मजबूर बनाम मजबूत-- डा. विनोद बब्बर

हर सभ्य समाज अपने भविष्य के लिए सुनहरे सपने बुनता है। इन सपनों को साकार करने के लिए चाहिए सक्षम व्यवस्था। केवल व्यवस्था ही अपने आप में पर्याप्त नहीं है  बल्कि उसे सक्रिय, सजग संवेदनशील, समर्पित, सदाचारी बनाये रखने के लिए चाहिए मजबूत नेतृत्व। आज देश की सीमाओं से सड़क तक फैली अव्यवस्था हो या लगातार कमजोर होती आर्थिक स्थिति, रुपये की गिरती कीमत, भ्रष्टाचार पर काबू पाने में असफलता, आदि एक ओर प्रशासन की दृढ़ता और इच्छा शक्ति के अभाव के परिचायक हैं तो दूसरी और नेतृत्व की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। नेतृत्व से अपेक्षा की जाती है कि वह उपलब्धि, प्रेरणा, महत्वाकांक्षा, शक्ति, तप और पहल का स्रोत बने। उसे विश्वसनीयता, मानवता, साहस, और अनुशासन से ओत-प्रोत क्षमता वाला होना चाहिए। यदि वह अपना प्रभाव खो दे तो उसे मजबूत कहना तो दूर नेतृत्व के योग्य भी समझा जाना चाहिए या नहीं यह आज का सबसे बड़ा प्रश्न है। यह चिंता सर्वत्र दिखाई देती है। यहां तक कि सोशल मीडिया पर जो जुमला सबसे अधिक लोकप्रिय है वह है ‘उसपार नाम के शरीफ, इस पार नाम के सिंह लेकिन न उधर शरीफ -न इधर सिंह!’
मजबूत नेतृत्व का अभाव चहूं ओर खटक रहा है परंतु कुछ लोग ‘स्थिरता’ को अपनी उपलब्धि बताने वाले भी कम नहीं है तो दूसरी ओर ‘स्थिरता बनाम जड़ता’ के दावे भी बहुत हैं। स्पष्ट है कि समस्या किसी एक दल की नहीं, सम्पूर्ण लोकतंत्र की है जहां बार-बार गठबंधन सरकारे बनती है। ऐसे में छोटे- से-छोटे दबाव समूहों की भूमिका  भी बहुत बड़ी हो जाती है। उसपर भी ‘रिमोट कंट्रोल’ अथवा ‘चरण पादुका’ शासन प्रणाली का विकास  समस्याओं में वृद्धि कर रहा है। आज शासकों की स्थिति मैनेजर जैसी हो रही है जो जैसे-तैसे स्वयं को बचाये रखने के मैनेजमेंट में व्यस्त रहता है। ऐसे में शासन करने का उसके पास समय और क्षमता बचती ही कहां है? 
देश पर हावी अफसरशाही बनाम प्रबंधकों की टीम के दुष्प्रभाव सामने है जो अकारण नहीं हैं। यह तथ्य समझने योग्य है कि नेतृत्व यदि प्रबंधन में ही व्यस्त रहे तो देश का बहुत बड़ा अहित होना आश्चर्य की बात नहीं हो सकती। प्रबंधक व नेता के विषय में एक  विचारक का मत है- प्रबंधक प्रशासन चलाते है; नेता नवीनताएँ लाते है। प्रबंधक पूछते हैं - कैसे और कब; नेता पूछते हैं - क्या और क्यों। प्रबंधक प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं तो नेता लोगों पर ध्यान केंद्रित करते है। प्रबंधक काम सही करते हैं, नेता सही काम करते हैं। प्रबंधक यथास्थ्तिि बनाये रखने में विश्वास रखते हैं तो नेता विकास में। प्रबंधक नियंत्रण पर निर्भर करते हैं, नेता भरोसा प्रेरित करते हैं। प्रबंधक के पास अल्पकालिक परिप्रेक्ष्य होते हैं, नेता के पास दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य होते हैं। प्रबंधक एक स्तर को बनाए रखते हैं, नेता स्तर को चुनौती देते हैं। प्रबंधक की नजर निम्न पंक्ति पर होती हैं, नेता की नजर क्षितिज पर होती है। प्रबंधक नकल करते हैं, नेता के लिए नया करना ही जीवन हैं। प्रबंधक अच्छे सिपाही का अनुकरण करते हैं, नेता को एक अनूठा कप्तान होना चाहिए। प्रबंधक अनुकरण करता हैं तो नेता के पास मौलिकता होती हैं।   
स्वतंत्रता के 66 वर्ष पूर्ण करने के बाद भी यदि हम इन सवालों से जूझ रहे हैं तो स्पष्ट है कि आज देश को मजबूत नेतृत्व की जितनी जरूरत है उतनी स्वतंत्र भारत के इतिहास में इससे पहले कभी महसूस नहीं हुई थी।  देश जिन समस्याओं से जूझ रहा है उनसे उसे छुटकारा दिलाने के लिए किसी भी राजनीतिक दल के पास कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है। जोरदार भाषण देकर तालियां बजवाना एक बात है लेकिन नीतियों का विरोध करने वालों के पास वैकल्पिक नीतियों का अभाव चिंता उत्पन्न करता है। कभी-कभी ऐसा लगता है कि सभी राजनैतिक दल केवल विरोध के लिए विरोध करते हैं। राजनैतिक लाभ की आकांक्षा लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान पहुँचा रही है। 
