न्याय के नाम पर बँटती तारीख और बढ़ते मुकद्दमें Nyay??


बेशक सभी स्वयं को न्याय के पक्षधर घोषित करते हैं लेकिन राजनीति में न्याय की अपनी-अपनी परिभाषा  है। कुछ का दर्शन है कि अपने चेहरे की कालिख कम करने के लिए इतनी धूल उड़ाओं कि चहूं ओर भ्रम फैल जाए। ऐसे ‘महापुरुषों’ की कतार में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह सबसे प्रथम खड़े दिखाई देते हैं। वह अपने बढ़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं। हाईकमान के प्रति अपनी निष्ठा सिद्ध करने के लिए वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। विरोधियों के प्रति कठोरतम शब्दों का प्रयोग करना उनका प्रथम अधिकार हैं। ऐसा करते हुए यदि लोकतंत्र की मर्यादा अथवा न्यायपालिका की गरिमा भी आड़े आए तो भी उन्हें परवाह नहीं। कुछ ऐसी ही कारणों से उनके वक्तव्यों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। पिछले सप्ताह उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी ‘सीबीआई पिंजरे में बंद तोता है’ पर उन्होंने शीर्ष न्यायालय को सीमा में रहने की नसीहत दे दी। बेशक दुर्भावना से दिया गया हो लेकिन उनके इस वक्तव्य के उस अंश पर विचार होना चाहिए  जिसमें उन्होंने कहा,  ‘मुकद्दमों की संख्या बढ़ती जा रही है क्यांेकि अदालत के पास उनके लिए समय नहीं जबकि राजनैतिक मामलों की हर रोज सुनवाई होती है।’
न्याय में देरी का मुद्दा महत्वपूर्ण है।  ऐसे लोगों की कमी नहीं जिनका पूरा जीवन ही न्याय के इंतजार में बीत गया। कहा गया है ‘जस्टिस डिलेड इज, जस्टिस डिनाइड’ अर्थात् ‘न्याय में देरी, न्याय से वंचित होना ही है’ क्या यह सत्य नहीं कि आज न्यायालयों में न्याय के नाम पर ‘तारीख पर तारीख’ ही तो मिलती है। एकाधिक स्वयं देश की सबसे बड़ी अदालत भी इस स्थिति पर अपना ‘गुस्सा, पीड.ा और चिंता’ जता चुकी है।
एक अध्ययन के अनुसार भारत में न्याय मिलने में काफी वक्त लगता है और यह प्रक्रिया काफी खर्चीली है। एक दीवानी मामले के निपटारे पर औसतन 15 वर्ष, तो आपराधिक मामले में पांच से सात वर्ष तक का वक्त लगता है।(वर्तमान मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर भी इसे स्वीकार चुके हैं) कई मामलों में तो यह अवधि इससे दुगनी अथवा ज्यादा भी हो सकती है। वर्तमान में तीन करोड़ से अधिक मामले अदालतों में लंबित हैं। (उच्चतम न्यायालय में ही पचास हजार से अधिक मामले लंबित हैं) जबकि न्यायाधीशों के स्वीकृत मात्र लगभग अठारह हजार पदों में से एक चौथाई रिक्त हैं। साधनों की कमी के नाम पर ऐसा होता है। इसीलिए   विधि आयोग की रिपोर्ट में इस ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। अमरीका और ब्रिटेन में 10 लाख लोगों पर करीब 150 न्यायाधीश हैं जबकि भारत में 10 लाख लोगों पर सिर्फ 10 न्यायाधीश हैं। ऐसे में अंतहीन देरी के अतिरिक्त आखिर और क्या संभव है क्योंकि आज भी अंग्रेजों के काल से जारी अनेक नियम जैसे अंग्रेज जज गर्मी में लम्बी छुट्टी पर जाते थे, आज भी जारी है जबकि शेष सरकारी कामकाज हर मौसम में जारी रहता है। आश्चर्य है कि हर छोटे-बड़े मामले में जनहित याचिका के नाम पर अथवा स्वयं संज्ञान लेकर सुनवाई वाले उच्चतम न्यायालय ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि जब गाड़ी से जज साहिब के चैम्बर तक हर जगह वातानुकुलित व्यवस्था है तो फिर गर्मी-सर्दी की छुट्टियों का क्या औचित्य है?
