एक संवाद प्रेम को बदनाम करने वालों से---डा विनोद बब्बर


इधर बसंत ने दस्तक दी ही थी कि हृदय से अधिक मस्तिष्क में प्रेम का झरना फूट पड़ा। बसंत से होली तक चहूँ ओर प्रेम-ही-प्रेम बिखरा दिखाई देता है। इन दिनों प्रकृति भी अपने रूप-सौंदर्य से इठलाती यौवना प्रतीत होती है तो पक्षियों का कलरव वातावरण में संगीत की छटायें बिखेरता है। पश्चिम का एक दिन का दिखावटी प्रेम पर्व भी इसी दौरान आता है परंतु हम तो मदनोत्सव के पूरे 40 दिन प्रेम की स्वर-लहरियों पर थिरकते हैं। आखिर हो भी क्यों न, प्रेम शाश्वत जो ठहरा। इधर महानगरों से तो जैसे प्रेम का विस्फोट हो गया हो  जिसे देखो वही बुद्धा जयन्ती पार्क से मैट्रो स्टेशन, पीवीआर सिनेमाओं, कॉफी होमों में प्रेम-पुजारी बना दिखाई देता है। प्रेम, प्रेम न हुआ स्वाइन-फ्लू हो गया। चहूँ ओर प्रेम के नाम पर स्वच्छंदता, अश्लीलता रूपी  वायरस के संक्रमण का ज्वार देखकर हमने भी प्रेम के इतिहास-भूगोल पर चर्चा करने की ठानी है।
प्रेम मानवीय आवश्यकता है। इसके बिना तो संसार निस्सार है परंतु क्या प्रेम का स्वरुप देश काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित होता रहता है? क्या मनमाना रूप ग्रहण कर लेना ही प्रेम का स्वरुप है? क्या प्रेम महज दैहिक अभिव्यक्ति है? क्या युवा अवस्था में किसी के प्रति मन में उठ रही भावनाएं ही प्रेम हैं? शायद नहीं क्यांेकि प्रेम इतना गिर नहीं सकता। प्रेम शक्तिशाली ही कर सकते हैं। वह शक्ति शरीर की नहीं, मन में निहित है। कमजोर मन फौरन प्रतिफल चाहता है क्योंकि वह प्रेम नहीं, व्यापार करता है। हमारे संतों ने प्रेम का गुणगान किया है। कबीर कहते हैं-
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित हुआ न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
रसखान कहते है- ,प्रेम प्रेम सब कोउ कहत, प्रेम न जानत कोइ। जो जन जानै प्रेम तो मरै जगत क्यों रोइ।
गुरुगोविंद सिंह जी फरमाते हैं- सांच कहू सुन लीजो सदा, जिन प्रेम कियो तिन ही प्रभ पायौ।
इसीलिए मैं भी प्रेम करता हूँ- अपनी माँ से, अपनी मातृभूमि से, अपनी मातृभाषा से, ...और उन सबसे जो भारत को अपनी जन्मभूमि, पुण्यभूमि मानकर इसके यश में श्रीवृद्धि कर रहे हैं। वे सब जो अपने माता-पिता को आदर देते हैं, अपने बच्चो को देश का सुयोग्य और जिम्मेवार नागरिक बनाना चाहते हैं। मेरे प्रेमियों की लिस्ट बहुत लम्बी है लेकिन पिछले कुछ वर्षाें से  प्रेम के नाम पर समाज में अश्लीलता, फूहड़ता, वासना और सेक्स को परोसा जा रहा है, उसे प्रेम का नाम देना उचित नहीं है। वैलेंटाइन डे सहित तमाम अन्य ‘डे ओ’ पर जो कुछ देखने को मिलता है, हो सकता है वह पश्चिमी संस्कृति में गलत न हो लेकिन हमारी सभ्यता और संस्कृति में इसे अश्लीलता ही कहा जाएगा। प्रेम दिवस के मौके पर सड़कों और पार्कों में खुलेआम आलिंगनबद्ध होना आखिर क्या है? अपने अनुभव के आधार पर दावा कर सकता हूँ कि पश्चिमी समाज में मनाए जाने वाले वैलेंटाइन डे, रोज़ डे, फादर्स डे, मदर्स डे आदि की प्रासंगिकता इसलिए है क्योंकि वहाँ सबकुछ औपचारिक है। किसी को किसी से विशेष लगाव नहीं है। सब अलग-थलग हैं। यूरोप प्रवास के दौरान एक मित्र के यहाँ जाने पर उनके बच्चों के बारे में पूछा तो वे परेशान दिखाई दिये। दरअसल उनके युवा बेटा-बेटी उनसे अलग रहते थे। ‘क्या वे शादी कर चुके हैं?’ इसके जवाब में उन्होंने उत्तर दिया था, ‘नहीं अभी ही पढ़ाई पूरी कर जॉब में आए है।’ ‘क्या किसी दूर शहर में नौकरी है?’ इसका उत्तर देते हुए बहुत लज्जित थे वे मित्र क्योंकि बच्चे उसी शहर में उनसे अलग रहते थे और कभी-कभार फोन पर ही उनसे सम्पर्क हो पाता था। शायद इसी कारण किसी खास दिन अपनों के प्रति अपना प्रेम, प्रदर्शित किया जाता हैं। अब यह वायरस तेजी से हमारे देश में भी फैल रहा है।
