धर्मनिरपेक्षता को निगलते बहरूपिये--
धर्मनिरपेक्षता इस देश की प्राणवायु है। सारी दुनिया के लिए धर्म का अर्थ कुछ भी होता हो लेकिन भारत की अधिसंख्यक जनता के लिए धर्म और मानवता पर्यायवाची है, समानार्थक है। जहाँ शत्रु सेना को पानी पिलाने से मरहम लगाने की मिसाल जिन्दा हो उसे जब कोई बहरूपिया धर्मनिरपेक्षता का अर्थ बताने लगता है तो यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि जरूर कुछ अनर्थ होने वाला है।
क्या यह सत्य नहीं कि हमारे देश की राजनीति लगातार आत्मकेन्द्रित होती जा रही है। वह जनहित के नारे तो जरूर उछालती है लेकिन उसका असली मकसद निजहित से अधिक कुछ नहीं है वरना ‘गरीबी हटाओ’ से ‘जंगलराज भगाओं’ तक के नारे केवल नारे ही क्यों रहते? वास्तविकता यह है कि जब नारों का खोखलापन सामने आने लगता है तो हमारे तथाकथित शुभचिंतक ढ़ोग करने लगते हैं। जहाँ तक धर्मनिरपेक्ष का सवाल है, इसका व्यवहारिक अर्थ है ‘राज्य का धार्मिक मामलों में निरपेक्ष रहना।’ लेकिन इस देश की जनता का अनुभव इससे बिल्कुल उलट है। हमारे बहरूपिये नेताओं ने टोपी -तिलक के नाम पर वोटों की दुकानदारी जमा ली है। आखिर एक हिन्दू मंदिर जाकर अपने ढंग से पूजा करे और एक मुसलमान मस्जिद में जाकर नमाज पढ़े, रोजा रखे, ईद मनाये, अपने बच्चों की खुशहाली के लिए कोई भी वैध काम धंधा करे इसपर किसे एतराज हो सकता है। एक ईसाइ चर्च जाये, बाईबल पढ़ें, इशु-मरियम की शान में गीत गाए। सिख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मावलम्बी अपने पारंपरिक ढंग से पूजा उपासना करंे। यहाँ तक कि नास्तिक भी अपने विश्वास के साथ जिये बशर्त कि वह दूसरों पर अपनी मान्यताएं लादे नहीं। सरकार भी किसी भी सम्प्रदाय के प्रति न तो कठोर हो और न ही अनावश्यक उदार। बस यही सीधी सरल सी बात धर्म निरपेक्षता होनी चाहिए लेकिन इतने भर से नेताओं के पाप छिपने वाले नहीं है इसलिए वे हर्मदर्दी का ढ़ोंग करने लगते हैं। वेे धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भ्रम उत्पन्न करते है। टोपी, तिलक, मंदिर, मस्जिद, सबसीड़ी को जरूरी बताने वालों के दिल में राष्ट्र नहीं, केवल और केवल अपनी कुर्सी की सलामती होती है। विडम्बना तो यह है कि जो स्वयं अपने धर्म का वफादार नहीं, मानवता- समानता का अर्थ नहीं जानता और न ही जानना चाहता है वे सम्पूर्ण समाज को धर्मनिरपेक्षता समझाते है।
मैं जिस धर्म को सही मानता हूँ उस पर चलूँ और आप अपनी सोच आस्था को सही माने, इसमें विवाद की कोई गुंजाइश ही कहाँ है? झगडा तो तब है जब मैं यह घोषणा करूं कि ‘मेरी ही चलेगी क्योंकि केवल मैं सही हूँ, केवल मेरा विश्वास ही सही है। मेरी बात मानो, नहीं तो इस दुनिया में रहने का हक़ नहीं है।’ ऐसी सोच वाले धर्म नहीं धर्मांधता हैं और हमें हर ऐसे शख्स के खिलाफ आवाज उठानी होगी जो ऐसा करते हैं। धार्मिकता के साथ तो रहा जा सकता हैं लेकिन धर्मान्धता के साथ रहना मुश्किल नहीं असंभव है।
स्वयं कुरान शरीफ कहती है कि ‘लकुम दीनोकुम, वलीया दीन!’ तुम्हारा धर्म तुम्हारे लिए और हमारा धर्म हमारे लिए।
ईसाई मत के उपदेशों में एक जगह कहा गया है कि ‘यदि तुम अपने धर्म का प्रचार करते हुए किसी ऐसे गाँव में पहुँच जाओ, जहाँ के लोग तुम्हारा विरोध कर रहे हों या जो तुम्हें नापसंद करते हों, तो अपने जूते वहीं झाड़ो और आगे बढ़ जाओ।’
गीता के 18वें अध्याय के 67-68 वें श्लोक में कहा गया हैः- इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन। न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यासूयति।। अर्थात् गीता के इस रहस्य को ऐसे आदमी के सामने नहीं रखना चाहिए जिसके पास इसे सुनने का धैर्य नहीं है या जो किसी विशेष स्वार्थ के लिए इसके प्रति श्रद्धा प्रकट कर रहा है या जो इसे सुनने को तैयार नहीं है।
