हम ही है भटकते बचपन के अपराधी ---डा. विनोद बब्बर
इन दिनो सारा देश लोकतंत्र के महापर्व का नजारा देख रहा है। देश के जिम्मेदार नेता गैरजिम्मेदारी का सफल प्रदर्शन पूरी जिम्मेवारी के साथ कर रहे हैं। किसी भी तरह जंग जीतने की चिंता में डूबे सत्ता पिपासूओं को कहां चिंता है कि देश के भविष्य की चिंता के लिए भी समय निकाले। हर दल अपने चुनाव घोषणा जारी कर लोक लुभावन वायदे करने में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ करते रहे लेकिन किसी भी दल के घोषणा पत्र में बच्चों के लिए कुछ भी नहीं है। किसी को भी भटकते बचपन की रत्ती भर भी चिंता होती तो शायद सोचते कि आखिर क्यों, क्यों होता है ऐसा? देश की राजधानी दिल्ली मंे पिछले पखवाड़े संपन्न परिवारों के तीन नाबालिग (11-12 वर्ष) चांदनी महल थाना क्षेत्र के अंतर्गत रकाबगंज इलाके में एक व्यवसायी की स्कूटी चुराने का प्रयास करते पकड़े गए। प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाले इन बच्चों के पिता व्यवसायी हैं। यह घटना रात 11 बजे की है स्पष्ट है कि परिवार का बच्चों पर नियंत्रण नहीं है वरना इतनी रात गए बच्चों धर से बाहर क्यों थे?
हम इन खबरों से जरूर चाैंकते हैं कि अमुक बच्चे या किशोर ने किसी की हत्या कर दी अथवा किसी अपराध को अंजाम देते पकड़ा गया। क्रोधी और जिद्दी स्वभाव वाले बच्चे तो आपके इर्द-गिर्द जरूर हांेगें। नाबालिगों का अपराध में संजिप्त होना बेहद गंभीर मसला है। जिस उम्र में बच्चों के कंधों पर बस्ता और हाथ में कलम होनी चाहिए उस उम्र में पढ़ाई से भटककर वह अपराध की तरफ अग्रसर हो रहे हैं। दरअसल हमारे परिवेश विशेष रूप से पारिवारिक व सामाजिक बदलावों का असर बच्चे के नाजुक दिलो दिमाग पर भी हो रहा है। परिवार में उचित देखभाल की कमी व नैतिक शिक्षा नहीं मिलने से बच्चे अपराध की ओर कदम बढ़ा रहे हैं और इसकी शुरुआत नशे से होती है। बच्चों को अपराध की ओर धकेलने में नशा प्रमुख निभाता है। फिर अपनी लत व इच्छा की पूर्ति के लिए बच्चे अपराध की राह पर चल पड़ते हैं।
नाबालिगों में आक्रामकता की ऐसी प्रवृत्ति इससे पूर्व कभी नहीं थी, यही कारण है कि अभिभावकों, मनोवैज्ञानिकों और समाज-शास्त्रियों के लिए यह मुद्दा चिंताजनक पहलू बन गया हैै। पिछले दिनों कुछ मामलों में गंभीर अपराधों जैसे अभया मामले में नाबालिग अपराधी का बच निकलना भी पुलिस और कानून का डर धटा रहा है। महानगरों में नाबालिगों अपराधियों की संख्या में जबरदस्त वृद्धि के आंकड़े चौंकाने वाले है। किसी भी सभ्य समाज के लिए यह अच्छा संकेत नहीं हो सकता। जिनके कंधों पर देश के भविष्य की बागडोर टिकी है, उनका इस तरह आपराधिक वारदात में लिप्त होना चिंताजनक है। ऐसे में परिजनों की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। बच्चों के रहन-सहन तथा उनके मित्रों के संबंध में जरूरी जानकारी उन्हें रखनी चाहिए। जब कभी भी बच्चा असामान्य लगे तो उसे समझने की जरूरत है।
