उत्तरांखड और हिमाचल के कुछ क्षेत्रों में बरसे कुदरत केे कहर में प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर का ज्योतिर्लिग और सदियों पुराना गुंबद बेशक सुरक्षित रहा लेकिन सैंकड़ों लोगों की जाने चली गई। राहत में युद्धस्तर पर जारी है। अनेक क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां राहत और बचाव टीम को पहुंचने में ही समय लग सकता है। कई गांव पूरी तरह बाढ़ में बह गए हैं और वहां सिर्फ मलबा बचा है। स्थिति गंभीर हैं क्योंकि अधिकांश सड़कें, पुल और संपर्क मार्ग क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। विशेषज्ञ के अनुसार जिस बेदर्दी से हमने विकास के नाम पर पहाडों का नाश किया है, नदियों से छेडछाड और उनके रास्ते बदले हैं, जंगल काटे हैं, यह तांडव उसी का परिणाम अर्थात् प्रकृति का विद्रोह है। बेशक हम ईश्वर से शिकायत करें कि उसने बेगुनाहों को सजा क्यो दी है लेकिन सबसे बड़ी शिकायत तो अपनी सरकारों से है जिसने आपदा प्रबन्धन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। स्वाभाविक है कि उत्तरकाशी पहुंचे प्रदेश के आपदा प्रबंधन मंत्री यशपाल आर्य को पीड़ितों के जबरदस्त रोष का सामना करना पड़ा इसलिए वह कुछ मिनट में ही वहाँ से हट गए। मात्र तीन दिन की बारिश से मचे इस हाहाकार ने आपदा प्रबंधन की पोल खोल दी है। चालीस हजार से ज्यादा लोग रास्ते में फंसे हैं लेकिन सरकार इन्हें निकालने में नाकाम साबित हुई है। ये हाल तब है जब पिछले साल भी उत्तराखंड में ऐसी ही बारिश हुई थी। लेकिन पुरानी घटनाओं से सबक लेना हमने कभी सीखा ही नहीं। आपदा प्रबंधन की तैयारियों पर इसी साल आई रिपोर्ट में कहा गया कि आपदाओं से निपटने की हमारी तैयारी बेहद खराब है। 2005 में बनाई गई नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी नाकाम रही है। 8 साल में भी कोई योजना तक तैयार नहीं की जा सकी। ज्ञातव्य है आपदा प्रबंधन समिति के चेयरमैन खुद प्रधानमंत्री होते हैं। अनुमानत 8 से 10 हजार करोड़ की आर्थिक क्षति प्रतिवर्ष प्राकृतिक आपदाओं के कारण हेती है जबकि आपदा प्रबन्धन पर बजट मात्र 65 करोड़ रुपये है। यह राशि भी प्रचार आदि पर ही खर्च हो जाती है। प्राकृतिक आपदा से ज्यादा क्षति उसके बाद होती है। जैसे बाढ़ में जो जन, धन, फसल की क्षति हुई सो हुई लेकिन पानी उतरते ही बीमारियों का प्रकोप कहर बरपाता है। फिलहाल राहत कार्यों के नाम पर अपने घर भरने तथा बंदरबांट का प्रचलन है। आपदा प्रबन्धन की असफलता की यह कोई पहली घटना नहीं है। बिहार सहित अनेक क्षेत्रों में हर साल आने वाली बाढ़ को रोकना यदि संभव न भी हो तो पूर्व चेतावनी देना और बचाव के इंतजाम तो किये ही जा सकते हैं। बाढ़ के कारण हर साल हजारों हेक्टेयर जमीन पर खड़ी फसल नष्ट होजाती है तो अनमोल जानें जाती है। इसी प्रकार समुद्री तूफान तथा भूकंप लगातार विनाश कर रहे है कुछ वर्ष पूर्व लाटूर तथा गुजरात में आए भूकम्प के कहर ने भारी जन-धन हानि की थी क्योंकि आपदा प्रबन्धन लगभग अनुपस्थित था। कटू सत्य तो यह है कि प्राकृतिक आपदाओं तथा मानवीय मूल से होने वाली आपदाओं में जानमाल की क्षति का हमारा रिकार्ड अच्छा नहीं माना जा सकता क्योंकि राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन प्राधिकरण के होेेते हुए भी हम आम जनता में जागरूकता उत्पन्न नहीं कर पा रहे हैं। जबकि प्रभावी आपदा प्रबन्धन की पहली शर्त है जागरूकता ताकि प्रभावित क्षेत्रों में तत्काल राहत कार्य आरम्भ किये जा सके। यहाँ जागरूकता का अर्थ केवल सरकारी एजेंसियों तक सीमित नहीं किया जा सकता बल्कि आम व्यक्ति में भी इस प्रकार की सोच और क्रियान्वयन की क्षमता होनी चाहिए। यदि