यदि हम अपने देश को राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुक्त करना है तो हमें पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम आजाद जैसी सहिष्णुता उत्पन्न करनी पड़ेगी। वे कहते है, ‘अगर भारत को महाशक्ति बनना है तो उसे गीता और उपनिषद के मार्ग पर चलना होगा।” धर्मनिरपेक्षता का मतलब केवल इतना है कि राज्य हर धर्म से एक दूरी रखे और उनके साथ एक जैसा व्यवहार करे। लेकिन धर्मनिरपेक्षता का असली दायित्व धर्म के अनुयायियों पर है, क्योंकि उन्हें अपने धर्म को उन रूढ़ियों से मुक्त करना है जो उससे चिपक गए हैं। उन तत्त्वों को खोजना होगा जो उन्हें दूसरे धर्मों के लोगों के साथ सह-अस्तित्व की प्रेरणा देते हों।
हम सब अपने-अपने धर्म का पालन करे, दूसरो पर अपनी मान्यताये थोपे न। धर्म प्रदर्शन नहीं आत्मदर्शन है। अच्छा हो धर्म हमारे मन, व्यवहार के बाद घर और पूजा- उपासना स्थल तक सीमित रहे। धर्म को बहरूपिये विकृत करते है क्योकि उनका उद्देश्य किसी का भला करना नहीं केवल वोट बैंक सलामत रखना है। हर नेता को अपने वोट बैंक की चिंता करने का अधिकार है, लेकिन किसी खास समुदाय के वोटों की परवाह करना पंथनिरपेक्षता नहीं हो सकती। यदि टोपी पहनना और टीका लगाना ही पंथनिरपेक्षता है तो संघवाले इस सूची में सबसे पहले हैं क्योंकि वे अपनी काली टोपी संग टीका ंलगाते हैं। यदि मोदी मौलवी के हाथों टोपी पहन लेते तो वह धर्मनिरपेक्ष हो जाते? वास्तव में कुछ नेता धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पाखंड करते है। अगर इस तरह के पाखंड को ही धर्मनिरपेक्षता मान लिया जाएगा तो उससे देश का अहित ही होगा। वैसे मोदी भी इन दिनों इसी प्रकार के दिखावे में किसी से पीछे नहीं हैं वरना गुजरात सड़क चौड़ी करते समय धार्मिक स्थलों को हटाने में भेदभाव का क्या औचित्य है?
पिछले 30 साल से एक मुस्लिम मेरे साथ रहता है मुझे उससे कभी दिक्कत नहीं हुई और न ही मैंने उसे अपने धार्मिक विश्वास मानने को कहा। मेरे एक साहित्यकार मित्र जो मुझसे भिन्न धार्मिक विश्वास रखते हैं, गुजरात से लौटने के बाद वहाँ ‘धार्मिक भेदभाव’ से असहमति प्रकट करतेे हैं। उनका मत है कि ‘डरा हुआ समुदाय अपनी पहचान छिपाता है जबकि वहाँ इस प्रकार का कोई लक्षण दिखाई नहीं था।’ समय-समय पर अनेक मुस्लिम नेता भी इसी प्रकार की बातें करते रहे हैं। सभी स्वीकारते हैं कि वहाँ का हर व्यक्ति आपेक्षाकृत सुखी अथवा कम दुःखी हैं।
वैसे हिन्दू समाज को आत्मचिंतन करना चाहिए कि उसके अपने लोग उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने धर्म और संस्कृति से क्यों कटने लगते हैं? आखिर क्यों उन्हें अपने धर्म से सम्बंधित बातें बेकार लगने लगती हैं? तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को भी मानसिकता निरपेक्षता से विचार करना चाहिए कि देश की राजधानी के एक विश्वविद्यालय में हिन्दू आस्था पर प्रहार करते हुए गौमांस पार्टी के आयोजन कितना उचित है? क्या धार्मिक स्वतंत्रता असीमित होती है? क्या ऐसे कदमों से सद्भावना कायम रह सकती है? क्या सद्भावना बनाए रखना किसी एक पक्ष की जिम्मेवारी है? इसीप्रकार देश की बहुसंख्यक जनता को भी समझना पड़ेगा कि इन बहरूपियों को सिखाये बिना स्थायी शांति और विकास नहीं हो सकता। यह देश किसी एक मोदी, एक राहुल या एक नीतीश का नहीं है बल्कि हम सब का है। हमंे गर्व होना चाहिए कि आजादी के बाद जब पाकिस्तान मंे हिन्दू लगातार सिकुड़ते रहे पर हिन्दुस्तान में सभी सम्प्रदाय फूल रहे है। वैसे यह आज की जरूरत है कि बहरूपियो को धर्म की चर्चा से अलग रखा जाये टोपी उछालने वालों की बातें क्योंकि यह न तो धर्म हैं और न ही इससे किसी का भला हो सकता है। वर्तमान परिपेक्ष्य में हम सबको जागरूक होना है। क्या ठीक नहीं कहा इकबाल ने-
वतन की फिक्र कर नादाँ, मुसीबत आने वाली है, तेरी बरबादियों के मशवरे हैं आसमानों में।
नहीं समझोगे तो मिट जाओगे हिन्दुस्तां वालों, तुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में।।-- डा विनोद बब्बर
धर्मनिरपेक्षता को निगलते बहरूपिये--
Reviewed by rashtra kinkar
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