माना कि कुछ मामलों में अपरिहार्य कारणों से देरी हो सकती हैं लेकिन अधिकांश मामलों में देरी अनावश्यक है जैसे झारखण्ड में निचली अदालतों में चल रहे कुल तीन लाख मामलों में से एक चौथाई अर्थात् 75 हजार मामलों में पुलिस रिपोर्ट न सौंपने के कारण कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पा रही। केंद्र और राज्य सरकारों ,स्थानीय निकायों, सार्वजनिक क्षेत्र के प्राधिकरण के बीच चल रहे लाखों मामलों को आपसी तालमेल से निपटाकर अदालतों का बोझ कम किया जा सकता है। इसी प्रकार देश में सर्वाधिक मुकदमे चैक वापसी, मोटर दुर्घटना,  औद्योगिक विवादों से संबंधित तथा छुटपुट अपराधों के हैं जिन्हें बहुत आसानी से कुछ बैठकों में निपटाया जा सकता है। एक बार में ही सारे  सबूत सौंपने तथा अगली तारीख पर प्रतिवादी द्वारा उसका जवाब अनिवार्य कर मामलें को लम्बा खिंचने से रोका जा सकता है। यदि कोई पक्ष जानबूझकर मामले को लटकाने का प्रयास करता है तो उसका संज्ञान लेते हुए उसके विरुद्ध टिप्पणी की जानी चाहिए। इससे अतिरिक्त कुछ वर्ष पूर्व अदालतों की कार्य प्रणाली में सुधार लाने के लिए आरंभ किए गए उपायों  जैसेें सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग,  उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों से सभी जिला अदालतों तक के कम्प्यूटरीकरण और सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिए योजना का कार्य तेजी से बढ़ाया जाना चाहिए। इसके लिए संसाधनों की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि न्यायविहीनता अशांति को जन्म देती है अतः व्यवस्था बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता मिलनी ही चाहिए।
अदालती विलंब का एक कारण कई मुद््दों पर संशय भी होता है। ऐसे में यह लगता है कि मानो कानून अस्पष्ट है। शायद ऐसा इसलिए है कि हर पीठ अपने तरीके से निर्णय देती है और पूर्व निर्णय द्वारा दी गई व्यवस्था को नहीं मानती। अनेक बार उच्च न्यायालय के सामने भी ऐसी अनिश्चितता की स्थिति रहती है तो एक ही अथवा एक जैसे मामलो  में अलग-अलग फैसले आते हैं। यहाँ एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। अगर कोई व्यक्ति किसी आपराधिक मामले की शिकायत थाने में करता है तो पुलिस अक्सर एफआइआर दर्ज नहीं करती है, जबकि अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के अनुसार कोई शिकायत आती है तो पुलिस के लिए प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है। उच्चतम न्यायालय के इस पर कई फैसले हैं। सात निर्णयों में कहा गया है कि प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है जबकि तीन निर्णयों में इसकी उलटी व्यवस्था दी गई है। स्थिति स्पष्ट करने के लिए 2012 में ललित कुमारी मामले में इसे संविधान पीठ को सौंपा गया है जिसपर निर्णय में विलंब नहीं होना चाहिए। कई बार तो ऐसा देखा गया है कि वरिष्ठ अधिवक्ता,   मेडिकल प्रमाणपत्र देकर स्थगन ले लेते हैं और ठीक उसी समय दूसरी अदालत में खड़े पाए जाते हैं। बहुत संभव है कि अनेक बार यह बात सामने के बावजूद स्थगन दे दिया जाता हैं। क्या वकील साहिब द्वारा मुकट्टमें के लिए अच्छी तरह तैयार न माना जाए? आज बेरोजगारी के कारण से बहुत बड़ी संख्या में युवक वकालत की ओर आकर्षित हो रहे हैं लेकिन अनुभवहीनता के कारण भी मामले लटकते हैं। एक मामले में मैं स्वयं साक्षी हूँ। जज ने वकील से गवाह से जिरह करने ंको कहा तो युवा वकील ने मासूमियत से उत्तर दिया, ‘सर आप ही पूछ ले जो पूछना हो!’ स्पष्ट है कि युवा वकीलों के लिए लगातार कार्यशालाओं की  आवश्यकता है जहाँ उन्हें व्यवहारिक जानकारी देते हुए सुनवाई को बेहतर बनाने के लिए तैयार कराना चाहिए।
कभी-कभी न्याय के साथ किस प्रकार की अजीब स्थितियां होती है उसका  एक उदाहरण जेसिका लाल हत्याकांड है जिसमें बेशक पैंतीस गवाह मुकर गए लेकिन साक्ष्य इतने मजबूत और अकाटय थे लेकिन माननीय अदालत ने अभियुक्त को बरी कर दिया। यह मामला जब उच्च न्यायालय में गया तो उसने उस निर्णय को पलटते हुए जिला जज पर कठोर टिप्पणी भी की। इसी प्रकार न्यायमूर्ति आरएस सोढ़ी ने मुकरने वाले गवाहों के खिलाफ अपराध आचार संहिता की धारा 140 के तहत झूठ बोलने का मुकदमा चलाने का आदेश दिया थी लेकिन उसपर आज तक निर्णय नहीं आया।
यह बाम धारणा है कि आज की न्यायिक व्यवस्था बेहद महंगी, लंबी खिंचने वाली है इसीलिए देश का आम आदमी  अदालत में जाने के नाम से ही ों डरता हैं। इस सारे परिदृश्य को तनाव मुक्त बनाने के लिए जरूरत है जैसे साक्ष्य अधिनियम को सरल बनाना, बगैर वकील के भी प्रक्रिया आगे बढ़ाना, हड़ताल जैसी हालत में तारीख देने की जगह सहज कामकाज आगे बढ़ाना, अनावश्यक रूप से मामले को लटकाने वाले पक्ष को दंडित करना जैसे कदम अदालतों के प्रति आम आदमी के विश्वास को बहाल करने में मददगार हो सकते हैं। आर्थिक अपराधों के लिए फास्ट ट्रैक अदालतें गठित करना, सभी मुकद्दमों का समयबद्ध निपटारा, सांध्यकालीन अदालतें की स्थापना को बढ़ावा दिया जाना चाहिए जैसा कि कुछ राज्यों में हो भी रहा है।
वर्षेाें तक निर्णय न होने के कारण अपराधी आरोपी ही रहता है क्योंकि जब तक अपराध प्रमाणित न हो जाये आरोपी को निरपराध माना जाता है। न्याय में देरी न्याय देने से इंकार है इस बात को मानते हुए उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है, तथा संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिध्दांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। यह समय की मांग है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारें अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और न्याय प्रदान करने के तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें। विशेषज्ञों का मत है कि जब न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो जाता है तो विवादों के निपटाने के लिए अराजकता एवं हिंसक अपराध की शरण में जाने की प्रवृत्ति बढ़ती है। इससे पहले कि नकारात्मक प्रवृत्ति पनपे और वातावरण खराब हो व्यवस्था को सचेत होकर न्याय तंत्र में लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए ताकि दिग्गी महाराज जैसे लोगों को कुतर्क का अवसर ही न मिले।

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