन के नंगे भूखे नहीं, नीयत और नीति के भूखे नंगो का इससे नाता दिखाई देता है। बेशुमार दौलत, देशी- विदेशी बैंकों में अरबों-खरबों की सम्पत्ति के बाद भी उनके मन की प्यास शेष है। चरखा राजनीति वालो के लिए चर खा अर्थात चरने खाने का ठिकाना बन गया है
इसीलिए तो नेताओं के तन पर फड़फड़ाने वाली खादी आम आदमी के मन को आंदोलित नहीं करती। आज जब कोई सर्वोदयी कार्यकर्ता अथवा साहित्यकार भी खादी पहनकर निकलता है तो लोग उसे ‘नेताजी’ कहते हैं तो उसे अपना अपमान महसूस होता है। संसद से सड़क तक के अनुभवों पर गहन विचार करना समाजशास्त्रियों का कर्तव्य है। उन्हें राजनीति के प्रति बढ़ते आकर्षण के बावजूद राजनीतिज्ञों के घटते सम्मान के कारणों की तह तक जाना चाहिए। विचार करना चाहिए कि कहीं सेवा के माध्यम से व्यवसाय में बदलना ही तो राजनीति के पतन की परकाष्ठा और खादी के बार-बार हो रहे अपमान का कारण तो नहीं हैं? यह विडम्बना ही है कि जब बर्लिन में हुए शो से उत्साहित एक फैशन डिजायनर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हथकरघे से बने वस्त्रों की चमक बिखेरने की तैयारी कर रहा हो वहीं स्वयं खादीधारी अपने वचनं और कर्म से खादी की चमक फीकी रहे हैं। गांधी होते तो आज भी उनके मुंह से ‘हे राम’ ही निकलता। खादी के प्रति युवाओं की अरूचि देख् मेराज़ फैज़ाबादी का शेर सामने है-
चाँद से कह दो अभी मत निकल,
ईद के लिए तैयार नहीं हैं हम लोग।
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