राष्ट्र को चुनौती है नक्सलवादी तांडव--- डा विनोद बब्बर Naksalvad Chellage Before Nation

लोकतंत्र में बैलेट का महत्व है लेकिन नक्सलवाद- माओवाद- आतंकवाद बुलेट को सर्वोपरि मानता है। अपने  विरोधियों को निपटाने वाली विचारधारा किसी भी सभ्य समाज पर कलंक होती है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियो द्वारा किया गया हमला वास्तव में किसी एक दल के नेताओं की हत्या नहीं बल्कि राष्ट्र की प्रभुसत्ता को चुनौती है। यह शर्मनाक दुर्घटना सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए चुनौती है जिसे स्वीकार कर इस आतंक का जड़मूल से सफाया करने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प हो ही नहीं सकता।
यह सर्वविदित है कि छत्तीसगढ़, उडीसा, आंध्रप्रदेश, बिहार, झारखंड, बंगाल, महाराष्ट्र आदि राज्य रेडबेल्ट के नाम से जाने जाते हैं। लालपट्टी वह क्षेत्र है जहां नक्सलियों -माओवादियों ने जनजातीय वन क्षेत्रों में बेहद गरीब लोगों पर अपना नियंत्रण कायम कर लिया है। एक प्रकार से यहाँ समानान्तर सरकारे चल रही है। वैसे यह सब एक ही दिन में नहीं हुआ है। क्या शासन को इसकी जानकारी नहीं थी? बार-बार के हमलों के बावजूद हमने आखिर क्या सबक सीखा? इस साल अब तक 811 घटनाओं में सुरक्षा बलों के 80 कर्मियों सहित 270 लोग मारे गए हैं। दुःखद आश्चर्य तो यह है कि हमारी सरकारें इस अधोषित युद्ध के प्रति जरूरत से ज्यादा उदार नजर आती हैं। जबकि रक्त बहाने की कोई विचारधारा अथवा वाद हो ही नहीं सकता।
नक्सलवाद के कारण प्रभावित क्षेत्रों का विकास प्रभावित हो रहा है। नए उद्योग धंधे न तो खुल रहे हैं और न ही पुराने फल-फूल रहे हैं। जबकि प्रकृति ने इन राज्यों को भरपूर सम्पदा दी है। जिसका उपयोग किया जाए तो न सिर्फ ये राज्य बल्कि देश की आर्थिक प्रगति में बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। एक सरकारों की लापरवाही तो दूसरा नक्सली आतंक के कारण यहाँ विकास की दर काफी कम है। यहाँ की सबसे बड़ी समस्या है प्राकृतिक संपदा की लूट। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में  आदिवासियों किसानों को अपनी ही भूमि पर बेगारों की तरह काम करना होता है। सरकारीतंत्र का दावा है कि उनकी भूमि पर नक्सलियों का जबरन कब्जा है। अपनी भूमि पर किसान मेहनत कर फसल उगाता है और जब फसल तैयार हो जाती है तो नक्सली उस जमीन पर लाल झंडा लगा देते थे। इसका अर्थ होता था कि अब फसल उनकी है और वही काटेंगे। दूसरी ओर नक्सली इस तरह के आरोपों से इंकार करते हुए जमीनं को भूमिहीनों के बीच बराबर के बंटवारे का नाम देते हैं। 
नक्सली एक तरफ भोले आदिवासियों को यह कह कर भडकाते हैं कि राज्य को तुम्हारे विकास की चिंता नहीं, वहीं दूसरी ओर सडक, स्कूल, व्यापारिक केन्द्रों के निर्माण कार्यो का विरोध करते हैं। उन्हें विस्फोट से उड़ा देते हैं। नक्सली अपनी शासन विरोधी मुहिम को आदिवासियों तथा गरीबों के हक लडाई घोषित तो करते हैं लेकिन   इनके द्वारा करोडों-अरबों रूपए की वसूली अधिकरियों, कर्मचारियों, व्यापारियों तथा ठेकेदारों से की जा रही है वसूली का औचित्य क्या है? आखिर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वसूली के इस धन से गरीबों का विकास तो अब तक देखा नहीं गया है  इसी से स्पष्ट है कि ं इनका गरीब आदिवासियों से कोई लेना देना नहीं। इस सारे घटनाक्रम का सबसे दुःखद पहलू यह है कि ये संवेदनशून्य नक्सली स्वयं को क्रांतिकारी घोषित करना नहीं भूलते। सलवा जुडूम के संस्थापक बहादुर कांग्रेसी नेता जिसने अपने स्वयं के दल के विरोध की परवाह तक नहीं की उस महेंद्र कर्मा के शव पर पैशाचिक नृत्य करने वालो को कब समझ में आएगा कि सांडर्स वध को छोड दें तो संपूर्ण क्रांतिकारी आंदोलन में कोई हत्या का उदाहरण नहीं मिलता। महान रामप्रसाद बिस्मिल तो नर हत्या को घोर पाप मानते थे। काकोरी कांड के दौरान मन्मथनाथ गुप्त की असावधानी से जब अहमद अली नामक एक यात्री की हत्या हो गयी तो दल का नेता होने के नाते सारी जिम्मेदारी लेकर फांसी के फंदे पर चढ गये। शहीदे आज़म भगत सिंह ने एक निर्दाेष चींटी भी मारी हो इसका कोई प्रमाण नहीं मिला। पर कुछ सिरफिरे बुद्धिजीवी (बुद्धिशत्रु) नक्सलवाद को समाजवाद अथवा क्रांतिकारियों से जोड़ने का प्रयास करते नजर आते हैं। सबसे पहले ऐसे प्रयासों की खबर ली जानी चाहिए।  
