शवतंत्र नहीं, स्वतंत्र चाहिए ---- डॉ. विनोद बब्बर

 शवतंत्र नहीं, स्वतंत्र चाहिए ---- डॉ. विनोद बब्बर
स्वतंत्र का अर्थ होता है अपना तंत्र। दूसरे अर्थो में कहे तो आजादी अर्थात् स्वतंत्रता किसी पर निर्भर न होने और आत्मसम्मान के साथ सिर उठा कर जीने का नाम है। हाँ, आजादी निरकुंश भी नहीं हो सकती इसलिए इसकी सीमाएं तय करना भी जरूरी है। ‘एक देश, एक कानून, सभी को न्याय, भेदभाव किसी के साथ नहीं’ से ही परिवार, समाज और देश का कल्याण संभव है। सभी नागरिक आजादी के साथ सुकून की सांस ले सकें, यह तभी संभव है जब हम सभी अपनी आजादी के साथ दूसरों की स्वतंत्रता एवं निजता का भी ध्यान रखे अर्थात् अनुशासित रहना भी जरूरी है।
वैश्विक मान्यता है कि स्वतंत्रता आर्थिक, सामाजिक और बौद्विक विकास के द्वार खोलती है लेकिन जब हम स्वयं को इस कसौटी पर कसते हैं तो निराशा हाथ लगती है। इस मोर्चे पर असफलता के कारणों की तलाश करते हुए हमें सबसे पहले स्वयं में झांकना होगा कि क्या हम अपने देश, उसके संविधान के प्रति सच्चे दिल से ईमानदार और प्रतिबद्ध हैं? क्या किसी भी समाज अथवा  देश की स्वतंत्रता काहिली, निष्क्रियता, भ्रष्टाचार, कट्टरता, जातिवाद और आतंकवाद के फलते -फूलते सुरक्षित रह सकती है? स्पष्ट है कि हमारी आज की स्थिति का कारक और कारण सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का अभाव है। ऐसे में एक महत्वपूर्ण लेकिन नाजुक प्रश्न यह है कि यदि ईमानदारी और आजादी में से  किसी एक को चुनना पड़े तो आखिर हमे किसे और क्यो चुनना चाहिएं?
यह सवाल पिछले दिनों एक चर्चा में उठ खड़ा हुआ। एक ‘मित्र’ जो ईमानदारी से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं रखते। अनेक चाले चलने के बाद भी उनका ‘शिकार’ बच निकला क्योंकि वह अपने अनुभवी गुरुजनों और सलाहकारों की राय मानता था।  अईमानदार सज्जन नेे अंतिम दांव चलते हुए उसे उकसाया  ‘तुम गुलाम हो’ इस दांव से अप्रभावित ‘शिकार’ ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा- ‘बेईमान होने से गुलाम होना कहीं बेहतर है।’ मुंह की खाने के बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी और प्रतिप्रश्न किया, ‘तो क्या देश को आजाद नहीं कराया जाना चाहिए था?’ विषय सचमुच गंभीर था। उसपर भी तर्क से बढ़कर कुतर्क।  हमने व्यवस्था दी, ‘आजादी का कोई विकल्प नहीं हो सकता लेकिन ईमानदारी का प्रतित्याग भी नहीं किया जाना चाहिए। यदि नेतृत्व  ईमानदार हो तो गुलामी टिक नहीं सकती और ठीक इसी तरह नेतृत्व बेईमान हो तो आजादी सुरक्षित नहीं रह सकती। स्वतंत्र और शवतंत्र के बीच देखने में तो सूक्ष्म अंतर है लेकिन प्रभाव और विस्तार में स्थिति शून्य और विराट की है।’
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमें अपने आपसे यह प्रश्न पूछना चाहिए कि क्या एक निश्चित दिन राष्ट्रीय ध्वज फहराना और देशभक्ति के गीत गाना ही स्वतंत्र होने का प्रमाण है? इसमें कोई संदेह नहीं कि देश ने उन्नति की है लेकिन नेतृत्व का भ्रष्टाचार के प्रति ‘सॉफ्ट कार्नर’  वर्तमान परिस्थितियों के लिए जिम्मेवार है। भाई-भतीजावाद, परिवारवाद, जातिवाद, कट्टरता, साम्प्रदायिकता, अन्याय, असमानता, प्रशासनिक ढ़ांचे के चरमराने का कारण अपने कर्तव्यों के प्रति ईमानदार न होने के अतिरिक्त आखिर और क्या है?  ‘अपनों’ के बड़े से बड़े अपराध के प्रति आंखे मूंदे रखना तथा विरोधियों को अकारण ‘घसीटना’ किसी स्वतंत्र व्यवस्था का नहीं, शवतंत्र का हिस्सा हो सकता है। अन्याय, अव्यवस्था को खत्म करने में कामयाब होकर ही हम सही मायने में आजाद कहलाने के अधिकारी होंगे। सच्चे अर्थ में आजाद देश वही है जहां हर नागरिक को उसकी क्षमता और इच्छा के अनुसार अपनी उन्नति के समान अवसर मिलें, जहां अमीर-गरीब सबको सुलभ और पक्षपात रहित न्याय मिले, जहां समाज के कमजोर और पिछडे तबके का शोषण न हो। इस दृष्टि से हमारी आजादी आज 66 वर्षों बाद भी अधूरी है। आखिर हम जाति, धर्म, क्षेत्रवाद, भाषा जैसी संकीर्णताओं  से ऊपर क्यों नहीं उठ सके?  