वैसे बच्चों के बिगड़ने या उनके अपराधांे में संलिप्त होने के पीछे कई कारण उत्तरदायी हैं। इस संदर्भ में, फिल्मों और टेलीविजन की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। मनोचिकित्सकांे की राय में, इस तरह के कार्यक्रमों में जिस तरह से अपराध और हिंसा को नायक के रूप में दिखाया जा रहा है, उसका बच्चों और किशोरों के दिमाग पर बुरा असर पड़ रहा है। अपरिपक्व बुद्धि के चलते बच्चे फिल्मों के हीरो या विलेन को अपना रोल मॉडल बना लेते हैं, इसके परिणाम-स्वरूप, उनकी सोच नकारात्मक व आक्रामक हो रही है। एक अध्ययन के अनुसार, जो बच्चे अपराधों में लिप्त पाये गए, उनमें से ज्यादातर ने यह स्वीकार किया कि उन्हें अपराध करने की प्रेरणा हिंसत्मक फिल्मों व टीवी कार्यक्रमों से ही मिली थी।
उपभोक्तावादी संस्कृति को भी काफी हद तक इस समस्या के लिए जिम्मेवार माना जा सकता है। शार्ट कट से पैसा कमाने की लालसा इस समस्या का एक प्रमुख कारण है। आज चमक दमक सभी नैतिक मूल्यों पर हावी हो रही है। इस कारण, बच्चों के अंदर हर वस्तु पाने की लालसा बढ़ चुकी है। ज्यादातर माँ-बाप कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते बच्चों की ऐसी माँगों को पूरा करने की हैसियत में नहीं होते। इस कारण अक्सर मासूम बच्चे गुमराह होकरे अपराध की ओर अग्रसर हो जाते हैं।
नाबालिगों में बढ़ती आपराधिक या आक्रामक प्रवृत्ति के लिए कुछ हद तक हार्मोन भी उत्तरदायी हैं। इन दिनों ‘मीडिया एक्सपोज़र‘ के चलते बच्चों का शारीरिक विकास समय से पूर्व हो रहा है। इस कारण, बच्चों में हार्मोनों की सक्रियता अतीत के मुकाबले अब कहीं ज्यादा बढ़ चुकी है और यह सक्रियता उन्हें आक्रामक बनाकर उन्हें अपराध करने की ओर दुष्प्रेरित कर सकती है। हर शख्स के शरीर में मेल व फीमेल हार्मोन होते हैं। जब बच्चों में मेल हार्मोन निश्चित अनुपात से अधिक सक्रिय हो जाते हैं तो वे बेहद आक्रामक प्रवृत्ति के हो जाते हैं। 12-13 वर्ष की उम्र के दौरान बच्चों में अनेक परिवर्तन बच्चों की मानसिक प्रवृत्तियों पर भी असर डालता है। समस्या तब पैदा होती है, जब अभिभावक उनके साथ बच्चों सरीखा व्यवहार करते हैं। नतीजतन, अक्सर वे बाग़ी तेवर दिखाने लगते हैं।
अनेक बच्चे अपनी जरूरतों की ओर माँ-बाप का ध्यान आकर्षित करने के लिए गलत कदम उठाने से परहेज नहीं करते। ऐसे बच्चों के मन में यह धारणा घर कर जाती है कि गलत हरकतें करने से वे माँ-बाप का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो सकते हैं। आपराधिक कृत्यों को अंजाम देने के पीछे उनमें अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने की मंशा ही छिपी होती है।
एक महत्वपूर्ण कारण घर के दूषित माहौल भी हैं जहां माँ-बाप के बीच आये दिन होने वाली कलह और उनकी संतानों से संवादहीनता बच्चों के मन-मस्तिष्क पर दुप्रभाव डालती है। ऐसे बोझिल वातावरण में बच्चों के मन में हीन ग्रंथियां पैदा होती हैं और वह स्वयं को उपेक्षित महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि कोई उसे प्यार नहीं करता। इस स्थिति में बच्चा कुसंगति में फँसकर असामाजिक कार्यो को अंजाम देने लगता है।
