भविष्य को निगलते नशे से जंग की जरूरत -डा. विनोद बब्बर
आज के भारत को सम्पूर्ण विश्व युवा भारत के रूप में जानता है। उच्च शिक्षा, व्यवसाय से राजनीति तक, देश से विदेश तक हमारे युवाओं की धूम है तो ऐसे में हमारे मन का प्रफुल्लित होना स्वाभाविक है लेकिन इस सुखद परिवर्तन के साथ हो रहे अन्य परिवर्तनों की भी हम अनदेखी नहीं कर सकते। यह सर्वविदित ही है कि युवाओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा है, जिनकी सोच, संस्कृति, जीवनशैली एवं मनोरंजन के साधनों में आया बदलाव भटकाव का संकेत है क्योंकि नशा उनके ही नहीं समाज और राष्ट्र के भविष्य को भी दीमक की तरह खोखला कर रहा हैं। नशे के व्यापार से होने वाली मोटी आय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद को बढ़ावा देने का कार्य करती है परंतु पंजाब सहित अनेक राज्यों में अनेक महत्वपूर्ण पदों पर प्रतिष्ठित व्यक्तियों की संलिप्तता के शर्मनाक समाचार विचलित करने वाले हैं। इससे भी दुखद है यह महत्वपूर्ण मुद्दा सर्वसम्मत समाधान की बजाय राजनैतिक खिंचतान में उलझा है। कांग्रेस अकाली दल के एक मंत्री को देाषी ठहरा रही है तो अकाली सरकार धरने की राजनीति में उलझा है तो दूसरी तरफ केन्द्र भी दो टूक कठोर फैसला करने की बजाय राजनैतिक संबंधों की पैरोकारी में व्यस्त है।
यह सत्य है कि आज इंटरनेट, अश्लील एवं फूहड़ फिल्में, पब संस्कृति, ड्रग्स, फैशन, महंगे मोबाइल, जिनमें एसएमएस एवं एमएमएस करना, महंगी गाड़ियों के प्रति आकर्षण बढ़ा है।ं ये सब आवश्यकता से अधिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान से जुड़कर युवा मन में रचनात्मक एवं सृजनात्मक सोच की बजाय नकारात्मकता रोपित कर रहा है। पिछ ले दिनों सामने आए एक सर्वेक्षण के तथ्य कष्टकारी है। इस ओर से आँंखें मूंदने का अर्थ इस विनाशकारी तूफान को हल्के से लेना होगा।
अनेक नगरों-महानगरों में पब से हुक्का पब तक खुल रहे हैं जो किशोर बच्चों को बर्बाद कर रहे हैं। पिछले दिनों गुड़गांव के एक हुक्का पब में स्कूली बच्चों के पकड़े जाने के बाद भी स्थिति में कोई सुधारात्मक बदलाव की आहत सुनाई नहीं दी।
आज के तथाकथित मंहगे उच्च शिक्षण संस्थानों में चरित्र, शील एवं मर्यादा का अभाव है। खुलेपन के नाम पर अश्लीलता की भट्टी में झुलस रहे युवाओं को ड्रग्स एवं नशा नष्ट कर रहा है। अपनी पहचान बनाने के लिए 16 साल की उम्र से पूर्व ही नशाखोरी शुरू हो जाती है। शिक्षित शहरी युवाओं की फैलती जमात के लिए मुख्य मुद्दा है- अपनी क्षमता बढ़ाना। ये युवा क्षमता का मतलब मानते हैं नए ड्रग्स का अधिकतम उपभोग। पार्टी, ड्रग्स का खूब प्रचलन है। एशिया में आज सिंथेटिक रसायन और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले एंफेटामाइन्स की खूब मांग है। अपना देश इनका एक बड़ा बाजार है।