यह भी समझना जरूरी है कि सुरक्षा की अनदेखी नहीं की जा सकती। सबसे पहले इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि गंभीर आंतरिक खतरे से जूझ रहे छत्तीसगढ़ सरीखे राज्य में दिल्ली की तुलना में कम पुलिस बल क्यों है? क्या इसलिए कि जिन पर आम आदमी को सुरक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है उनकी चिंता अपनी सुरक्षा तक सीमित है। इन राज्यों के पुलिस थाने बहुत दयनीय दशा में हैं। यहाँ के बारे में कहा जाता है ‘यह एक ऐसा इलाका है, जहां नक्सली वर्दी में घूमते हैं और पुलिस बिना वर्दी के।’  उनके पास न तो खुद की बिल्डिंग है और न ही  पर्याप्त हथियार। उन्हें अति प्रशिक्षित नक्सलियों से निपटने के लिए जिस तरह से सामान्य प्रशिक्षण मिलता है उससे अशांति और विद्रोह से निपटने की क्षमता पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है।  पुलिसकर्मियों को स्थानीय संस्कृति से संबंधित मुद्दों की सही समझ न होना भी एक बड़ी समस्या का रूप धारण कर लेता है। पुलिस सुधार के लिए गठित आयोगों ने इस विषय पर बहुत कुछ कहा है तो दूसरी ओर हर बड़े हमले की जांच रिपोर्ट में भी इस तरफ इशारा किया है, लेकिन सुधार के नाम शायद ही कुछ किया गया हो। 
आश्चर्य तो यह है कि जब देश में हर तरफ बदलावों का शोर है। हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी तो आर्थिक सुधारों के लिए ही जाने जाते हैं पर पुलिस तथा न्यायिक सुधारों पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। वैसे यह एक शुभ संकेत है कि देश के राजनीतिक दल महसूस ही नहीं कर रहे बल्कि  कह भी रहे हैं कि उन्हें नक्सलियों की चुनौती से निपटने के लिए एक साथ आना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस नेताओं की निर्मम हत्याओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए अपना राष्ट्रव्यापी आंदोलन तक स्थगित कर एकजुटता की दिशा में पहल की है। कांग्रेस नेतृत्व का रवैया भी इसी प्रकार का है तो हमे यह सुनिश्चित करना होगा कि राष्ट्र को चुनौती प्रस्तुत करते नक्सलियों के विरुद्ध आरंभ हुई लड़ाई अपने तुच्छ राजनैतिक लाभ-हानि अथवा आरोप-प्रत्यारोप से कभी खत्म न होने वाले जांच आयोगों की बंदी बनकर नहीं रह जाना चाहिए। हमें बिना किसी देरी के विकास चक्र को तेजी से घुमाना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर हर व्यक्ति तथा राष्ट्रीय सम्पति की सुरक्षा की जिम्मेवारी प्रतिकार के हर अधिकार के साथ सुरक्षाबलो को देनी चाहिए। राष्ट्रद्रोहियों को यह संकेत हरहाल में मिलना ही चाहिए कि राज्यशक्ति उन्हें कुचलने में न केवल सक्षम है बल्कि तत्पर भी है।
मानवता के दुश्मन नक्सलियों के मानवाधिकारों की बात करने वालों को मुहतोड़ जबाव देना होगा। आखिर  जो इन नक्सवादियों के क्रूरतम आक्रोश का शिकार हो रहे हैं, मानव अधिकार उनके भी है। क्या उनका कोई मानव अधिकार नहीं है जो इन नक्सलियों के शोषण के स्थायी शिकार होने को बाध्य हैं? निचले स्तर के जो निर्दोष सिपाही मारे जा रहे हैं क्या उनके अनाथ बच्चों के  मानवाधिकार उनकी ‘शोषण रहित न्यायवादी व्यवस्था’ ने निरस्त कर दिये गये हैं? जो समाज से सबसे अशिक्षित और सीधे लोगों को मोहरा बना रहे हैं आखिर वे किस तरह से मानवाधिकार की रक्षा कर रहे हैं? आखिर पहले से पिछड़े आदिवासी ग्रामों को सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाओं को नष्ट करने वालांे को मानवाधिकार की बात करने का ठेका किसने दिया? ये आतंकवादी राष्ट्र के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर उसे जर्जर करना चाहते है।  इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए सभी दलों को राजनीति से ऊपर उठकर लगातार व्यवहार करना होगा। यह स्पष्ट संकेत जाना चाहिए कि जो निर्दोषों की हत्याओं पर मौन है, वह भी कम दोषी नहीं है।