किशोरवय के बच्चे किसी-न-किसी रोल मॉडल का अनुकरण करते हैं। विडंबना यह है कि घर से स्कूल तक कहीं भी कोई आदर्श चरित्र दिखाई देता है और न ही ऐसा नैतिक माहौल है। ऐसे में वे अपना आदर्श या रोल मॉडल फिल्मी हीरो, पैसे अथवा ताकत वाले को मानने लगे हैं। स्थिति पूरे समाज के लिए शोचनीय है।
इधर यह भी देखा जा रहा है कि बच्चों में खिलौना हथियार के प्रति लालसा कुछ ज्यादा ही बढ़ी है। एक युवा माँ के अनुसार, ‘उसका 8 वर्षीय पुत्र खिलौना बंदूक लिए कहता है, जो कोई मुझसे लड़ेगा, मैं उसे मार दूंगा।‘ टेलीविजन में हर क्षण ’मार डालने’ के संवाद सुन बच्चे के अंतर्मन में हिंसक विचारों की जड़ें जमने लगती हैं। बच्चों को सही दिशा देने की बुनियादी ज़िम्मेदारी पहले अभिभावकों की और फिर, शिक्षकों की है। बच्चे गलत दिशा में भटक जाते हैं, जिनके घर में प्रेमपूर्ण वातावरण नहीं होता और ऐसा वातावरण तैयार करने की जिम्मेदारी अभिभावकों की ही है। उन्हें बच्चों के लिए वक्त निकालना चाहिए। वे बच्चों की माँगो को गौर से सुने, पर उनकी उचित माँगांे को ही पूरा करे। वहीं बाल-किशोर अपराध खत्म करने की दिशा में मीडिया को सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। मीडिया अपराध करने वालोें को नायक के रूप में पेश न करें।
जहाँ तक संभव हो, ध्यान दे कि बच्चों को टी.वी., कम्प्यूटर अथवा महंगे मोबाइल के हवाले करके निश्चिंत होकर न बैठ जाए, बल्कि नजर रखें कि वह किसी सोशल मीडिया से जुड़ा है और क्या कर रहा है। अफसोस की बात तो यह है कि आज स्वयं को आधुनिक और प्रबुद्ध घोषित करने वाले पिता ही नहीं, मां भी दिन भर फेसबुक, वास्अप, कम्प्यूटर अथवा टी.वी. से चिपके रहते हैं,ऐसे में बच्चे सीखे भी तो आखिर किससे?
अनेक बार यह भी देखा गया है कि मौजमस्ती के लिए स्कूल या पड़ोस में रहने वाले साथियों की मदद से नाबालिग अपराध में कदम रखता है। ऐसे में स्कूल प्रशासन को भी सचेत रहना होगा। मौजूदा दौर में भौतिक मूल्य नैतिक मूल्यों पर हावी हो रहे है। इस पृष्ठभूमि में, स्कूली पाठयक्रमों में नैतिक मूल्यों की शिक्षा पर विशेष जोर दिए जाने की जरूरत है। शिक्षक छात्रों को समझाएं कि दुनिया में पैसे के अलावा प्रेम, कर्तव्यनिष्ठा, उदारता और ईमानदारी जैसे नैतिक मूल्यों का भी महत्व है। आश्चर्य तो यह है कि एक ओर हमारी सरकारें बच्चों को धर्म के आधार पर बांटती है। कुछ को छूट, आर्थिक सहायत्ता देती है तो दूसरी ओर धर्म की श्रेष्ठ शिक्षाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने से बचती है। और तो और जब कोई सामाजिक संगठन नैतिक शिक्षा के अभियान चलाना चाहते हैं तो उन्हें हतोत्साहित किया जाता है। ऐसे में सरकार को भी हठधर्मिता छोड़ संबंधित विभागों के साथ स्वयंसेवी संगठनों की मदद से बच्चों को अपराध से दूर रखने की दिशा में काम करना चाहिए। क्या यह उचित समय नहीं है कि देश के कर्णधार चुनने के बाद हम अपने बच्चों के भविष्य की राह चुने।
हम ही है भटकते बचपन के अपराधी ---डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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05:36
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