देवभूमि के साक्षात्कार की पौड़ी: कोटद्वार से लेंसडाउन Kotdwar to Lansdown


उत्तराखंड़ को देवभूमि कहा जाता है। देवों के देव महादेव यहां के कण-कण में विराजमान है। बहुत प्यारे हैं यहाँ के लोग।  ईमानदारी, मेहनतकश लेकिन मृदुभाषी उत्तरांचली देशभर में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। वर्षो पूर्व जब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था, पौड़ी के जिला अधिकारी ने हमें उस क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य का अवलोकन करने के लिए कोटद्वार आमंत्रित किया। जून में जब दिल्ली लू के गर्म थपेड़ों से परेशान कर रही थी हमने कोटद्वार की राह पकड़ी।
कोटद्वार  वर्तमान उत्तराखंड का प्रवेशद्वार माना जा सकता है। दिल्ली से लगभग 210 किलोमीटर मेरठ, बिजनौर, नजीबाबाद होते हुए रेल अथवा सड़क मार्ग से कोटद्वार पहुंचा जा सकता है। कोटद्वार 1953 से  रेल मार्ग से जुड़ा है। विश्व प्रसिद्ध सिद्धिबली धाम और दुर्गादेवी मंदिर के अतिरिक्त कण्वाश्रम, भारत नगर, चीला, कलागढ़, मेदान्पुरी देवी और श्री कोटेश्वर महादेव देखने योग्य स्थल हैं।
स्कन्द पुराण के अध्याय 119 छठे श्लोक में कोटद्वार का उल्लेख है। इसे कुमुद तीर्थ कहा गया है। इसकेे अनुसार -
तस्य चिहनं प्रवक्ष्यामि यथा तज्जायते परम. कुमुदस्य तथा गन्धो लक्ष्यते मध्यरात्रके.
अर्थात महारात्रि में कुमुद यानि बबूल के पुष्प का गंध लक्षित होती है. प्रमाण के लिए आज भी इस स्थान के चारो और बबूल के वृक्ष विद्यमान है कुमुद तीर्थ के विषय में कहा गया है कि पूर्वकाल में इस तीर्थ में कौमुद यानि कार्तिक की पूर्णिमा को चन्द्रमा ने भगवान शंकर को तपकर प्रसन्न किया था. इसलिए इस स्थान का नाम कौमुद पड़।  तीर्थ कौमुदद्वार होने के कारण ही असका नाम कोटद्वार पड़। स्थानीय लोग आज भी कौमुद द्वार को कोद्वार कहते हैं। उनका मत है कि अंग्रेजो द्वारा सही उच्चारण न कर पाने के कारण इसे कोड्वार कहा गया। तब सरकारी अभिलेखों में कोद्वार दर्ज किया और उसका अपभ्रंश रूप वर्तमान में कोटद्वार के नाम से  जाना जाता है।
कोटद्वार शहर मे खोह नदी के तट पर स्थित तथा शिवालिक पहाड़ियों से घिरा हुआ प्राचीन सिद्धबली मंदिर पूरी दुनिया में विख्यात है। बेशक समय, काल, परिस्थिति, नदी के प्रवाह के कारण यह मंदिर लगातार खतरे में माना जा रहा था। श्री सिद्धबली मंदिर कुछ वर्ष पूर्व, भूस्खलन के कारण कुछ भाग ध्वस्त हो गया था। शेष आश्चर्यजनक रूप से अपने स्थान पर ही टिका रहा। जनमान्यता है कि स्वयं बजरंग बली ने मंदिर को अपने कन्धों पर सहारा देकर बचाया। बाबा के भक्त उसे बचाने के लिए पूरे दिलोजान से लगे हैं। जब हम वहाँ गए तो लोहे के भारी-भरकम गोडरों से इसे सहारा देने का कार्य चल रहा था। करोड़ों के इस प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी मिली कि विदेश में रहने वाले कुछ भक्त इसका खर्च वहन कर रहे हैं।
पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर पर जाने के लिए काफी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है, उसपर भी अनेक बंदर हैं। श्रद्धा हर कठिनाई में भी मुस्कराना जानती है इसीलिए प्रतिदिन हजारों लोग दूर-दूर से भगवान के दर्शन करने आते हैं।