नेट पर ड्रग डाटा खंगालते एक 15 वर्षीय लड़के से पूछने पर पता चलता है कि मादक पदार्थों का नुस्खा तैयार करने में महारत हासिल करना चाहता है और देसी एलएसडी का जादुई काढ़ा तैयार करके अपना चमकीला कैरिअर बनाना चाहता है। इस किशोर को पता नहीं कि वह मादक पदार्थों के तस्करों के लिए आसान माध्यम बनने जा रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेंट सेंटर में प्रतिवर्ष 32,000 नशेड़ी पहुँचते हैं। 21,000 से अधिक की सामुदायिक देख-भाल की जाती है। इससे पता चलता है कि अफीम के उत्पादों का प्रयोग करने वालों की संख्या 2000 से 2009 के दौरान 22 से 42 फीसदी हो गई, परंतु सिंथेटिक मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इससे भी कम समय में तेजी से बढ़ी हुई पाई गई और उपचार कराने वालों में से इसके व्यसनियों की संख्या 15 फीसदी बढ़ी हुई मिली।
विशेषज्ञों के अनुसार पेनकिलर, सिडेटिव, एंक्जियो लाइटिक्स, हिप्नॉटिक जैसी दवाओं के साथ ही अफीम से बनी सिंथेटिक दवाओं का दुरूपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इस संदर्भ में 2008 में आर.एस.आर.ए. के तहत दक्षिण एशिया के देशों में 21 से 30 साल के 9465 लोगों को सर्वेक्षण किया गया थां इससे पता चला कि भारत में 5800 उत्तरदाताओं में से 43 फीसदी से अधिक दर्दनिवारक दवा की सुई लगवाते हैं।
नशीली दवाएं लेना एक ऐसी आदत है, जो बन जाने के बाद छोड़नी असंभव हो जाती है। हर व्यक्ति एक ही चीज पसंद नहीं करता है, कोई एक पसंद करता है तो कोई दूसरी। भारत में 76 फीसदी भांग व चरस, 70 फीसदी हेरोइन, 76 प्रतिशत बुप्रीनार्फीन नामक ड्रग्स का इस्तेमाल होता है। इसकी मांग भारत के विभिन्न स्थानों में अलग -अलग है। दिल्ली में नशे की तरंग को तरजीह दी जाती है। यहाँ 34 प्रतिशत महिला नशे की गोलियां लेती हैं। मुंबई में आइस को पसंद किया जाता है।
भारत में 85 प्रतिशत ड्रग्स लेने वाले शिक्षित वर्ग से हैं। 61 प्रतिशत ड्रगखोर दक्षिण भारत के हैं, 61 प्रतिशत कामकाजी पेशेवर हैं तथा 54 प्रतिशत लोग जिनमें अधिकतर युवा हैं, इसे सेक्स के साथ जोड़ते हैं। वर्तमान समय के इस नए सिंथेटिक ड्रग्स के बारे में देखें तो केटामाइन चेतना लुप्त करने वाली दवा है, जिसे ‘डेट रेप’ ड्रग्स भी कहते हैं। यह नींद की दवा वेलियम से दस से बीस गुना प्रभावशाली है। कई बार इन औषधियों को कामुकता बढ़ाने के लिए लिया जाता हैं। इसका असर खत्म होते ही भारी झटका लग सकता है, अधिक सेवन से मौत भी हो सकती है। आइस, जिसे क्रैंक, गलास या क्रिस्टल मेथ के नाम से जाना जाता है, यह भारी नशा देता है तथा हिंसक बना देता है। आज के युवा गांजा, भांग, अफीम को छोड़कर इन सिंथेटिक नशाओं के दीवाने बनते जा रहे हैं।
बंगलौर स्थित विमहान्स में डिएडिक्शन सेंटर की प्रमुख डा. प्रतिमा मूर्ति का कहना है कि शहरों में ड्रग्स के साथ खतरनाक प्रयोग आम बात हो गई है। अधिकतर युवा पेशवर साथियों के दबाव, उबाऊ जिंदगी, तनाव एवं आवश्यकता से अधिक आय की वजह से मादक पदार्थों का सेवन शुरू कर देते हैं। आरएसआरए सैंपल सर्वे में पाया गया है कि 62 फीसदी नशेड़ी युवा नौकरी पेशा हैं। इस तरह के नशे के आदी अधिकतर लोग 20 से 40 वर्ष की उम्र के हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जहां 2009 में मादक पदार्थ सेवन शुरू करने