राष्ट्र को चुनौती है नक्सलवादी तांडव--- डा विनोद बब्बर Naksalvad Chellage Before Nation राष्ट्र को चुनौती है नक्सलवादी तांडव--- डा विनोद बब्बर  Naksalvad Chellage Before Nation Reviewed by rashtra kinkar on 21:50 Rating: 5

2 comments

  1. "नक्सलवाद" जैसे क्रूरतम कृत्य का जवाब अपनी कठोरतम और लगभग उनके ही अंदाज में जवाब देने के लिए मै आपको बधाई देता हूँ... माननीय, हमारी समस्या हमेशा से यह बिराजमान रही है कि हम अपने दुःख से नहीं बल्कि पडोसी के सुख से ज्यादा दुखी रहते हैं. तत्काल में हुई नक्सली हिंसा को कोई भी समझदार तो छोडिये, व्यक्ति भी जायज नहीं ठहरा सकता. यह कृत्य पाशविक कृत्य का चरम है.... पर आप बताइए सिर्फ मुझे ही नहीं पुरे देश को कि उन्हें पशु बनाने वाला कौन है? आज आजादी के लगभग ६६ साल बाद भी उन हमारे आदिवासी भाइयों को आपने संविधान का कौन सा अधिकार दिया है:

    १. शिक्षा का अधिकार है उन आदिवासियों को ?
    २. भाषण का अधिकार है उनके पास, उनको बोलने की योग्यता दी है आपने ?
    ३. समानता का अधिकार है क्या उनके पास ?
    ४. अपना रोजगार कर सकते हैं क्या वह ?
    ..
    ..

    अफ़सोस की बात यह है कि आपने लेखनी से नक्सलवादियों के आतंक को कुचलने के आदेश में आपने ईन आदिवासी भाइयों को कुचलने का फरमान भी जारी कर दिया है.

    मै हमेशा शांति में यकीन रखने वाला व्यक्ति आपसे पूछता हूँ कि जिन नक्सल प्रदेशों की बात आपने की है, और उनको प्राकृतिक सम्पदा से भरपूर बताया है... उन जमीनों और संपदाओं के असली वारिस आज रोटी-रोटी को भटक रहे हैं और गरीबी रेखा से नीचे जीने को मजबूर क्यों हैं? ... क्यों उनकी अगली पीढ़ी भी उसी प्रकार से नक्सल आन्दोलन से जुडती जा रही है? ...

