राजनीति का झुंझुना बनी गरीबी रेखा--डा विनोद बब्बर Powerline has become Poltical Toy

गरीबी भारतीय राजनीति का प्रिय विषय है। कभी ‘गरीबी हटाओं’ के नारे पर चुनाव न केवल लड़ा बल्कि बहुमत से जीता भी गया परंतु गरीबी है कि दशकों बाद भी  इस देश से अपना मोह नहीं छुड़ा पा रही है। भारतीय दर्शन के अनुसार जिस के पास सब कुछ हो मगर और अधिक पाने की लालसा कायम हो उसे  दरिद्र कहा जाता है लेकिन बदलते दौर में इस परिभाषा की स्वीकार्यता नहीं रही इसीलिए तो आज का सबसे उलझा हुआ प्रश्न है- गरीब कौन? गरीबी किसे कहा जाए? यदि पुरानी परिभाषा पर विचार करें तो इस देश में गरीब केवल नेता और मुट्टीभर लोग हैं करोड़ों खाकर भी जिनका पेट भरा हो ऐसा नहीं सुना गया। वे और अमीर बनने के लिए हर सही गलत काम करने के लिए तैयार रहते हैं। 
यदि परंपरागत परिभाषा की बात करें तो सतत् भूख की स्थिति का बने रहना। भूख केवल पेट की नहीं, रहन-सहन, शिक्षा, स्वास्थ्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की भी है। यह स्थिति क्रयशक्ति के अभाव से उत्पन्न होती है। क्रयशक्ति का सीधा संबंध आजीविका के स्थायी साधनों से है, न कि चुनाव के समय बंटने वाली खैरात, सबसीड़ी, दान, अनुदान से। लेकिन हमारी ‘लोकप्रिय एवं कार्यकुशल’ सरकार और उसका योजना आयोग अपनी परिभाषा प्रस्तुत कर उपहास का पात्र बनने को आतुर है तो उसे कौन रोक सकता है। आज देश का हर व्यक्ति सरकार के दावों की खिल्ली उड़ाते हुए पूछ रहा है कि जबरदस्त महंगाई के वर्तमान दौर में कोई छब्बीस या बत्तीस रुपए रोज में अपना गुजारा कैसे चला सकता है? 
योजना आयोग के पास आंकड़े हैं। भ्रमजाल है। सरकारी साधन हैै।। मीडिया है और उससे भी बढ़कर कुछ ‘ढपोरशंख’ हैं जो 5 रुपये की थाली, 12 रुपये की थाली ही नहीं एक रुपये की थाली के सपने दिखा सकते हैं। यह कल्पना करके आंनद लिया जा सकता है कि एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्वस्थ्य जीवन जी सकता है। यह भी गौर करने लायक है कि एक व्यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा। स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति माह 39.70 रुपये तथा शिक्षा पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करने वाला गरीब नहीं होता है। शायद इसी कारण हमारी सरकार ने दावा किया था कि देश से गरीबी और भुखमरी कम हुई है। इतना ही नहीं, गरीबी की रेखा से नीचे जिंदगी गुजार रहे करोड़ों लोगों का छलांग लगाकर गरीबी रेखा के ऊपर वाली लाइन को छूने के दावे भी किए हैं। यह गौरतलब है कि यह सब केवल और केवल केंद्र सरकार द्वारा ‘महान योजनाओं का ईमानदारी से लागू करने की वजह से हुआ है। इन योजनाओं में मनरेगा और ग्राम्य विकास योजनाएं प्रमुख है।
 अब यदि संयुक्त राष्ट्र की रपट पर ध्यान दे तो एक दूसरी तस्वीर नजर आती है। इस रपट के अनुसार देश के लगभग 23 करोड़ (कुल आबादी के लगभग एक चौथाई) लोगों को दोनों वक्त भरपेट भोजन नसीब नहीं होता है।  दुनिया में भुखमरी का शिकार 25 फीसदी हिस्सा भारत में है। इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन भारत में  कुपोषण के शिकार बच्चे जिनकी संख्या 25 लाख से भी ज्यादा है, हर साल असमय मौत के शिकार हो जाते हैं। क्या यह विरोधाभासी तथ्य नहीं कि एक ओर देश में खाधान्न की कोई कमी नहीं है। हजारों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ रहा है।  तो फिर करोड़ों लोगों की भूख को अपनी विफलता के अतिरिक्त आखिर क्या नाम दिया जाए? क्या गरीबी कम होने के दावे नेताओं के भाषणों से अफसरों की फाइलों तक ही सीमित है? बेशक फाइलों में  गरीबी और गरीब कम होते रहे पर सच्चाई कुछ अलग है वरना हमारी सरकार तथा संयुक्त राष्ट्रसंघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरे संगठनों की राय एकसमान अथवा लगभग समान क्यों नहीं? स्पष्ट है कि जमीनी सच्चाई और फाइली आंकड़ांे में कहीं झोल हैं।
 यह विचार करना आवश्यक है कि कहीं गरीबी रेखा देश की  आम जनता को बुनियादी जरूरतों से वंचित करने का औजार तो नहीं बन रही है? आज आम आदमी पर  उदारीकरण बनाम वैश्वीकरण बनाम संसाधनों की लूट व्यवस्था का चहुतरफा हमले हो रहे हैं। उसकी रोजी-रोटी छिन रही है, शोषण बढ़ रहा है, महंगाई बढ़ रही है; तो ऐसे कठिन समय में सरकार एक ओर तो खाद्य सुरक्षा विधेयक प्रस्तुत करने को मचल रही है तो दूसरी ओर गरीबी रेखा की मनमानी व्याख्या कर रही है। 