की उम्र 20 साल थी, वहीं आज घटकर 17 साल हो गई है। इन ड्रग्स का चलन यहाँ तक है कि अब तो स्कूली बच्चे भी कई तरह के ड्रग्स का एक साथ प्रयोग कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठन यूथ एनलाइनिंग दि सोसाइटी ने इंदिरा गाँंधी मेडिकल कॉलेज के साथ 2010 में शिमला के 200 स्कूली बच्चों का सर्वेक्षण किया। उनके अध्ययन के नतीजे इसी ओर संकेत करते हैं कि 55 फीसदी से अधिक लड़के और 24 फीसदी लड़कियां नियमित रूप से मादक पदार्थों का इस्तेमाल करती हैं। इनमें से 29 फीसदी गांजा, कफ सिरप और अफीम का सेवन करते हैं। उड़ीसा में बरहमपुर के पाँंच व्यावसायिक कॉलेजों मेें 2008 में किए गए अध्ययन से पता चला कि नशे की दुनिया में पैर रखने के लिए 15 साल की उम्र सबसे संवेदनशील है। यहां के 29 फीसदी छात्रों ने अपने साथियों के दबाव में मादक पदार्थों का सेवन इसी उम्र में शुरू कर दिया था।
आज की पार्टी का स्वरूप बदल गया है। मदमस्त करने वाली लाइट, धुआं, ड्राइ अइस फाग ओर कान फोड़ने वाले टेक्नो संगीत की धुन पर नाचते सैंकड़ों युवक किसी डान्स पार्टी में नहीं, बल्कि आधुनिक रेव पार्टी में होते हैं। इस पार्टी में शराब नहीं बंटती है, परंतु इससे स्थान पर ऐसी चीजें बंटती हैं, जिन्हें दूसरे नाम दिए गए हैं, पर ये सभी तरह-तरह के नशे हैं। इन सभी को आज कोकीन ओर अफीम के उत्पादों स भी अधिक इस्तेमाल किया जाता है। इन दिनों बरसों पुराना हुक्का आधुनिक रूप धरकर सामने आया है। बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स के अलावा अलग से ऐसे रेस्टोरेंट खुल गए हैं, जो सरेआम धुएं में दहकने युवाओं को विशेष स्थान मुहैया करा रहे हैं। लड़कियां भी बड़ी संख्या में इसकी शिकार हो रही हैं।
जीवन में यौवन एक ऊर्जा का आगार है। इस ऊर्जा को नशा, वासना एवं आधुनिक खुली संस्कृति में गंवाना नहीं चाहिए। युवा ऊर्जा एवं शक्ति के प्रतीक हैं, उन्हें इनका उपयोग मनमाने ढंग से करने की छूट नहीं मिल सकती है। इसका नियोजन सदैव रचनात्मकता में, सृजनात्मकता में, पीड़ित मानवता की सेवा में, गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि के खिलाफ करना चाहिए। आज बहनों की इज्जत सरेआम लूटी जा रही है और भाई कायर बनकर खड़े तमाशा देख रहे हैं, क्योंकि इनमें न तो साहस है, न संघर्ष करने का जज्बा। आज अपने युवा यदि एकजुट होकर समाज के इन अपराधी ऑक्टोपस को मिटाने के लिए आमादा हो जाएं तो फिर ये अधिक समय तक टिक नहीं पाएंगे, परंतु आज हमारे युवा आसुरी शक्तियों के हाथों के खिलौने बन गए हैं। यदि राष्ट्र को फिर से ऊँचा उठाना है तो युवाशक्ति को बचाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इस कार्य में लगे राष्ट्रद्रोहियों को तत्काल मृत्युदण्ड देना और तस्करी को असंभव बनाये बिना न तो इस सर्वनाशी तूफान से निपटा जा सकता है और न ही सरकार की उपस्थिति का कोई अर्थ होगा। क्या आतंकवाद सहित दुनिया की अधिकांश समस्याओं के इस मूल कारण से भिड़ने के लिए हमारे जननायक तैयार हैं या फिर पंजाब की तरह केवल राजनैतिक नाटक ही होता रहेगा?