व्यवस्था का लगभग नदारद होना आज की सबसे बढ़ी चुनौती है। कभी स्वर्गीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भ्रष्ट व्यवस्था और एक रुपए के मात्र 15 पैसे नीचे तक पहुंचने की बात स्वीकार की लेकिन पिछले कुछ दशकों में स्थिति बद से बदतर हुई है। सड़क से खेल तक, अनाज से दवा तक, राहत से सुरक्षा तक कोई ऐसा क्षेत्र दिखाई नहीं देता जिसे राजीवजी की कसौटी पर खरा कहा जा सके। दफ्तरों में काम का ढर्रा आज भी अंग्रेजो के बनाये गए नियमो एवं पद्यतियों वाला है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हमारे नायकों ने देश की जनता को बतायाा  कि प्रशासन और नियम अंग्रेजों की स्वार्थ सिद्धि करने के लिए बनाये गए थे। लेकिन आज भी उन नियमों कानूनों का जारी रहना हमारी स्वतंत्रता और विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। इसी कारण चहूं ओर वातावरण अस्त-व्यस्त है। देश में तरह- तरह के अलगाववादी तत्व सिर उठाकर ‘जन गण’ के मन को गिरा रहे हैं। चीन हमारी सीमा के अंदर तक घुस आया और हम टुकर-टुकर देखते रहे। पाकिस्तान बार-बार हमारी सीमाओं को रौंदते हुए हमारे जवानों पर हमले करने की दुस्साहस करता रहता है लेकिन हम उसकी अनदेखी करते हुए कभी शांति के गीत गाते हैं तो कभी वार्ताओं की दुहाई देते नजर आते हैं। ऐसे में हम अपने नेतृत्व को  कमजोरियों का गुलाम कहे या कर्तव्य के प्रति ईमानदारी से रहित?
आज कोई भी काम बिना ‘सेटिंग’ के होना मुश्किल है। यहां तक कि गरीबी रेखा के नीचे या आर्थिक रूप से कमजोर होने का प्रमाणपत्र बनवाने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि महीनों धक्के खाने के बाद भी सफलता मिलना संदिग्ध है। हाँ, सत्ता के दलाल हर जगह मौजूद हैं जो ले-दे कर आपका काम करवाने के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तुत करने को तत्पर हैं। जहां महीनों या वर्षों बाद नहीं, दशकों बाद भी किसी मामले के निपटारे की आशा न हो उसे स्वस्थ व्यवस्था कैसे कहा जा सकता है? हमारा स्वतंत्रता दिवस मनाना तभी सार्थक होगा जब हम ‘स्वतंत्र’ व्यवस्था को ‘शवतंत्र’ बनाने वाले चेहरों को पहचानने का प्रयास करें।
कहने को हम महात्मा गांधीको राष्ट्रपिता घोषित करते हैं लेकिन आजादी के बाद उनके एक-एक सिद्धांतों की जमकर और खुलकर धज्जियां उड़ाईं गईं। गांधी जी चाहते थे कि गांवों के विकास का आधार और मापदंड बनाया जाए। हमने ऐसी योजनाएं बनाई जिससे विकेन्द्रीकरण की बजाय केन्द्रीयकरण हुआ। गांव उजड़ते रहे और हम ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ के गीत गाते रहे। हर नोट पर गांधी छापते रहे लेकिन यह ‘नोट’ करना भूल गए कि गांधीजी  शिक्षा को संस्कृति से जुड़ना चाहते के ताकि देश के भावी नागरिक संस्कारवान और चरित्रवान बनें। सच तो यह है कि गांधी भक्तों ने शिक्षा का सबसे ज्यादा बंटाधार किया। आज नैतिक शिक्षा की बात करना अपराध है लेकिन सेक्स शिक्षा पर जोर है। दोहरी शिक्षा प्रणाली अलग से सितम ढा रही है। एक तरफ मिड डे मील के नाम पर बच्चों को आकर्षित करने का दावा तो दूसरी ओर पंचसितारा स्कूल। यदि सरकारी स्कूल पेट भरने का स्थान और वहां के अध्यापक लांगरी की भूमिका में होंगे तो पढ़ाई के स्तर पर बहस का कोई अर्थ ही शेष नहीं रह जाता। ऐसे में शिक्षा, ज्ञान, चरित्र की बाते मजाक के अतिरिक्त आखिर क्या है? शिक्षा जो बंधनों से मुक्त करती है वहीं नये वर्गों की उत्पत्ति का कारण बने, भेदभाव और असमानता को बढ़ावा दे तो उसे शिक्षा कहा भी जाए तो क्यों? और उससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि शिक्षा के साथ खिलवाड करने वाले तंत्र को स्वतंत्र कहे या शवतंत्र इसका फैसला कौन और कब करेगा? 
विफल व्यवस्था कां स्वतंत्र होना, न होना  कोई मायने नहीं रखता। आज़ादी तभी सार्थक कही  जा सकती है जब तंत्र प्रशासनिक रूप से सफल ढांचा तैयार करने की शक्ति रखता हो। उसमें स्वाभिमान की रक्षा का साहस हो, वरना आजादी केवल नाममात्र है। आइये वास्तविक आज़ादी के लिए शवतंत्र को स्वतंत्र बनाने की जंग में हम भी भागीदार बने। यह तभी संभव है जब हम ईमानदार होगे।  (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं पूर्व प्रधानाचार्य है।)
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