देश भर में मानवीय भूल से होने वाली आपदाओं जैसे रेल- दुर्घटनाओं आदि के बाद की स्थिति पर विचार करें तो एक बात समान रूप से उभरकर सामने आती है कि हर स्थान पर सरकारी एजेंसियों से पहली स्थानीय लोगों ने बचाव कार्य आरम्भ किये। फंसे, दबे हुए घायलों को सुरक्षित निकालने का कार्य बिना किसी तकनीकी ज्ञान के करना भारतीय लोगों की प्रकृति प्रदत्त योग्यता और साहसिक भावना है। लेकिन जब यही कार्य सरकारी एजेसियों द्वारा किया जाता है तो आपदा प्रबन्धन के आवश्यक तत्वों नियोजन, समुचित संचार व्यवस्था, समन्वय और नेतृत्व का अभाव हर जगह अनुभव किया जाता है। एक से अधिक एजेंसियां होने के कारण अपनी लापरवाही का दोष दूसरे पर मढ़ना आम बात है। यदि हम अपने संसाधनों की स्थिति को देखें तो भयावह तस्वीर उभरती है। हमारे देश का आधे से अधिक स्थान (59 प्रतिशत) भूकम्प के खतरे में है। 95 लाख हेक्टैयर भूमि बाढ़ की चपेट में आती है। जिससे सैंकड़ों साधनहीनों को प्राण ग्रवाने पड़ते हैं। आंधी, तूफान, चक्रवात, सुनामी के विनाश को भी इसमें शामिल कर दिया जाए तो तस्वीर काफी बदरंग नजर आने लगती है। इस स्थिति से बचाव के लिए तैनात लोग बहुत अधिक आपदाओं के होने को विनाश का जिम्मेवार ठहराकर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं लेकिन वे इस तथ्य की अनदेखी करते हैं जिसके अनुसार अमेरिका और जापान भूकम्प की सबसे ज्यादा मार झेलते हैं। भारत की तुलना में वहाँ का आंकड़ा काफी विस्तृत है लेकिन वहाँ जान-माल के नुकसान के आंकड़ा हमसे काफी कम है। वहाँ बहुमंजिला इमारतों पर भूकम्प का असर कम से कम पड़ता है क्योंकि वे सचेत हैं। उनके नियम कानून व्यवहारिक हैं और उनका पालन लगभग शत-प्रतिशत होता है जबकि हमारी स्थिति इससे ठीक उल्ट है। यहाँ भी नियम कानून कम नहीं है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण उन्हें नजरअंदाज किया जाना आम बात है। हमारा आधा भूभाग प्राकृतिक आपदाओं के संभावित क्षेत्र में है लेकिन विकास के नाम पर जिस तरह मनमानी की गई उससे समस्त भूभाग ही आपदा को आमंत्रण देता नजर आता है। धार्मिक स्थानों, मेलों में भगदड़ हो या तंग बस्तियों में अग्निकांड, सड़क पर होने वाली दुर्घटनाएं, जहरीली शराब के प्रयोग जैसी शर्मनाक घटनाओं की पुनावृति न हो, इसके लिए सरकार को स्थाई व्यवस्था करनी चाहिए। पिछले दिनो इलाहबाद में हुए कुम्भ में रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ के कारण अनेक जाने गई तो कभी मंडी डबवाली का अग्निकांड भुलाए नहीं भूलता जहाँं स्कूल के वार्षिक उत्सव में छात्र और उनके अभिभवक असमय कालकल्वित हो गए थे। बेशक उसके बाद से सावधनी का बहुत शोर हुआ लेकिन स्थिति क्या है इसकी एक बानगी देखे। देश की राजधानी दिल्ली की लगातार बढ़ती आबादी के बावजूद शादी आदि समारोहों के लिए सामुदायिक भवन बहुत कम है, उस पर भी अधिकांश बदहाल हैं।ं कुछ पार्कों और मैदानों में सरकारी एजेंन्सियों को भारी- भरकम शुल्क चुकने के बाद टेंट लगाकर समारोह आयोजित किए जा सकते हैं। वहाँ भी एक साथ चार से छः समारोह होते हैं। सभी का खाना वहीं बनता है। ऐसे में जरा सी चूक बहुत बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती है। ऐसे में प्रश्न यह है कि लोग करें तो आखिर क्या करें? छोटी-तंग गलियों में टेंट लगाकर जैसे-तैसे काम निकालने वाले स्वयं भी परेशान होते हैं तो दूसरी ओर क्षेत्र के लोगो का रास्ता रूकता है। ऐसे स्थानों पर ईश्वर न करे, कोई दुर्घटना हो जाए तो बचाव दल का पहुँचना भी आसान नहीं हो सकता। यह सर्वसिद्ध है कि जहाँ लापरवाही होगी, दुर्घटना संभव है। अतः आपदा प्रबन्धन की तैयारी भी होनी चाहिए। लेकिन आपदा प्रबन्धन