    एक बात हम अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले जितनी जल्दी समझ लें, उतना ही उपयुक्त होगा, और वह यह है कि .. "नक्सल आन्दोलन में भले ही उग्रवादी / आतंकवादी हैं,, पर उनकी संख्या पांच फीसदी से ज्यादा नहीं है.. हाँ!... बाकी ९५ फीसदी उनको आदिवासियों का समर्थन हासिल है. ... यह बात हमारी सरकार अच्छे से जानती है. इसीलिए वह सेना का प्रयोग नहीं कर सकती. इसलिए नहीं कि उसे किसी मानवाधिकार का भय है, वरन इसलिए कि वह यदि १० को मारेंगे, तो १०० नक्सली पैदा होंगे. ... "नक्सल" कोई व्यक्ति नहीं है भाई साहब कि आप उसे कुचल देने को कह रहे हैं ... बल्कि "नक्सल" एक सोच है और सोच को आप तो क्या, न तो अंग्रेजी प्रशासन दबा पाया, न तालिबान और न आपकी यह "मजबूरी" की सरकार. ... हाँ! मै इसे पूर्ण रूप से भारत की सम्पूर्ण जनता की मजबूरी की सरकार ही कहूँगा, जो हमेशा की तरह बहरी बनी रहती है,... नहीं तो "अन्ना" आन्दोलन क्या था ?? ... क्या वह जनता का गुस्सा नहीं था, पर सरकार ने सीखने के बजाय क्या किया, उसने उल्टा उसको राजनीति सिख दी.
    --
    रही बात बीजेपी और कांग्रेस के साथ मिलने की... तो आपके इस शाबाशी पर मै तरस खाता हूँ, जो आपने राजनीति की इस दावं-पेंच को देशभक्ति समझकर उसकी तारीफ़ की है. ... मै छत्तीसगढ़ करीब २० दिन के आस पास रहा हूँ,, वहां मै पेपर और मीडिया नहीं लोकल लोगों से मिलकर/ वहां की जमीं पर के हालात आपको बता रहा हूँ कि ... आपके उत्तर प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली के तमाम बड़े उद्योगपतियों ने वहां की संपदाओं पर बेइन्तिहा कब्जा जमा रखा है, और यह कोई नादान भी समझ सकता है कि उद्योगपति कब्ज़ा कैसे जमाते हैं.... हर पार्टी के नेताओं को मोटा माल खिलाते हैं. ... अब आप दोनों पार्टियों की मजबूरी समझ गए होंगे. इन राज्यों की संपदाओं की लूट केंद्रीय स्तर से शुरू होकर राज्य और लोकल स्तर तक गयी है, और तथाकथित जिन लोकल नेताओं की आपने बहादुर कहकर तारीफ़ की है, माफ़ कीजियेगा,... एक तो वह उनका लोकल वर्चस्व की लड़ाई है दुसरे उनको भी आपके केंद्रीय नेताओं ने अपने उद्योगपतियों को फायदा दिलाने में ईस्तेमाल भर किया है.

    भाई साहब, नेता हर पार्टी के दो तरफ फंस गए हैं... एक तो वह मोटा माल लेकर उद्योगपतियों के हाथों बिक गए हैं, उनको उम्मीद थी कि विरोध को बन्दूक के बल पर दबा देंगे (पर मैं पहले ही कह चूका हूँ कि "सोच" को बन्दूक के बल पर कभी नहीं दबाया जा सकता)... पर जब आदिवासी उठ खड़े हुए हैं (चाहे जिस तरीके से, मै तरीके पर नहीं जाता) ... तो वह सांप- छछूंदर की हालात में फंस गए हैं.
    --
    मुझे लगता है, मै कुछ ज्यादा ही कह गया पर आपकी विद्वता को नमन करते हुए आपसे गुजारिश करूँगा कि इस सोच को बदलने पर कार्य हो, राजनीतिक तंत्र बदले, न्याय-तंत्र बदले ... अन्यथा अपने हक़ की लडाइयां चलती ही रहेंगी... यह दीगर बात है कि कभी वह "अन्ना- आन्दोलन" की तरह अहिंसक होगी तो, कभी वह "नक्सल- आन्दोलन" की तरह हिंसक !! ... पर हक़ की लड़ाई तो हक़ की लड़ाई ही है, और उसके लिए न चाहते हुए भी खून बहता ही है. जरूरत है, हम अपने भाइयों को अपनी बराबरी में लायें, नहीं तो असमानता हमेशा संघर्ष को जन्म देती है और यहाँ तो घोर "अन्याय" है., घोरतम अन्याय !!

    जय न्याय, जय हिन्द !!

