हर आदमी मजदूर ही तो है-- डा विनोद बब्बर Majboor=Majdoor Vinod Babbar


प्रथम मई- अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर विशेष 
 प्रथम मई अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस है। यह दिन मजदूरों के लिए अपनी एकता प्रदर्शित करने का दिन माना जाता है। आज के परिदृश्य में यदि हम मजदूर दिवस की महत्ता का आकलन करें तो पाएंगे कि लगभग हर आदमी मजदूर (मजबूर) बनकर रह गया है। उसका शोषण हो रहा है, वह अपनी नियति, अपने भाग्य को कोसते हुए अंधभूखा, अधनंगा रहने को अभिशप्त है।
महान निबंधकार सरदार पूर्ण सिंह अपनेे निबन्ध “मजदूरी और प्रेम” में लिखते हैं- ‘जब हमारे यहाँ के मजदूर, चित्रकार तथा लकडी और पत्थर पर काम करने वाले भूखों मरते हैं तब हमारे मंदिरों की मूर्तियाँ कैसे सुंदर हो सकती हैं ? ऐसे कारीगर तो यहाँ शूद्र के नाम से पुकारे जाते हैं। याद रखिए बिना शूद्र-पूजा के मू
र्ति- पूजा, किंवा, कृष्ण और शालिग्राम की पूजा होना असंभव है। सच तो यह है कि हमारे धर्म, कर्म बासी ब्राह्मणत्व के छिछोरेपन से दरिद्रता को प्राप्त हो रहे हैं। यही कारण है कि जो आज हम जातीय दरिद्रता से पीड़ित  हैं। ”एक तरफ दरिद्रता का अखण्ड राज्य है, दूसरी तरफ अमीरी का चरम दृश्य। परन्तु अमीरी भी मानसिक दुःखों से विमर्दित है। मशीनें बनाईं तो गयी थीं मनुष्यों का पेट भरने के लिए-मजदूरों को सुख देने के लिए, परन्तु वह काली-काली मशीनें ही काली बनकर उन्हीं मनुष्यों का भक्षण कर जाने के लिए मुख खोल रही हैं । भारत जैसे दरिद्र देश में मनुष्यों के हाथों को मजदूरों के बदले कलों से काम लेना काल का डंका बजाना होगा।”
वे पुनः लिखते हैं, ‘आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है। सोने और लोहे  के बदले मनुष्य को बेचना मना है। आजकल भाप की कलों का दाम तो हजारों रुपये है, परन्तु मनुष्य कौडी के सौ-सौ बिकते हैं। सोने और चाँदी की प्राप्ति से जीवन का आनंद नहीं मिल सकता। सच्चा आनंद तो मुझे काम से मिलता है। मुझे अपना काम मिल जाए तो फिर स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा नहीं, मनुष्य पूजा ही सच्ची ईश्वर पूजा है,।.. मजदूर और मजदूरी का तिरस्कार करना नास्तिकता है। बिना काम, बिना मजदूरी, बिना हाथ के कला-कौशल के विचार और चिंतन किस काम के। सभी देशों के इतिहासों से सिद्ध है कि निकम्मे पादरियों, मौलवियों, पंडितों और साधुओं का दान के अन्न पर पला हुआ ईश्वर-चिन्तन, अंत में पाप, आलस्य और भ्रष्टाचार में परिवर्तित हो जाता है। जिन देशों में हाथ और मुँह पर मजदूरी की धूल नहीं पडने पाती वे धर्म और कला-कौशल में कभी उन्नति नहीं कर सकते।”
इतनी निर्भीकता से कलम चलाने वाले कम ही है। आज जब भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था नहीं रही, निम्न-मध्यम वर्ग के पास व्यापार के लिए इतनी पूंजी नहीं कि धन्नासेठों के बाद बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का मुकाबला कर सके। शीघ्र ही  रिटेल सेक्टर में विदेशी पूंजी निवेश के बाद मध्यम वर्ग भ्की रही सही कमर भी टूट सकती है। तब बताओं क्या लगभग हर आदमी मजदूर नहीं है? हर तरह के छोटे मोटे धंधे वालो क बोरिया बिस्तर समेटने की तैयारी जारी है तो फिर बचे वे लोग जो किसी कम्पनी के लिये काम करते हैं। डॉक्टर, अध्यापक, पत्रकार, अधिकारी, एजेन्ट, बीपीओ, सेल्स, मार्केटिंग, विज्ञापन की दुनिया में काम करने वाले, एक्टर, गायक, लेखक आदि, आदि। ये सब भी तो मजदूर हैं।  आखिर वहीं मजदूर नहीं जो फ़ैक्ट्री में मशीन पर काम करता हो या गारे-सीमेंट से लोहा लेता हो बल्कि हर मेहनतकश मजदूर है। सुना तो यह भी है कि मुम्बई के एकं मशहूर फिल्म निर्माता ने अपने कार्यस्थल का नाम ही फ़ैक्ट्री रखा है। मुम्बई ही क्यों हर कलाकार वास्तव में अपनी कला (श्रम) को किसी मजदूर की तरह  बेचता है। कुछ भाग्यशाली होते हैं जिन्हें मजदूरी के साथ यश मिल जाता है तो वे सफलता की बुलन्दियों को छू लेते हैं, शेष मजदूर जीवनभर मजबूर बने रहते हैं।