क्या इस बात में किसी को संदेह हो सकता है कि आज नगरों- महानगरों में जिन परिवारों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं, वे गरीब के अतिरिक्त किसी अन्य वर्ग में रखे जाने योग्य हैं? सरकारी अस्पतालों में धक्के खाने के बाद फर्श पर लेटकर इलाज करवाने को अभिशप्त मरीज को आप गरीबी रेखा से बाहर रखने की सोच भी कैसे सकते है? रेल के जनरल डिब्बे में बोरियों की तरह ठूंसे यात्रियों को आप आजाद भारत की किस श्रेणी का नागरिक  कह सकते हैं? बीपीएल, एपीएल, अन्त्योदय और न जाने कितने तरह के राशन कार्ड लिए कंकड़, पत्थर, धूल से भरा अनाज लेने के लिए दिनभर लाईन लगाये लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर घोषित करने वालों को अक्ल का दुश्मन नहीं तो और क्या कहा जाए? गंदी बस्तियों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने वालों को  आप गरीबी रेखा के ऊपर या नीचे घोषित करने से पहले दिवंगत प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के उस वक्तव्य को जरूर समझ ले जो उन्होंने पर्यावरण संरक्षण पर हुए विश्व सम्मेलन में दिया था। उनके अनुसार- गरीब परिवारों के लिए हर बच्चा ‘अर्नर व हेल्पर’ होता है। इसलिए आप उन्हंे अपने परिवेश, नदियों, समुद्रों को साफ रखने का पाठ न पढ़ाये।’ आज इन्दिरा जी के उत्तराधिकारियों ेको इतना समझ में क्यों नहीं आता कि जिन परिवारों के बच्चे छोटे उम्र में स्कूल छोड़ने को विवश होते हैं उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर माना राष्ट्रीय अपराध है।
यह हो सकता है कि चहु ओर निंदा आलोचना के बाद केन्द्र सरकार गरीबी रेखा को थोड़ा ऊपर खिसका दे। पर महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या इससे समस्या हल होगी? हर्गिज नहीं क्योंकि जिस देश में अस्सी प्रतिशत लोग बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहे हों, वहां रेखा कहां खींची जाएगी? ऐसी हालत में गरीबी रेखा खींचने का मतलब बहुत-से जरूरतमंदों को राशन, शिक्षा, इलाज और सामाजिक सुरक्षा से वंचित करना होगा। इसलिए सस्ते राशन, पेयजल, मुफ्त शिक्षा और मुफ्त इलाज की व्यवस्था बिना भेदभाव के पूरी आबादी के लिए होनी चाहिए। अफसोस कि यहां गरीबी रेखा से नीचे यानि ‘बीपीएल’ कार्ड बनाने अथवा आर्थिक रूप से कमजोर का प्रमाणपत्र बनवाने के लिए भी पैसा चाहिए। दलाल हर जगह सक्रिय हैं।  अगर विधायक सांसद अपने हैं तो विधवा पेंशन लेने के लिए विधवा होना जरूरी नहीं और न ही बुढ़ापा पेंशन पाने के लिए बूढ़ा होना। देश की राजधानी इमें ही इस प्रकार के मामले सामने आए है।
यह सत्य है कि सरकारें साधनों की कमी का रोना रोती हैं। लेकिन  यह बहानेबाजी के सिवा और कुछ नहीं है। राष्ट्रमंडल खेलों से विलासिता की वस्तुओं और सेवाओं  पर विशाल राशि लुटाना बंद कर,   बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमीरों को दी जाने वाली मदद और करों में रियायतें बंद कर अथवा विदेशी बैंकों के काले धन को जब्त कर उसके पास संसाधनों का इतना भंडार हो सकता है कि कोई कमी नहीं रहेगी। परंतु ऐसा न करना साबित करता है कि सवाल साधनों का नहीं, प्राथमिकताओं और इच्छाशक्ति का है।
हमारे कर्णधारों को गांधी जी के विचारों का अध्ययन करना चाहिए जो कहा करते थे, ‘मेरे सपने का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा।जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग अमीर लोग करते हैं, वही गरीबों को भी सुलभ होनी चाहिए, इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। गरीबों को जीवन की वे सामान्य सुविधाएं अवश्य मिलनी चाहिए, जिनका उपभोग अमीर आदमी करता है। मुझे इस बात में बिल्कुल भी संदेह नहीं है कि हमारा स्वराज्य तब तक पूर्ण स्वराज्य नहीं होगा, जब तक वह गरीबों को सारी सुविधाएं देने की पूरी व्यवस्था नहीं कर देता।’  (लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवम पूर्व प्रधानाचार्य है. आप आचार्य विनोबा जी द्वारा स्थापित नागरी लिपि परिषद् के सचिव भी है  )
राजनीति का झुंझुना बनी गरीबी रेखा--डा विनोद बब्बर Powerline has become Poltical Toy राजनीति का झुंझुना बनी गरीबी रेखा--डा विनोद बब्बर  Powerline has become Poltical Toy Reviewed by rashtra kinkar on 00:44 Rating: 5

No comments