लेखक सम्पर्क- ए-2/9ए, हस्तसाल रोड, उत्तमनगर, नई दिल्ली-110059 फोन- 09868211911
यह सत्य है कि आज इंटरनेट, अश्लील एवं फूहड़ फिल्में, पब संस्कृति, ड्रग्स, फैशन, महंगे मोबाइल, जिनमें एसएमएस एवं एमएमएस करना, महंगी गाड़ियों के प्रति आकर्षण बढ़ा है।ं ये सब आवश्यकता से अधिक प्रतिष्ठा एवं सम्मान से जुड़कर युवा मन में रचनात्मक एवं सृजनात्मक सोच की बजाय नकारात्मकता रोपित कर रहा है। पिछ ले दिनों सामने आए एक सर्वेक्षण के तथ्य कष्टकारी है। इस ओर से आँंखें मूंदने का अर्थ इस विनाशकारी तूफान को हल्के से लेना होगा।
अनेक नगरों-महानगरों में पब से हुक्का पब तक खुल रहे हैं जो किशोर बच्चों को बर्बाद कर रहे हैं। पिछले दिनों गुड़गांव के एक हुक्का पब में स्कूली बच्चों के पकड़े जाने के बाद भी स्थिति में कोई सुधारात्मक बदलाव की आहत सुनाई नहीं दी।
आज के तथाकथित मंहगे उच्च शिक्षण संस्थानों में चरित्र, शील एवं मर्यादा का अभाव है। खुलेपन के नाम पर अश्लीलता की भट्टी में झुलस रहे युवाओं को ड्रग्स एवं नशा नष्ट कर रहा है। अपनी पहचान बनाने के लिए 16 साल की उम्र से पूर्व ही नशाखोरी शुरू हो जाती है। शिक्षित शहरी युवाओं की फैलती जमात के लिए मुख्य मुद्दा है- अपनी क्षमता बढ़ाना। ये युवा क्षमता का मतलब मानते हैं नए ड्रग्स का अधिकतम उपभोग। पार्टी, ड्रग्स का खूब प्रचलन है। एशिया में आज सिंथेटिक रसायन और मस्तिष्क को प्रभावित करने वाले एंफेटामाइन्स की खूब मांग है। अपना देश इनका एक बड़ा बाजार है।
नेट पर ड्रग डाटा खंगालते एक 15 वर्षीय लड़के से पूछने पर पता चलता है कि मादक पदार्थों का नुस्खा तैयार करने में महारत हासिल करना चाहता है और देसी एलएसडी का जादुई काढ़ा तैयार करके अपना चमकीला कैरिअर बनाना चाहता है। इस किशोर को पता नहीं कि वह मादक पदार्थों के तस्करों के लिए आसान माध्यम बनने जा रहा है। एक सर्वेक्षण के अनुसार एम्स में नेशनल ड्रग डिपेन्डेन्स ट्रीटमेंट सेंटर में प्रतिवर्ष 32,000 नशेड़ी पहुँचते हैं। 21,000 से अधिक की सामुदायिक देख-भाल की जाती है। इससे पता चलता है कि अफीम के उत्पादों का प्रयोग करने वालों की संख्या 2000 से 2009 के दौरान 22 से 42 फीसदी हो गई, परंतु सिंथेटिक मादक पदार्थों का इस्तेमाल करने वालों की संख्या इससे भी कम समय में तेजी से बढ़ी हुई पाई गई और उपचार कराने वालों में से इसके व्यसनियों की संख्या 15 फीसदी बढ़ी हुई मिली।
विशेषज्ञों के अनुसार पेनकिलर, सिडेटिव, एंक्जियो लाइटिक्स, हिप्नॉटिक जैसी दवाओं के साथ ही अफीम से बनी सिंथेटिक दवाओं का दुरूपयोग तेजी से बढ़ रहा है। इस संदर्भ में 2008 में आर.एस.आर.ए. के तहत दक्षिण एशिया के देशों में 21 से 30 साल के 9465 लोगों को सर्वेक्षण किया गया थां इससे पता चला कि भारत में 5800 उत्तरदाताओं में से 43 फीसदी से अधिक दर्दनिवारक दवा की सुई लगवाते हैं।