तभी सफल हो सकता है जब जन-जन में चेतना हो, इसके लिए स्कूली पाठ्यक्रमों में इसे आवश्यक विषय के रूप में शामिल किया जाना चाहिए। समय- समय पर टेªनिंग कैम्पों का आयोजन कर ऐसे समय होने वाले तनाव से बचने को राष्ट्र की भावी पीढ़ी के चरित्र में शामिल किया जाना चाहिए। इस विषय पर जापान से प्रेरणा ली जा सकती है। कुछ माह पूर्व आये सुनामी ने भारी तबाही मचाई लेकिन जापानियों ने कुदरत के इस प्रकोप का जिस दिलेरी और कौशल से मुकाबला किया, वह काबिले तारीफ है। बिना किसी की सहायता लिए उन्होंने सब कुछ पहले से भी बेहतर बनाकर अपने आपदा प्रबंध कौशल एवं अपने राष्ट्रवादी चरित्र को एक बार फिर से प्रमाणित किया। आपदा बेशक एक असामान्य घटना होती है लेकिन इसके चिन्ह मानव मन को आसानी से सामान्य नहीं होने देते। विज्ञान ओर तकनीक आपदा प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लाटूर, उत्तराखंड, गुजरात के भूकम्पों से मची तबाही की याद आज भी डराती है लेकिन गुजरात ने इससे सीख लेते हुए अपने प्रबन्धन को बेहतर बनाया है। सैंकड़ों किलोमीटर की समुद्री सीमा तथा भूकम्प के मामले में संवेदनशील क्षेत्र में होने के कारण आपदा प्रबन्धन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है। वहाँ प्रबन्धन दल के पास 20 मीटर गहरे दबे मनुष्य की दिल की धड़कन सुनने वाले यंत्र हैं, लगातार 12 घंटे गोताखोरी के दौरान आक्सीजन देने वाला श्वसन यंत्र है, पानी के अन्दर, भूमि में गहरे तक की तस्वीरे लेने वाला प्रणाली है। हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट है जो मजबूत छत या फर्श को तोड़कर अथवा गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का कार्य करता है। अति आधुनिक अग्निशमन प्रणाली है जो विशेष प्रकार के उपकरणों से लैंस हैं ये प्रणाली सामान्य से कई गुना कम पानी में भी प्रभावी साबित होती है। जरूरत है अमेरिका जैसे देशों से भी सीख ली जाए जहाँ लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में अथवा ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन से रस्सा पहुँचा कर सुरक्षित बचाने की प्रणाली भी है। आज की सबसे बड़ी जरूरत है देश भर के इंजीनियरों, डाक्टरों, अफसरों, जनप्रतिनिधियों का ऐसी टेªनिंग दी जाए जो विषम से विषम परिस्थितियों में भी मजबूत मनोबल व पूरी क्षमता से कार्य कर सकंे। इस कार्य में अन्य स्वयंसेवी संगठनों, एनसीसी, एनएसएस, विविल डिफेंन्स, होमगार्ड, कालेज छात्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए। हर स्कूल में चाहे वो निजी हो या सरकारी या पंथ का NCC......NSS....स्काउट गाईड औऱ ...आपदा बचाव फर्स्ट एड ट्रेनिंग कक्षा तीन से स्नातक तक अनिवार्य हो-खतरनाक ज़ोन पर जन भार कम हो --मानक निर्माण हो, प्रकृति की रक्षा हो --पहाङ पर तीर्थों पर केवल तीर्थाटन हो सैर सपाटा मौज मस्ती नही--बारूद और शोर बंद हो-नदियों को जोङना और नालों गंदे बहाव से अलग रखना -पॉलिथीन मुक्त भारतआपदा प्रबन्धन में लापरवाही को राष्ट्रीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। हमें यह समझना ही होगा कि आपदा प्रबंधन की अनुपस्थिति समस्त उपलब्धियों पर पानी फेर सकती है। आओं फिलहाल मृतकों की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करते हुए परमपिता परमात्मा से हम सभी को आपदा प्रबन्धन के प्रति जागरूक होने का विवेक प्रदान करने की कामना करे।
आपदा प्रबंधन की अनुपस्थिति--- डॉ. विनोद बब्बर Absence of disaster management--- Vinod Babbar
Reviewed by rashtra kinkar
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08:05
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