सरकार ने खुदरा व्यापार में विदेशी कम्पनियों को अनुमति देने को अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाया और विपक्ष के लाख विरोध के बाद भी उसे मंजूरी दे दी। संसद में चर्चा के दौरान विरोध और वोट के दौरान बहिष्कार कर उसे पास करवाने वालों के नाटक को सारे देश ने देखा ही था कि एफ.डी.आई. मामला एक बार फिर से चर्चा में आ गया जब वालमार्ट ने खुद अपनी रिपोर्ट में कहा कि उसने लाबिंग पर 30 लाख डालर (125 करोड़ रुपये) खर्च किये हैं। जाहिर है कि इस बात पर संसद में गर्मी होनी ही थी। विपक्ष हाथ लगे इस मुद्दे को आसानी से छोड़ना नहीं चाहेगा। सरकार भी दबाव में आ गई तो उसे इस मामले की न्यायिक जाँच करवाने की घोषणा करनी पड़ी। वैसे अमेरिकी संसद में लाबिंग खर्च के बारे में दी गई जानकारी के खुलासे के बाद भारती वॉलमार्ट के प्रवक्ता ने अपने बयान में कहा, ‘ये आरोप पूरी तरह बेबुनियाद है। अमेरिकी कानून के अनुसार अमेरिकी कंपनियों को तिमाही आधार पर लाबिंग खर्च के बारे में ब्योरा देना होता है.’ बयान में कहा गया है कि ये खर्च कर्मचारियों, दूसरी देनदारियां, परामर्श तथा अमेरिका में दिये गये योगदान से संबद्ध है। सबसे पहले यह जाने कि लाबिंग आखिर है क्या। उद्योग व्यापार जगत में दलाल-दलाली, कमीशन -कमीशन एजेंट, मैनेजिंग एजेन्सी सामान्य और मान्य शब्दावली है. बिना इनके आर्थिक क्रियाकलाप चल ही नहीं सकते। आधुनिक युग में ‘लाबिंग और लाबिस्ट’ शब्द व प्रणाली जुड़ गई है. जैसे चिकित्सा विज्ञान में अब हर अंग और बीमारी के अलग-अलग शिक्षा व विशेषज्ञ हो गए हैं, उसी तरह व्यापार जगत में हर काम के लिये अलग-अलग विशेषज्ञ कंपनियां हो गई हैं।
हर किसान अपना अनाज सीधे ग्राहकों तक बेचने नहीं जा सकता. उसे अनाज के व्यापारी चाहिए. व्यापारियों को दूर दराज तक माल बेचने के लिये कमीशन पर कमीशन एजेन्ट चाहिए. इसी तरह अब राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर के विशाल व्यापार उद्योग को उनके लिये जन-संपर्क के साधन चाहिए. इनके लिये खुद का जन संपर्क डिपार्टमेंट छोटा और खर्चीला पड़ता है. अब विकसित देशों में ऐसे जनसंपर्क के लिये विशेषज्ञ कम्पनियां होती हैं, जो वकीलों की तरह अपने ‘क्लाइन्ट’ का पक्ष प्रचारित करती है। अमेरिका में यह लाबिंग कानूनी मान्यता का काम है. वहां के कानून में यह प्रावधान है कि सिनेट में जो भी लाबिंग होगी वह कम्पनी उसका हिसाब सिनेट को देगी।
भारत के लिए भी यह कोई नया शब्द नहीं है। बहुचर्चित नीरा राडिया मामले ने कई दिनों तक संसद से सड़क तक गर्मी बनाए रखी। तब भी बात यही थी कि राडिया द्वारा अनेक लोगों की लाबिंग की गई। उस समय तो कुछ लोगों कां मंत्री पद तथा अलंकरण सम्मान दिलवाने में उनकी भूमिका का उल्लेख भी था। उसके ग्राहकों में टाटा व अम्बानी कंपनियां थीं. उसने उनके दिये कामों में एक वकील की तरह उसके ग्राहकों का काम किया है. इसे दलाली भी कह सकते हैं। उसने इन कंपनियों से फीस व अन्य होने वाले खर्चे भी लिये होंगे।
आज बदलते परिवेश में लामबंदी (लाबिंग) को कानूनी रूप देने पर बहस जारी है। पिछले दिनों उद्योग चैंबर सीआईआई ने इस बारे में कहा है कि सौदेबाजी या अपना हित साधने के लिए लामबंदी करने वालों की तुलना में उनकी भूमिका अलग है। इसके लिए अमेरिका की तरह भारत में लाबिंग को कानूनी रूप देने की कोई जरूरत नहीं है।
अमेरिका में लामबंदी के लिए बाकायदा लाइसेंस जारी किया जाता है। इस पर सीआईआई के नए अध्यक्ष हरि एस. भरतिया ने कहा कि हम लामबंदी नहीं उद्योगों के हित में वकालत करते हैं। भरतिया के मुताबिक चौंबर नीति की रूपरेखा तैयार करने में मदद करते हैं। उद्योग संगठन और लामबंदी करने वाले समूहों के बीच भारी अंतर है। लाबिंग करने वाले मूल रूप से सौदेबाज होते हैं। वह अपने हित विशेष के लिए काम करते हैं। इससे पहले प्रमुख उद्योग चौंबर फिक्की के अध्यक्ष राजन मित्तल ने भी कुछ ऐसी ही राय जाहिर की थी।
बेशक लाबिंग के समर्थकों का दावा है कि लाबिंग का यह अर्थ नहीं कि वर्तमान एफ.डी.आई. के संदर्भ में वालमार्ट कंपनी ने अमेरिका में सिनेटरों या भारत में सरकार के मंत्रियों-अफसरों को आकर लिफाफे में डालर रखकर दिये हैं। वालमार्ट में कोई राजफाश या रहस्योद्घाटन नहीं हुआ है। उसने खुद अपनी रिपोर्ट में कहा कि उसने लाबिंग पर 30 लाख डालर (125 करोड़ रुपये) खर्च किये हैं। हम हर कमीशन व लाबिंग को रिश्वत का लेन-देन मान लेंगे तो हम आज के युग की प्रणाली को ही नहीं समझ रहे हैं।
