असंभव को संभव बनाने की कला--- डॉ. विनोद बब्बर Politics

देश लोकसभा चुनावों की दहलीज पर है। एक वर्ष से भी कम समय शेष है लेकिन राजनैतिक विश्लेषक इसी वर्ष चुनावों के कयास लगा रहे हैं। ऐसे में चुनाव बाद की तस्वीर पर अटकले लगाने से सार्थक संवाद तक बहुत कुछ जारी है। जहाँ नेता अपनी-अपनी तैयारी कर रहे हैं वहीं सामाजिक संस्थाएं भी अपनी भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं। पिछले दिनों एक पत्रिका ने ‘कैसा हो देश में राजनीति का स्वरूप’ विषय पर परिचर्चा आयोजित की जिसमें देश के प्रमुख दलों के प्रबुद्ध कहे जाने वाले नेताओं ने भी भाग लिया। सभी ने लगभग एकमत से स्वीकार किया कि राजनीति में कड़वापन और कठोरता आ गई है। नेता बनने के लिए मापदंड बदल गए हैं व राजनीतिक दलों की ढांचे में परिवर्तन आया है। वे ‘वर्तमान में आदर्श नेता कौन’ पर चुप्पी साधे रहे तो ‘अगला नेता कौन’ का भी सत्तारूढ़ दल से विपक्ष तक किसी ने भी कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। इस बात पर भी सहमति रही कि आने वाले दिनों में क्षेत्रीय राजनीतिक दल देश की राजनीति में बड़ी भूमिकाएं निभाएंगे।
राजनैतिक शास्त्र के छात्र  ‘असंभव को संभव बनाने की कला’ को राजनीति बताते है लेकिन आम आदमी के लिए राजनीति ‘टेढ़ी खीर’ है। एकजुट दिखने वाले कुर्सी के लिए बुरी तरह बंटे हुए हो या बाहर से बुरी तरह विभाजित दल अचानक गलबहियॉ करें तो साधारण मतदाता चक्कर में पड़ जाता है। कभी-कभी भ्रम होता है कि वे जनता को बेफकूफ बनाने के लिए गुत्थम-गुत्था हो रहे हैं।
यह भी स्पष्ट है कि मौसम पर भविष्यवाणी करना बेशक आसान हो पर राजनीति पर भविष्यवाणी खतरे से खाली न होगी। रिटायर घोषित कर दिये गये पी.वी. नरसिंहाराव का अचानक देश के सबसे बड़े पद पर विराजना, बिना जनाधार वाले गुजराल, देवगौड़ा अथवा वर्तमान प्रधानमंत्री के अभ्युदय की कल्पना तक शायद ही किसी ने की हो। राजनीति की अनिश्चितता को देखते हुए यह भी संभव है कि देश के दोनो प्रमुख दलों को धता बताते हुए कल कोई मुलायम, नितिश अथवा ऐसा ही कोई नेता देश का भाग्य विधाता  बन जाये। ऐसे में यह प्रश्न कि क्या राष्ट्रीय राजनीति की राह अब क्षेत्रीय राजनीति की फिसलभरी सफलता-असफलता  से प्रभावित होगी?
बेशक कांग्रेस में नेतृत्व का फैसला एक परिवार विशेष द्वारा तय किया जाना निश्चित है लेकिन भारतीय जनता पार्टी में जिस तरह का वातावरण है उससे किसी प्रकार की निश्चिंतता का संकेत नहीं है। गोवा में हुई भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में लालकृष्ण आडवाणी की अनुपस्थिति में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिस तरह से चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाने की घोषणा के चौबीस घंटे के अंदर ही आडवाणी ने पार्टी के निर्णायक माने जाने वाले संसदीय बोर्ड, राष्ट्रीय कार्यकारिणी और चुनाव समिति  से  इस्तीफा दिया उससे  भाजपा की अस्थिरता दुनिया के सामने आ गई। यह भाजपा की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हस्तक्षेप का प्रभाव है कि उन्होंने अपना इस्तीफा वापस लेकर संकट को टाल दिया। इसे मात्र संकट टलना ही कहा जाएगा क्योंकि मतभेद मिटना जितना आसान होता है, मनभेद मिटना उतना ही कठिन होता है।
राजनीति में महत्वकांक्षा रखना अपराध नहीं है। हर छोटा- बड़ा नेता इसीलिए अपने जीवन का श्रेष्ठ समय राजनीति को देता है। इससे शायद ही कोई इन्कार करेगा कि आडवाणी का भाजपा को खड़ा और बड़ा करने में बहुत बड़ा योगदान है, लेकिन आज अगर किसी अन्य की लोकप्रियता उनसे अधिक है तो इस तथ्य और सत्य को उनके जैसा अनुभवी राजनैतिज्ञ स्वीकार नहीं कर पा रहा तो इसे विडम्बना ही कहा जा सकता है। अपने इस्तीफे में आडवणी ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी से दीनदयाल, नानाजी और अटल का उल्लेख किया है लेकिन वे स्वयं भूल रहे हैं कि मुखर्जी और उपाध्याय तो बेशक काल कलवित होकर तथा अटल स्वास्थ्य के कारण राजनीति से दूर हुए लेकिन नानाजी देशमुख ने यह कहते हुए कि उम्रदराज नेताओं को सक्रिय राजनीति से हट जाना चाहिए,  स्वयं को नेतृत्व की दौड़ से अलग करते हुए रचनात्मक कार्ये में लगा लिया था। ऐसे में आडवाणी भी यदि समय की धारा के विरूद्ध चलने की कोशिश करने की बजाय  बड़प्पन दिखाते तो इतिहास उन्हें और अधिक श्रद्धा से स्मरण करता।