आज देश की सुरक्षा को पश्चिम में पाकिस्तान के दोहरे आचरण, उसकी सेना के तालिबानीकरण तो उत्तर-पूर्व केें अलगाववादी आंदोलनों और विद्रोह से खतरा है। दक्षिण में श्रीलंका की  हमारे विरोधियों से बढ़ती मित्रता से निर्भरता तक बिगड़ती स्थिति  सारी दुनिया देख रही हैं। देश का बड़ा हिस्सा नक्सलवाद की गिरफ्त में है। वे कभी भी, कहीं भी कुछ भी करने की स्थिति में है। उनकी गोलियों और बमों के धमाके नजदीक आ रहे हैं तो  दूसरी ओर ‘कड़ी कदम उठाये जायेगे’ जैसे जुमले लगातार फुस्स साबित हो रहे हैं।
‘महंगाई सातवें आसमान  पर’ जैसे मुहावरे आज बोने साबित हो रहे हैं। अर्थव्यवस्था चरमरा रही है पर भ्रष्टाचार फलफूल रहा है। आम आदमी की जेब खाली है लेकिन कानून की परवाह न करने वालों के विदेशी खाते लबालब हैं।  आतंकवाद के कारण बेकसूर लोग मारे जा रहे हैं और इस पर रोक नहीं लग पा रही है। हमारी संस्कृति पर्यावरण संरक्षण की प्रबल समर्थक रही है लेकिन उसके बावजूद इस जीवनदायी मामले में हमारी स्थिति  दुनिया में सर्वाधिक खराब है।  पानी के जलस्रोत खतरे में हैं। शहरों का व्यवस्थापन नहीं हो रहा है। अमीरों और गरीबों के बीच की दूरी अब दूरी नहीं सागर से महासागर हो चुकी है। ऐसे में कौन होगा जो मजबूर नेतृत्व से मुक्ति नहीं चाहता?
अब प्रश्न यह कि मजबूर से मजबूत की ओर बढ़े भी तो आखिर कैसे? वह कौन है जो मजबूत नेतृत्व प्रदान कर सकता है से भी पहले प्रश्न यह है कि क्या गठबंधन सरकारों के रहते मजबूत नेतृत्व संभव है? यदि नहीं तो क्यों न देश की जनता को जिम्मेवार ठहराया जाए जो दशकों से गठबंधनों को सिरमौर बना रही है। क्या अगले चुनाव के लिए अभी से यह मन बनाने की तैयारी नहीं करनी चाहिए कि जिसे भी नेतृत्व सौंपना है- एकजुटता के साथ सौंपना है। यह निर्णय करने से पहले हमें सभी संभावित उम्मीदवारों की योग्यता, क्षमता, उनके अनुभव को कसौटी पर कसना चाहिए। उसकी नीतियों से उसकी नीयत तक हर जगह पड़ताल होनी चाहिए।  
विशेषज्ञों का मत है कि वर्तमान स्थिति फिर से अनिश्चितता के मार्ग की ओर अग्रसर है। कुछ सर्वेक्षण सत्तारूढ़ गठबंधन कमजोर होने की भविष्यवाणी करते हैं लेकिन वे भी वैकल्पिक गठबंधन की मजबूत  स्थिति के प्रति बहुत आशावान नहीं है। ऐसे में किसी मजबूत नेतृत्व की आशा की भी जाए तो आखिर कैसे? बेशक ‘सिंह’ अगले दावेदार नहीं है क्योंकि उनके अपने उनपर दांव लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते लेकिन युवराज को खुलकर दावेदार न बताना संदेह उत्पन्न करता है। आश्चर्य तो यह है कि  महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री मोदी को सबसे मजबूत नेता बता रहे हैं। चव्हाण से सवाल किया गया था कि देश में नरेंद्र मोदी के पक्ष में बन रहे माहौल पर वह क्या सोचते हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा, ‘देश मजबूत नेता चाहता है। मोदी के रूप में वाजपेयी के बाद पहली बार कोई मजबूत नेता मिला है।’ वैसे इस मौके पर चव्हाण ने मोदी की आलोचना करते हुए कहा कि मोदी गुजरात के लोगों की मेहनत का श्रेय खुद ले रहे है। बेहतर होगा अगर मोदी अपनी पाकिस्तान पॉलिसी भी लोगों के सामने रखें।’ देशभर में मोदी के पक्ष में जुट रही भारी भीड़ के मिजाज को समझते हुए चव्हाण द्वारा सत्य को स्वीकारना उनका बढ़प्पन है वरना स्वयं मोदी की लोकप्रियता को उनके अपने भी  स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। अब फैसला जनता को करना है कि वह देश के समक्ष उपस्थित चुनौती से जूझने में किसे सक्षम समझती है। आखिर वह कौन होगा जो स्वयं को सक्रिय, सजग संवेदनशील, समर्पित, सदाचारी  साबित कर देश को दलदल से निकाल बाहर निकाल सकेगा। फिलहाल मजबूत बनाम मजबूर की बहस जारी है। (लेखक वरिश्ठ साहित्यकार एवं पूर्व प्रधानाचार्य हैं)
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