ऐतिहासिक सिद्धबली मंदिर के बारे में कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ एवं उनके शिष्यों ने यहाँ लम्बे समय तक तपस्या की। यहाँ की गई तपस्रूा के पश्श्चात वे ‘सिद्ध’ कहलाये। इन सिद्धों में कुछ प्रसिद्द नाम हैं, बाबा सीताराम, बाबा गोपाल दास, बाबा नारायणदास एवं संत सेवादास। फलहारी बाबा के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने भी यहाँ वर्षों तक तपस्या की थी। अनेक श्रद्धालु इस स्थान को चौदहवी सदी के संत सिधवा जिन्हें सिद्ध के रूप में पूजा जाता है, से भी जोड़ते हैं। गुरु नानकदेव जी भी कुछ दिन यहाँ रुके थे। कहा जाता है कि इस स्थान के समीप एक अंग्रेज अधिकारी  ने एक बंगला बनवाया जिसके अवशेष आज भी है। वह घोड़े पर सवार हो इस बंगले में आया लेकिन  घोडा आगे नहीं बढ़़ा। उसने चाबुक मारा तो घोड़े ने उसे जमीन पर पटक कर बेहोश कर दिया। बेहोशी में उस अफसर को सिद्धबाबा ने दर्शन देकर कहा, ‘पहले इस स्थान पर मेरा स्थान बनाओ तभी तुम इस बंगले में रह सकते हो।’ उस अधिकारी द्वारा जीर्णाेद्धार के बाद यह स्थान धीरे-धीरे भक्तो एवं श्रद्धालुओं के सहयोग से भव्य बना।
लगभग एक पखवाड़े के प्रवास के दौरान हमने इस पवित्र स्थल पर प्रतिदिन अपनी हाजिरी दर्ज की। मंदिर से नीचे की ओर निहारना प्रकृति के चमत्कार से साक्षात्कार करवाता है।
कोटद्वार के आसपास के क्षेत्रों में लेंसडाउन सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र है। हवा में घुली चीड़ की महक वाले कोटद्वार से 40 किमी की घुमावदार दूरी वाला लेंसडाउन देश के सबसे शांत हिलस्टशनों में से एक है। इसका प्राचीन नाम कालूडांडा है। लेकिन 1887 में लॉर्ड लैंसडाउन के यहाँ आने तथा इसे फिर से बसाने के कारण इसका नाम लैंसडाउन पड़ा। उन दिनों ब्रिटिश सरकार ने सैनिकों की भर्ती और ट्रेनिंग के लिए यहां गढ़वाल राइफल्स का सेंटर खोला था। स्वतंत्रता आंदोलन की भी कई गतिविधियों का गवाह रह चुका ह सेना की छावनी तथा अपने प्राकृतिक सौंदर्य के कारण यह स्थान  ब्रिटिश काल के अधिकारियों को भी आकर्षित करता रहा है। यहाँ की हरियाली जिसमें चीड तथा देवदार के वृक्षों है इसे अतिरिक्त सौंदर्य प्रदान करते है।
कोटद्वार शहर से लगभग 70  किलोमीटर की दूरी पर स्थित ताड़केश्वर महादेव प्रकृति की गोद में अद्वितीय शांति प्रदान करता है। यहाँ बैठने के बाद प्राकृतिक सौन्दर्य  अपने मोह पाश में बांध लेता है।
कोटद्वार से लगभग 100 किमी की दूरी पर स्थित पौड़ी कंडोलिया पहाड़ी के उत्तर-पश्चिम में बसा हुआ है।   यहाँ से हिमालय का अद्भुत दृश्य देखे जा सकता है। गढ़वाल का श्रीनगर यहाँ 25 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान पर भी बेहद सुंदर है। यहाँ हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय तथा अनेक महत्वपूर्ण संस्थान है। कुछ दूरी पर स्थित लैंसडाउन की सबसे ऊंची पहाड़ी पर बना संतोषी माता मंदिर, भुल्ला ताल, चर्च और वॉर मेमोरियल है तो ‘टिफिन टॉप’ का रोमांच वर्षों बाद आज भी मस्तिष्क में तरंगे उत्पन्न करता है। जून में भी सर्दी का स्वाछ देते इस स्थान से नीचे झांकने पर अंदर तक सब सहम जाता है तो दूर-दूर तक पर्वतों और उनके बीच छोटे- छोटे गांव, सीढ़ीदार खेत आदि नजर आते हैं। इनके पीछे से उगते सूरज का नजारा अलौकिक लगता है। अगर आसमान साफ हो तो बर्फ से ढके पहाड़ों की लंबी श्रृंखला नजर आती है। वहाँ की हरियाली, लम्बे-ऊँचे वृक्ष, घने जंगल आज भी बुलाते हैं लेकिन कहना मुश्किल है कि वहाँ फिर कब जाना संभव होगा।
