राजनीति की भाषा और भाषा की राजनीति---डॉ. विनोद बब्बर

राजनीति की भाषा के गिरते स्तर के बारे में कौन नहीं जानता परंतु   विरोध के विरोध करते हुए हमारे नेता भाषा को राजनीति का मोहरा बनाने से भी पीछे नहीं रहते। पिछले दिनो भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा, ‘एक समय भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। आधुनिकता की चकाचौंध में सबकुछ खो गया है। मैं कहना चाहता हूं कि सबसे ज्यादा क्षति इस देश को पहुंची है तो वो है अंग्रेजी भाषा के कारण। लगता है हम अपनी भाषा और संस्कृति से ऊबते जा रहे है। आज देश में कितने लोग हैं जिन्हें संस्कृत बोलना आता है?’ 
आज जब चुनावी अश्वमेघ का घोड़ा खुल चुका है अपने विरोधी की किसी भी सही या गलत बात का विरोध करना, उसे काटना जैसे हर दल के लिए जरूरी है। राजनाथ के वक्तव्य को कांग्रेस के प्रवक्ता ने ढ़ोग बताया। आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ जिससे भाषा की अस्मिता का सवाल दब गया। इसी बीच समाचार यह भी है कि सर्वाेच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में वहाँ की राजभाषा में कार्यवाही की मांग को लेकर 225 दिनों से धरना दे रहे हिन्दीप्रेमी श्याम रुद्र पाठक को दिल्ली पुलिस ने धारा 107 और 151 के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है।
दुनिया के शायद ही किसी अन्य देश में ऐसा हुआ हो कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी अपनी मातृभाषा के लिये संघर्ष करना पड़े। परंतु भाषणवीर नेताओं के रहते भारत में ऐसा हो रहा है कि भारतीय भाषाओं पर विदेशी अंग्रेजी हावी है। कहने को देश के संविधान में हिन्दी संघ की राजभाषा है तो राज्यों में वहाँ की मातृभाषा को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। हमारे कई राज्यों का गठन भी भाषा के आधार पर ही हुआ है परंतु देश व राज्यों की राजभाषा की स्थिति क्या है, यह सभी जानते हैं। इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेवार है तो वह हैं हमारे नेता जो वोट तो देश की भाषा में मांगते हैं लेकिन सत्ता की कुर्सी तक पहुंचते ही विदेशी भाषा के भक्त बन जाते हैं। संयुक्त राष्ट्र के मंच पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्र का गौरव बढ़ाने वाले स्वनाम धन्य हिन्दीभक्त नेता भी सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद हिन्दी के लिए कुछ नहीं कर सके। शिकायत करने पर उनका जवाब था, ‘हिन्दी में बात करना आसान है लेकिन हिन्दी की बात करना कठिन।’
स्पष्ट है कि भाषा की वर्तमान स्थिति के लिए दोषी कोई एक पक्ष नहीं है। अपने बारे में सोचने, समझने, निर्णय लेने की हमारी भाषा क्या होनी चाहिए इस प्रश्न पर हम अनिश्चिय में है। राजनीति की तर्क-कुतर्क की परंपरा भाषा के सवाल को लगातार उलझाने का कार्य कर रही है। वे नहीं जानते कि अपनी भाषायी बहुलता के साथ उन्हें क्या सलूक करना चाहिए। आश्चर्य की बात यह है कि विभिन्न विचारधाराओं के विद्वान नेताओं में एक अद्भुत सहमति है। ऊंचे पदों पर बैठे ये लोग लाख मतभेदों के बावजूद इस बात पर एकमत हैं कि भारतीय भाषाओं की उपयोगिता समाप्त हो गई है; ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। यह दिलचस्प है कि सांस्कृतिक बहुलवाद के पुरोधा विद्वान भी भाषा का सवाल आते ही अंग्रेजी की खोल में सिमट जाते हैं।