नशीली दवाएं लेना एक ऐसी आदत है, जो बन जाने के बाद छोड़नी असंभव हो जाती है। हर व्यक्ति एक ही चीज पसंद नहीं करता है, कोई एक पसंद करता है तो कोई दूसरी। भारत में 76 फीसदी भांग व चरस, 70 फीसदी हेरोइन, 76 प्रतिशत बुप्रीनार्फीन नामक ड्रग्स का इस्तेमाल होता है। इसकी मांग भारत के विभिन्न स्थानों में अलग -अलग है। दिल्ली में नशे की तरंग को तरजीह दी जाती है। यहाँ 34 प्रतिशत महिला नशे की गोलियां लेती हैं। मुंबई में आइस को पसंद किया जाता है।
भारत में 85 प्रतिशत ड्रग्स लेने वाले शिक्षित वर्ग से हैं। 61 प्रतिशत ड्रगखोर दक्षिण भारत के हैं, 61 प्रतिशत कामकाजी पेशेवर हैं तथा 54 प्रतिशत लोग जिनमें अधिकतर युवा हैं, इसे सेक्स के साथ जोड़ते हैं। वर्तमान समय के इस नए सिंथेटिक ड्रग्स के बारे में देखें तो केटामाइन चेतना लुप्त करने वाली दवा है, जिसे ‘डेट रेप’ ड्रग्स भी कहते हैं। यह नींद की दवा वेलियम से दस से बीस गुना प्रभावशाली है। कई बार इन औषधियों को कामुकता बढ़ाने के लिए लिया जाता हैं। इसका असर खत्म होते ही भारी झटका लग सकता है, अधिक सेवन से मौत भी हो सकती है। आइस, जिसे क्रैंक, गलास या क्रिस्टल मेथ के नाम से जाना जाता है, यह भारी नशा देता है तथा हिंसक बना देता है। आज के युवा गांजा, भांग, अफीम को छोड़कर इन सिंथेटिक नशाओं के दीवाने बनते जा रहे हैं।
बंगलौर स्थित विमहान्स में डिएडिक्शन सेंटर की प्रमुख डा. प्रतिमा मूर्ति का कहना है कि शहरों में ड्रग्स के साथ खतरनाक प्रयोग आम बात हो गई है। अधिकतर युवा पेशवर साथियों के दबाव, उबाऊ जिंदगी, तनाव एवं आवश्यकता से अधिक आय की वजह से मादक पदार्थों का सेवन शुरू कर देते हैं। आरएसआरए सैंपल सर्वे में पाया गया है कि 62 फीसदी नशेड़ी युवा नौकरी पेशा हैं। इस तरह के नशे के आदी अधिकतर लोग 20 से 40 वर्ष की उम्र के हैं, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि जहां 2009 में मादक पदार्थ सेवन शुरू करने की उम्र 20 साल थी, वहीं आज घटकर 17 साल हो गई है। इन ड्रग्स का चलन यहाँ तक है कि अब तो स्कूली बच्चे भी कई तरह के ड्रग्स का एक साथ प्रयोग कर रहे हैं। स्वयंसेवी संगठन यूथ एनलाइनिंग दि सोसाइटी ने इंदिरा गाँंधी मेडिकल कॉलेज के साथ 2010 में शिमला के 200 स्कूली बच्चों का सर्वेक्षण किया। उनके अध्ययन के नतीजे इसी ओर संकेत करते हैं कि 55 फीसदी से अधिक लड़के और 24 फीसदी लड़कियां नियमित रूप से मादक पदार्थों का इस्तेमाल करती हैं। इनमें से 29 फीसदी गांजा, कफ सिरप और अफीम का सेवन करते हैं। उड़ीसा में बरहमपुर के पाँंच व्यावसायिक कॉलेजों मेें 2008 में किए गए अध्ययन से पता चला कि नशे की दुनिया में पैर रखने के लिए 15 साल की उम्र सबसे संवेदनशील है। यहां के 29 फीसदी छात्रों ने अपने साथियों के दबाव में मादक पदार्थों का सेवन इसी उम्र में शुरू कर दिया था।