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  2. प्रिय मिथलेश जी, प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद,
    लगता है आपने आलेख पर जल्दबाजी में प्रतिक्रिया दी है, वर्ना आप यह जरूर देखते कि --
    1 आर्थिक प्रगति में बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। एक सरकारों की लापरवाही तो दूसरा नक्सली आतंक के कारण यहाँ विकास की दर काफी कम है। यहाँ की सबसे बड़ी समस्या है प्राकृतिक संपदा की लूट। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आदिवासियों किसानों को अपनी ही भूमि पर बेगारों की तरह काम करना होता है।
    २ नक्सली एक तरफ भोले आदिवासियों को यह कह कर भडकाते हैं कि राज्य को तुम्हारे विकास की चिंता नहीं, वहीं दूसरी ओर सडक, स्कूल, व्यापारिक केन्द्रों के निर्माण कार्यो का विरोध करते हैं। उन्हें विस्फोट से उड़ा देते हैं। नक्सली अपनी शासन विरोधी मुहिम को आदिवासियों तथा गरीबों के हक लडाई घोषित तो करते हैं लेकिन इनके द्वारा करोडों-अरबों रूपए की वसूली अधिकरियों, कर्मचारियों, व्यापारियों तथा ठेकेदारों से की जा रही है वसूली का औचित्य क्या है? आखिर नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में वसूली के इस धन से गरीबों का विकास तो अब तक देखा नहीं गया है इसी से स्पष्ट है कि इनका गरीब आदिवासियों से कोई लेना देना नहीं।

    आपने इन पर या तो जान बूझ कर ध्यान नहीं दिया या फिर कुशल राजनेताओं की तरह Don"t care की नीति अपनाई है. यह बात समझने की है कि भारत का आम आदमी हर कष्ट को अपना भाग्य समझकर सहता है लेकिन विद्रोह नहीं करता इसीलिए आज तक यहाँ न तो कोई क्रांति हुई है और न ही होगी। नक्सलवाद विदेशी साजिश है इस देश को टुकड़े-टुकड़े करने की। गरीबी भ्रष्टाचार, असमानता कहाँ नहीं है? पूंजीपति हर प्रदेश में संसाधनों पर कब्ज़ा जमा रहे है। क्या आज कहीं पीने का पानी क प्याऊ है? हर छोटे बड़े कसबे में दूध मिले या न मिले तथा कथित मिनरल वाटर या रंग बिरंगा बोतलबंद पानी जरूर मिलता है. यह सब क्या है? आपके अपने गाव के किसान को क्या मिलता है? क्या यहीं कारन नहीं कि परिवार से समाज तक सब विखंडन हो रहा है? बड़े-बड़े लोग फार्म हाउसेस में मजे से रहते है पर Agricultre income दिखाते है, आखिर अपने ही नाक के नीचे का हमें क्यों दिखाई नहीं देता?
    इससे पूर्व भी मै लगातार कहता रहा हूँ--- असमानता, अन्याय, अनियोजित विकास ये सब भ्रष्टाचार है इसके लिए हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था दोषी है न कि कोई एक दल। लेकिन इसका इलाज शिक्षा है पर स्कूलों को विस्फोट से उड़ाने वाले भी इनके शुभचिंतक नहीं है. जब मनुष्य विवेकवान बनता है तो अच्छो अच्छो से जवाब तलब कर सकता है। आज आपमें या मुझमे जो शक्ति है वह सरकारों न नहीं दी है बल्कि हमने आपने स्वयं अर्जित की है।
    विषय ज्यादा लम्बा होकर उबाऊ न हो इसलिए आपसे समय की नजाकत को समझते हुए छोटे से छोटे सद्प्रयास को प्रोत्साहित करने की सलाह दूंगा वर्ना राज नैतिक दल क्यों संवेदनशील बनेगे? कैसे बनेगा उनपर जनभावनाओं का दबाव? मै भी जानता हूँ कि सद्भावना दिखावटी है लेकिन क्या हम टिकने ही न देने के दोषी नहीं है?
    यह वैश्विक सत्य है-- शांति के बिना न तो विकास हो सकता है और न सद्भावना! देश में शांति पूर्वक अन्दोलनो का मार्ग प्रशस्त करने की जरूरत है न ही नक्सलवाद को महिमा मंडित करने की . आज यहाँ तो कल शेष भारत में और फिर परसों हमारे आपके घर पर अपनि मांगे मनवाने के लिए हिंसा होगी और आप के पास तर्क भी नहीं होगे .
    मत भूलो चीन जापान कोरिया जैसे तेजी से आगे बढ़ने वाले देश आपके बुद्ध को मानते है, अहिंसा के पक्षधर है लेकिन राष्ट्रहित में कठोरतम कदम उठाने से भी पीछे नहीं रह्ते.
    यह चर्चा जारी रहेगी-- आपके आगमन से आपके उपलब्ध समय तक! तब तक के लिए हम लेते है ब्रेक -- आपका ही-- विनोद बब्बर

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