यह इस देश का दुर्भाग्य है कि कुछ लोग यह मानते हैं कि अंग्रेजी ही देश में महत्व और सम्मान पाने का एकमात्र माध्यम है। वे यह भी घोषित करते है कि भारतीय समाज की समझ भी केवल अंग्रेजी के सहारे बन सकती है। शायद यही कारण है कि आज भी हमारे विश्वविद्यालयों में ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी में उपलब्ध है। आखिर क्या कारण है कि अपने ही समाज की समझ हम अपनी भाषा में नहीं बना पा रहे हैं। आत्मसम्मान विहीन अंग्रेजी बोलने वाले उच्चवर्गीय लोगों को लगता है कि ज्ञान का केंद्र अब भी यूरोप है। ये नासमझ लोग भूलते हैं कि भाषायी असमानता के कारण बहुत-सी प्रतिभाओं की असमय हत्या हो जाती है क्योंकि एक भाषा विशेष के नाम पर उन्हें अच्छे विश्वविद्यालयों अथवा व्यवसायिक कोर्स में प्रवेश से वंचित रहते हैं। 
यह सत्य है कि वर्तमान युग में किसी एक भाषा से काम चलने वाला नहीं है। भारतीय भाषाओं में लिखने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी नहीं पढ़ने की कसम खा ली गई है। सच तो यह है कि कुछ वर्षों में सबसे उज्ज्वल भविष्य द्विभाषी लोगों का ही होगा। अब तो पेंगुइन जैसे प्रकाशन भी हिंदी में पुस्तकें छापने लगे हैं। हिंदी का समाचारपत्र भारत का सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार है। भारतीय भाषाओं के सिनेमा उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। अपनी भाषा के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं का भी काम लायक ज्ञान हो तो अच्छा है। भाषा के सवाल पर अनावश्यक दबावों को दर किनार कर सोचना होगा कि जब कोई व्यक्ति तीन महीने में जर्मन, फ्रेंच या रूसी भाषा सीख  सकता है तो अंग्रेजी को बचपन से ही लादना क्यों जरूरी है? आखिर किसी को इस भाषा में पारंगत होने में बीस वर्ष क्यों लग जाते हैं? क्यों भारत में अंग्रेजी पढ़ाने की दुकानें इतनी चलती हैं? क्यों नहीं विद्यालयों में आधुनिक तरीके से भाषाओं की शिक्षा दी जा रही है?
आज ऐसे वातावरण के निर्माण की आवश्यकता है जहाँ भाषा के कारण अपमान सहने की आवश्यकता न हो। किसी छात्र का अनुभवजन्य ज्ञान इस वजह से व्यर्थ न चला जाए कि उसे अंग्रेजी नहीं आती। अंग्रेजी का राजपाट के साथ जो नाजयज संबंध है उसे विच्छेद किया जाए। यदि हम कभी विश्व में अपना स्थान बनना चाहते हैं तो निज भाषा के सामर्थ्य को समझना होगा। यह व्यवस्था करनी होगी कि हर भारतीय भाषा में प्राप्त ज्ञान सभी को उपलब्ध हो ताकि हम अपनी परंपरा की पूंजी को उपयोग में ला सकें।
भाषा हमारे विचारों की अभियक्ति का माध्यम है। लेकिन जब हम अपने विचार मातृभाषा में व्यक्त करने और समझने में सक्षम है तो अकारण विदेशी भाषा बोलना अपने आप को किसी दूसरे के सामने ऊँचा दिखने जैसा लगता है।. हाँ यदि अंतराष्ट्रीय स्तर पर आप किसी से बात कर रहे है तब उस भाषा में बोलना सही है जिसमे सामने वाला समझ सके। वह संपर्क भाषा होनी चाहिए, न कि अपने व्यक्तित्व को अंग्रेजी रंग में रंगने का माध्यम। यह तथ्य भी भ्रामक है कि अँग्रेजी बिना विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई नहीं हो सकती। जापान और फ्रांस हमारे सामने उदाहरण हैं जहाँ बिना अँग्रेजी के भी विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई होती है। पूरे जापान में इंजीनियरिंग, मेडिकल के जितने भी कॉलेज और विश्वविद्यालय हैं सबमें पढ़ाई उनकी अपनी भाषा जापानी में होती है। इसी प्रकार फ्रंास में बचपन से लेकर उच्च शिक्षा तक सब फ्रंेच में पढ़ाया जाता है। 