आज का यथार्थ है कि उत्पादन का हर साधन (मशीन, कम्प्यूटर,   कैमरा; लोहे के औजार, शब्दों के औजार आदि, आदि) जिनके माध्यम से आदमी अपनी रोजी-रोटी कमाते हुए मानसिकत स्वतंत्रता और अपनापन महसूस नहीं करता है। वह स्वयं को औजार (टूल) महसूस करता है। उनके पास पेट पालने के लिए बेचने के लिये केवल अपना श्रम है। अब यह श्रम शारीरिक या मानसिक भी हो सकता है। तो क्या इस अर्थ में हर शहरी मजदूर हुआं या नहीं हुआ? बेशक 1856 में काम के आठ घंटे निभार्रित करने की मांग हुई थी लेकिन कुछ संगठित क्षेत्रों अथवा सरकारी कार्यालयों को छोड़ दे तो शेष में यह आज भी व्यवहारिक रूप से लागू नहीं हो सका है। हर छोटा दुकान रिक्शा, स्कूटर आटो, टैक्सी वाला, रेहड़ी -पटरी वाला,  पत्रकार, लेखक वेटर, कुली, चौकीदार, चपरासी मजदूर, यहाँ तक कि सीमा पर तैनात जवान, साधारण सिपाही भी 12 से 16 घंटे काम करने के बाद भी अपनी कुछ जरूरतों के बिना रहने को अभिशप्त है। 
अब प्रश्न यह है कि इस समस्त वातावरण के लिए आखिर कौन दोषी है। सबसे बड़ा दोष सरकार का है तो दूसरा दोष हमारी मानसिकता का। सरकारें जिस तरह से शिक्षा के प्रति निष्क्रिय है उसी का परिणाम है कि दोहरी शिक्षा प्रणाली मजबूर समाज का निर्माण कर रही है। अधिकांश सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर बहुत खराब है। अध्यापकों को शिक्षा प्रदान करने के लिए फुर्सत ही नहीं है। वे सरकारी व्यवस्था के मास्टर टूल बन कर रह गए है। मतदान, मतगणना, उससेभी पहले मतदाता सूची बनाना, फेरबदल करना, जनगणना करना, जातिगणना करना, दाल-दलिया बांटना तो जारी था ही अब उन्हें फरमान दिया गया है कि वे किसी भी बच्चें को फेल न करें, उनकी शरारत को अनदेखा करें। शरारत चाहे गंभीर अपराध ही क्यों न हो आज के सरकारी स्कूलों के अध्यापक आंखें मूंदे रखने को विवश है अन्यथा उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है। आज के बच्चें अपनी शरारत के बाबजूद अध्यापकों के विरूद्ध पुलिस को बुलाने से भी नहीं हिचकिचाते। इस सारे खेल में लाखों बच्चे पढ़ाई बीच में छोड़ने को विवश हो जाते हैं। 
दूसरी ओर प्राईवेट स्कूल व्यवसायिक स्थल बन चुके हैं। इस छद्म शिक्षा प्रणाली का परिणाम है मजबूर मजदूर पैदा करना। इस प्रणाली की पैदावार के रूप में सामने आ रही युवा पीढ़ी किसी ‘काल सेन्टर’ का वाईट कालर मजदूर के अतिरिक्त आखिर क्या हैसियत रखता है? परिवारों की टूटन, बुजुर्गो की बिगडती दशा, एकल  परिवारों से एकल व्यक्ति  की और बढ़ता वातावरण, गाँवों से शहरों की ओर पलायन, शहरों में गंदी बस्तियों की बढ़ती संख्या, नशे का बढ़ता प्रचलन, व्यभिचारं अनेक सामाजिक कुरीतियों का पनपना आखिर अकारण नहीं हो सकता। मई दिवस हम सबके सम्मुख यह प्रश्न प्रस्तुत करता है कि आखिर लाख कोशिशों के बावजूद मजदूरों की दशा क्यों दिन-प्रतिदिन बिगड़ रही है? एक आम आदमी के सामने सबसे बड़ी चुनौती आठ घंटें काम करना नहीं बल्कि सोलह घंटे काम करने के बाद भी अपने बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, संतुलित भोजन की व्यवस्था करने में असफल होना है। ऐसे में जब वह बुनियादी जरूरतें ही उपलब्ध नहीं करवा पा रहा तो उसे नई पीढ़ी को संस्कार न दे पाने का दोषी ठहराया भी जाए तो आखिर कैसे और क्यों?
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