आज की पार्टी का स्वरूप बदल गया है। मदमस्त करने वाली लाइट, धुआं, ड्राइ अइस फाग ओर कान फोड़ने वाले टेक्नो संगीत की धुन पर नाचते सैंकड़ों युवक किसी डान्स पार्टी में नहीं, बल्कि आधुनिक रेव पार्टी में होते हैं। इस पार्टी में शराब नहीं बंटती है, परंतु इससे स्थान पर ऐसी चीजें बंटती हैं, जिन्हें दूसरे नाम दिए गए हैं, पर ये सभी तरह-तरह के नशे हैं। इन सभी को आज कोकीन ओर अफीम के उत्पादों स भी अधिक इस्तेमाल किया जाता है। इन दिनों बरसों पुराना हुक्का आधुनिक रूप धरकर सामने आया है। बड़े-बड़े शॉपिंग माल्स के अलावा अलग से ऐसे रेस्टोरेंट खुल गए हैं, जो सरेआम धुएं में दहकने युवाओं को विशेष स्थान मुहैया करा रहे हैं। लड़कियां भी बड़ी संख्या में इसकी शिकार हो रही हैं।
जीवन में यौवन एक ऊर्जा का आगार है। इस ऊर्जा को नशा, वासना एवं आधुनिक खुली संस्कृति में गंवाना नहीं चाहिए। युवा ऊर्जा एवं शक्ति के प्रतीक हैं, उन्हें इनका उपयोग मनमाने ढंग से करने की छूट नहीं मिल सकती है। इसका नियोजन सदैव रचनात्मकता में, सृजनात्मकता में, पीड़ित मानवता की सेवा में, गरीबी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद आदि के खिलाफ करना चाहिए। आज बहनों की इज्जत सरेआम लूटी जा रही है और भाई कायर बनकर खड़े तमाशा देख रहे हैं, क्योंकि इनमें न तो साहस है, न संघर्ष करने का जज्बा। आज अपने युवा यदि एकजुट होकर समाज के इन अपराधी ऑक्टोपस को मिटाने के लिए आमादा हो जाएं तो फिर ये अधिक समय तक टिक नहीं पाएंगे, परंतु आज हमारे युवा आसुरी शक्तियों के हाथों के खिलौने बन गए हैं। यदि राष्ट्र को फिर से ऊँचा उठाना है तो युवाशक्ति को बचाना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए। इस कार्य में लगे राष्ट्रद्रोहियों को तत्काल मृत्युदण्ड देना और तस्करी को असंभव बनाये बिना न तो इस सर्वनाशी तूफान से निपटा जा सकता है और न ही सरकार की उपस्थिति का कोई अर्थ होगा। क्या आतंकवाद सहित दुनिया की अधिकांश समस्याओं के इस मूल कारण से भिड़ने के लिए हमारे जननायक तैयार हैं या फिर पंजाब की तरह केवल राजनैतिक नाटक ही होता रहेगा?
लेखक सम्पर्क- ए-2/9ए, हस्तसाल रोड, उत्तमनगर, नई दिल्ली-110059 फोन- 09868211911
भविष्य को निगलते नशे से जंग की जरूरत -डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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