निर्विवाद रूप से आडवाणी संयमी और बेदाग व्यक्तित्व के स्वामी हैं। उनकी साहित्य व इतिहास में गहरी रूचि तथा अध्ययनशीलता को देखते हुए पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उन्हें अवश्य जानकारी होगी कि कभी चर्चिल ने कहा था, ‘बेशक योग्य नेता वह है जो जानता है कि उसे कब क्या कहना अथवा करना है लेकिन योग्यतम वह है जो समझे कि उसे कब हटना है।’ चर्चिल के इस कथन को एक देश, काल अथवा  परिस्थिति तक सीमित नहीं किया जा सकता। राजनीति ही क्यों परिवार में भी जब बुजुर्ग अपनी राय सबपर थोपने पर आमादा हो जाते हैं तो स्वयं अपने ही उन्हें किनारे लगा देते हैं। परिवार की टूटन का एक कारण उनके इस प्रकार के व्यवहार को भी माना जा सकता है। जो लोग बार-बार पश्चिम की ‘ओल्ड होम’ अवधारणा की निंदा करते नहीं थकते हैं उन्हें अपने खुद के वातावरण में इसके बढ़ते प्रभाव पर चिंतन करना चाहिए।
इस बात पर भी चिंतन होना चाहिए कि अपने ही द्वारा सींचे गए पौधे को हिलाने का काम कर कोई विवेकशील अकारण नहीं करता। हर गुरु अपने शिष्य को बढ़ते हुए देख जिस सुख और गौरव की अनुभूति करता है वह शब्दातीत है। मोदी को बचाने से बढ़ाने तक की भूमिका निभाने वाले आडवाणी  के साथ जरूर कुछ ऐसा हुआ होगा कि वह अपनी छवि तक को बलि चढ़ा देने पर आमादा हो गए। निश्चित रूप से मोदी का अडियल व्यवहार इसका जिम्मेवार रहा होगा। संघ और हर मोदी समर्थक को मोदी को सर्वस्वीकार्य बनने के गुर सिखाने चाहिए। अपने ही घर के हीरेन पाण्डया के साथ हुए व्यवहार से उनके हश्र और संजय जोशी से तोगडिया के प्रति उनकी कटूता को उचित नहीं ठहराया जा सकता। लोकतंत्र के विषय में कहावत है कि ‘सिर्फ गंजे भी विरोधी हो जाए तो सरकार चलाना मुश्किल हो जाता है’ योगगुरु बाबा रामदेव से निकटता का लाभ उठाते हुए नरेन्द्र मोदी को अपनी असहिष्णुता का अध्यात्मिक यौगिक उपचार कराना चाहिए। लोकतंत्र लोकलाज से चलता है। अन्य दलों और दिलों में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाये बिना मोदी की राह कंटकाकीर्ण बनी रहेगी। बेशक स्थितियां अनुकूल हैं, जनता कांग्रेस के कुशासन और लगातार हो रहे महाघोटाले से अजीज आ चुकी है लेकिन बड़े से बड़ा मोदी समर्थक भी यह दावा नहीं कर सकता कि अगले चुनाव में भाजपा को अकेले बहुमत प्राप्त होगा है। जब गैरों तक से मिलकर ही चलना है तो क्यों न स्वयं द्वारा उपेक्षित किये अपनो से मिलकर चलने से इसकी शुरुआत की जाये। अगर अडवाणी अस्ताचल की ओर है तो भाजपा के मोदी रूपी नये चेहरे को उनके प्रति श्रद्धा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए उनकी सम्मान पूर्वक विदाई का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। नेतृत्व न सही, उनके अनुभवों का लाभ लेना उनका अधिकार ही नहीं कर्तव्य भी है। परंतु ऐसा तभी संभव है जब मोदी सहित हर नेता ‘नमो-नमो’ को केवल नारा नहीं अपने व्यवहार का अंग बनाये। स्वयं को भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा पैरोकार घोषित करने वाले यदि स्वयं अपने इतिहास से सबक न लेते हुए अहम् के शिकार बने रहे तो इस देश के लोकंतत्र का भगवान ही मालिक है। देश की कोटिशः जनता को आशा ही नहीं विश्वास है कि आधुनिक भीष्म ही नहीं अर्जुन भी अपनी जिम्मेवारी को समझेगा और यह ताजा महाभारत का ‘शांति पर्व’  शांति, समृद्धि और सद्भावना के नया अध्याय प्रस्तुत करेगा। राष्ट्र को परम वैभव पर ले जाने के अपने नित्यप्रति के संकल्प को साकार करने का अवसर सामने हो तो अतिरिक्त संयम की आवश्यकता होती है। अब ‘नमो’ का सार्वजनिक व्यवहार ही तय करेगा है कि वे अहम के लिए हारते हैं या स्वीकारते हैं। आज उन्हें समझना ही होगा ‘इदम् राष्ट्राय, इदम् न मम्!’

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