दूसरी ओर भारतीय परिपेक्ष्य में लाबिंग का सामान्य अर्थ अपना काम करवाने के लिए ‘अनफेयर मीन’ इस्तेमाल करने जैसा है। ऐसा माना जाता है कि जिस व्यापार लाभ को प्राप्त करने की हम पात्रता नहीं रखते उसे प्राप्त करनी की क्षमता हमारे अंदर होनी चाहिए। यदि नहीं है तो कुछ पेशवेर लोगों जिन्हें सामान्य अर्थ में उच्च सम्पर्क वाले दलाल अथवा बिचौलिये कहा जाता है, उनकी सेवाएं प्राप्त कर अपना काम निकाला जाना है। इसे ठीक उसी प्रकार से माना जा सकता है जैसे राजीव गांधी के शासनकाल में बोफोर्स तोप के मामले में विन चड्ढ़ा की नोबेल कंपनी की भूमिका थी। तब आरंभ में सरकार ने कहा था कि बोफोर्स मामले में कोई बिचौलिया नहीं था। सबूत सामने आने पर कहा- बिचौलिया तो था लेकिन कमीशन का लेन-देन नहीं हुआ। कमीशन लेन-देन सिद्ध होने पर कहा गया- एजेन्ट े ली होगी, हमने किसी प्रकार की राशि नहीं ली। ऐसी लगातार बदलती बातों से ही बोफोर्स मामले को संदेहास्पद बनाया।
यह तथ्य अब कोई रहस्य नहीं नहीं कि बोफोर्स तोप के मामले में भारत सरकार ने यह शर्त रखी कि वह रक्षा सौदों में कंपनी से सीधे बात करती है तो उस कंपनी ने व्यापारिक नियमों व प्रेक्टिस में विन चड्ढ़ा के माध्यम से बात की थी। विवाद उठने पर नोबेल कंपनी ने कहा था कि उसने अपने प्रतिनिधि को ‘पेऑफ’ किया है. यह कोई रिश्वत या भ्रष्टाचार नहीं है।
यह सत्य है कि हर देश के अपने-अपने क्रियाकलाप होते हैं. हमें उनके संदर्भ में उसे समझना होगा। लाबिंग पश्चिमी देशों में आम प्रचलित व्यवहार है। उनके लिए इसका अर्थ संपर्क होता है- वह रिश्वत बांटना नहीं है. अमेरिका में बंदूक का लायसेंस नहीं होता तो क्या हम उन्हें अपनी व्यवस्था में ”अवैध हथियार’ कहेंगे। अमेरिका व यूरोप में ‘जुआ’ खेलना कोई अपराध नहीं है। लेकिन भारतीय परिपेक्ष्य में आज भी मान्यताएं अलग हैं। बेशक यह कहा जाता है कि आज दुनिया बहुत छोटी हो गई है लेकिन हम अभी अपनी मान्यताओं से बंधे हुए है। चूंकि इस प्रकार के कार्य हमारे समाज की दृष्टि में नैतिक नहीं माने जाते इसलिए जरूरी है कि बदलते परिवेश में इस शब्द को साफ तौर पर परिभाषित किया जाए। यह जरूरी नहीं कि हम दूसरे की मान्यताओं को बिना सोचे समझे अपने व्यवहार में ले आयें।
बहुचर्चित टू जी स्पेक्ट्रम के मामले में संचार मंत्री और उद्योगों के लिए लामबंदी करने वाले व्यक्ति के बीच हुई बातचीत कथित तौर पर मीडिया में लीक हो गई। इस पर आई रिपोर्टाे को लेकर विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। तब राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली की बात का जवाब देते हुए स्वयं गृहमंत्री पी. चिदंबम ने कहा था कि हमें इस पर विचार करना चाहिए कि लाबिंग करने वालों के साथ क्या किया जाना चाहिए। ऐसा नहीं माना जाना चाहिए कि पूरी सरकार ही लामबंदी करने वाले चला रहे हैं।
भारत में पहुंच बनाने के उद्देश्य से अमेरिका में अपने पक्ष में माहौल बनाने (लाबिंग ) के लिए वालमार्ट द्वारा धन खर्च करने की खबरों के परिप्रेक्ष्य में विपक्ष की यह मांग कि धन हासिल करने वालों के नाम पता लगाने के लिए निष्पक्ष जांच हो। साथ ही कहा कि जब तक जांच पूरी न हो, रिटेल कंपनी को भारत में दुकान खोलने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, गलत नहीं है। सरकार को एफ.डी.आई. को प्रतिष्ठा मुद्दा बनाने की बजाय देश हित को सर्वोपरि रखना चाहिए और विपक्ष को भी विरोध के लिए विरोध की नीति का त्याग करना चाहिए। पक्ष तथा विपक्ष को यह स्पष्ट करना चाहिए कि पिछले एनडीए के शासन काल में दोनों के विचार आज से बिल्कुल विपरीत क्यों थे और ऐसी क्या नई परिस्थितियां बनी कि नई रोशनी प्राप्त हुई कि उनकी भूमिका बदल गई। विपक्ष को इस बात का उत्तर भी देना होगा कि क्या उसके शासनकाल में अमेरिकी कंपनी डाभोल द्वारा परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने के मामले मे किसी प्रकार की लाबिंग की गई थी?
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