हमारे शहरों जितने बड़े देशों में हर साल नोबल विजेता पैदा होते हैं लेकिन हमारे इतने विशाल देश में नहीं होते क्योंकि हम विदेशी भाषा के दीवाने हैं। यह तथ्य सर्वमान्य है कि विदेशी भाषा में कोई भी मौलिक काम नहीं किया जा सकता सिर्फ रटा जा सकता है। कौन नहीं जानता कि विश्व विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, आइंस्टीन, मैक्सप्लांक बहुत पढ़े लिखे नहीं थे। शेक्सपियर, तुलसीदास, महर्षि वेदव्यास आदि के पास कोई डिग्री नहीं थी, इन्होनें सिर्फ अपनी मातृभाषा में काम किया। जापान ने इतनी जल्दी इतनी तरक्की इसलिए की क्योंकि जापान के लोगों में अपनी मातृभाषा से जितना प्यार है उतना ही अपने देश से प्यार है। जापान के बच्चों में बचपन से कूट- कूट कर राष्ट्रीयता की भावना भरी जाती है। 
जहाँ तक निज भाषा और उसकी संवेदना का प्रश्न है, गांधीजी की पोती तारा भट्टाचार्य के वह कथन  विचारणीय है जो उन्होंने राजघाट पर आयोजित राष्ट्रभाषा सम्मेलन में प्रकट  किया था। श्रीमती तारा के अनुसार बचपन में वह अपने दादा जी के साथ अंग्रेज राजकुमार से मिली तो उसने तारा से हाथ मिलाते हुए ‘हाऊ डू यू डू?’ कहा। बालिका तारा उसे बता रही थी ‘कल रात उसे बुखार था इसलिए वह.......’ तो अंग्रेज राजकुमार मुस्कुरा रहा था। इसपर गांधीजी ने तारा को आगे कुछ कहने से रोका। बाद में तारा ने पूछा कि आपने मुझे क्यों रोका तो गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘हाऊ डू यू डू के जवाब में तुम्हे केवल फाइन ही कहना चाहिए था क्योंकि अंग्रेजी में केवल यही कहने की परम्परा है’ इसपर बालिका तारा ने  बिगड़ते हुए कहा, ‘दादाजी, यह कैसी भाषा है- जिसमें आप पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर देने के बजाय केवल ‘फाइन’ कहने को मजबूर है। नहीं मैं अंग्रेजी नहीं सीखना चाहती।’
स्पष्ट है कि भारतीय भाषाओं के प्रचार, प्रसार और निजी जीवन से रोजमर्रा के कामकाज में अपनी भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए। पंजाब की एक घटना का उल्लेख सामयिक होगा। एक बार आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने पंजाब के एक समारोह में भाषण से पूर्व वहाँ के मुख्यमंत्री से पूछा कि ‘वह किस भाषा में बोले’ इस पर मेजबान ने कहा, ‘अपनी भाषा तेलुगु में।’ सही ही है विदेशी भाषा से अपने देश की भाषा लाख दर्जे बेहतर हैं। लाख असहमतियां हो लेकिन मुलायम सिंह का भाषायी दृष्टिकोण तथाकथित राष्ट्रीय दलों के नेताओं से बेहतर रहा है। वह भारतीय भाषाओं के पक्षघर हैं। काश हमारे सभी नेताओं को सद्बुद्धि होती! उन्हें सद्बुद्धि दिलाने का पुण्य कार्य केवल और केवल हम सब मिलकर ही कर सकते हैं।
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