श्रीनगर के बारे में कहा जाता है कि इसका नामकरण एक विशाल पत्थर पर खीचें श्रीयंत्र के कारण हुआ। विश्वास किया जाता है कि जब तक श्रीयंत्र की पूजा होती थी, यहाँ  खुशहाली थी। 8वीं सदी में जब आदि शंकराचार्य श्रीनगर आये तो उन्होंने श्री यंत्र को नीचे घुमा कर अलकनंदा नदी में डाल दिया जो 50 वर्ष पहले तक जल के स्तर से ऊपर दिखाई देता था। इस क्षेत्र को श्रीयंत्र टापू कहा जाता है।
श्रीनगर हमेशा ही महत्वपूर्ण रहा है क्योंकि यह बद्रीनाथ एवं केदारनाथ के धार्मिक स्थलों के मार्ग में आता है। लगभग सभी तीर्थयात्री यहाँ अल्पकालीन विश्राम के लिये रूकते रहे हैं। श्रीनगर ब्रिटिश गढ़वाल के रूप में वर्ष 1840 तक मुख्यालय बना रहा तत्पश्चात इसे 30 किलोमीटर दूर पौड़ी ले जाया गया। वर्ष 1894 में श्रीनगर को अधिक विभीषिका के सामना करना पड़ा, जब गोहना झील में उफान के कारण भयंकर बाढ़ आई। श्रीनगर में कुछ भी नहीं बचा। वर्ष 1895 में वर्तमान श्रीनगर बसा। नये श्रीनगर का नक्शा जयपुर के अनुसार बना जो चौपड़-बोर्ड के समान दिखता है जहां एक-दूसरे के ऊपर गुजरते हुए दो रास्ते बने हैं।
दुगड्डा के बारे में बहुत कुछ सुना- पढ़ा था इसलिए कोटद्वार से दुगड्डा जाने का कार्यक्रम कई बार बना लेकिन हर बार जहाँ भी गए, वहीं के होकर रह गए। अंधेरा हो जाने पर वापस लौट आते। आखिर एक दिन दुगड्डा जाना हुआ लेकिन दुगड्डा  के शेर से हमारी मुलाकात नहीं हो सकी जिसके बारे में पुस्तकों में बार-बार पढ़ते रहे हैं।
वैसे यह स्थान भी कम खूबसूरत नहीं है। यहाँ के घुमावदार रास्तों पर बनी छोटी सी झोपड़ीनुमा पर गाड़ी रोककर चाय पीने का आनंद कुछ अलग ही है। इन दुकानों पर काले चने की स्वादिष्ट सब्जी खाने की इच्छा बार-बार होती है तो इस सम्पूर्ण क्षेत्र में मिलने वाली बाल मिठाई ने हमें अपना दीवाना बना लिया। हमारे क्षेत्र के कलाकंद के चारों ओर चीनी के साबुदाना जैसे छोटे गोल दाने चिपके हो तो बस समझो यही है बाल मिठाई। इस यात्रा के दौरान ताजे फल, ताजी सब्जियाँ, लम्बा-चौड़ा खीरा, शुद्ध दूध, दही खूब खाने को मिला तो हर शाम कोटद्वार में छत्त पर बैठे कुदरत का नजारा देखते तो देर तक मोरों की आवाज गूंजा करती।  आज भी वे आवाजंे मेरे कानों में गूंज रही है...‘देवभूमि तुम्हें पुकार रही है!, देवभूमि पुकार रही है!! बाबा सिद्धबली की सीढ़ियां तुम्हारी राह देख रही है!!!’
खोह नदी का कलकल कर बहता जल अपनी समस्त शीतलता उड़ेलने को आतूर है तो टिफिन टॉप बाहें फैलाये स्वागत करने को   तैयार है। मेरे जैसे असंख्य लोग इस निमंत्रण को स्वीकार कर प्रकृति का आनंद तो लेना चाहते पर प्लास्टिक आदि से इन स्थानों को प्रदूषित करने का पाप न जाने क्यों करते हैं। आखिर हम कब सीखेंगे  प्रकृति का आदर करना! देवभूमि को पवित्र बनाए रखने के अपने कर्तव्य को न भुलाकर ही हम अपनी भावी पीढ़ियों को प्रकृति की इस धरोहर को सौंप सकते हैं। अगर यह वाटिका हरी-भरी रही तो हर बाल को उसकी वाटिका मिलेगी और तभी चहकेगी बालवाटिका! - डॉ.. विनोद बब्बर - 09868211911
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