हमारे संतों ने सदा कहा है- प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाय। मगर  दिनभर टीवी चैनलों पर चहकते गलबहिया करते प्रेमी जोड़ों को देखकर फैसला करना मुश्किल होता है कि वे हमें प्रेममय होने का संदेश दे रहे हैं या अपनी कम्पनी के उत्पाद खरीदने के लिए भड़का-उकसा रहे हैं। धन्य है टीवी प्रेम, जो सब कुछ हाट बिकाय की धुन पर प्रेम को व्यवसाय बनाने पर आमादा है। यह टीवी का ही कमाल है कि आपका अपना लाडला भी अपनी विज्ञापनी माँगे पूरी होने पर ही आपसे प्रेम करता है। आज किसी भी सिनेमा हॉल या रेस्तरा में हर टेबल पर सिर-से-सिर जोड़े प्रेमी जोडे़ को देखकर अब  कोई कैसे विश्वास करेगा कि ‘प्रेम न हाट बिकाय’।  प्रेमिका को महंगे गिफ्ट दिये बिना क्या कोई मजनूं, कोई फरहाद, कोई रांझा कामयाब हो सकता है? आज की गोपियां किसी कान्हा की बांसूरी की धुन पर थोड़े ही रिझती हैं। उनकी नजर उसकी गाड़ी, जेब, दिल पर ज्यादा रहती है। नई परिभाषा के अनुसार  दिल प्रेम के लिए नहीं केवल खर्च करने-लुटाने के लिए होता है।
हमारा खुला सवाल है दिखावटी प्रेम करने वालों से कि क्या उनके मन मे कभी अपने इर्द-गिर्द रहने वाले बेसहारा- गरीब बच्चों के प्रति प्रेम उमड़ा है? क्या वृद्धाश्रम में नीरस जीवन बिताने वालों के प्रति उनके प्रेम का झरना फूटा है? यदि नहीं तो क्यों? अपनी प्रेमिका के लिए महंगे से महंगे फूल ले जाने वालों ने क्या कभी अपने उस मजबूर बाप को, जिसने उसे पालने-पोसने से लेकर काबिल बनाने के लिए क्या नहीं किया,  एक सस्ता गेंदे का फूल भी लाकर दिया है? होटल, क्लब अथवा पार्क में घंटों इन्तजार करने वालों ने क्या उन दो जोड़ी आँखों के बारे में भी सोचा है, जो घर पर उनकी राह जोह रही हैं?
आखिर इन्हें कौन बतायेगा कि मातृ- भूमि से मुहब्बत करने वाले भगत सिंह, चन्द्रशेखर अशफाकुल्ला खान,  सुभाषचन्द्र बोस, लाला लाजपत राय के प्रति श्रद्धा-प्रेम हमेशा कायम रहेगी।
यहाँ यह स्पष्ट कर दें कि हमारी संस्कृति प्रेम की विरोधी नहीं है। सत्य तो यह है कि हमे जीवन के हर कदम पर प्रेम और सद्भावना की घुट्टी पिलाई जाती है। हमारे पूर्वजों का मत था कि जिस घर में  भौतिक सुख का हर साधन उपलब्ध हो, अगर वहाँ प्रेम न हो तो वह घर श्मशान से किसी भी तरह बेहतर नहीं हैै। श्मशान, जहाँ मूर्दें रहते हैं। वे एक दूसरे के काम नहीं आ सकते, एक-दूसरे के दुख- पीडा को नहीं समझ सकते। भारतीय संस्कृति की मान्यता है कि जिस परिवार में सेवा, समर्पण, सदाचार हो, वहाँ प्रेमी रुपी अमृत खूब बरसता है। ठीक इसके उल्टे, जहाँ संवेदनहीनता हो, ईर्ष्या, नफरत हो उस घर को नर्क नहीं तो और क्या कहेंगे?
प्रेम हमारे जीवन की आवश्यकता है। शिशुपन में माँ के प्रति वात्सल्य, बचपन में अपने परिवार, अपने परिवेश के साथ- साथ ज्ञानार्जन  के प्रति समर्पण रुपी प्रेम। युवावस्था में अपने भविष्य निर्माण की सच्ची लगन, शिक्षा और ट्रेनिंग के प्रति समर्पण, माता- पिता के स्वप्न साकार करने के लिए एकलव्य जैसी एकाग्रता और सदाचार। विवाह के पश्चात् अपने जीवन साथी के प्रति ईमानदारी व प्रेम, बच्चों के प्रति प्राण-प्रण से जुटने वाली ममता लेकिन अपने जनक-जननी एवं समाज के प्रति दायित्वों में कहीं कोई कमी नहीं। अपने व्यवसाय के प्रति पूरी ईमानदारी और निष्ठा रुपी प्रेम जीवन भर का अभ्यास होना चाहिए।
आज वासना से सने जिस प्रेम की चर्चा है, उसे हम किस श्रेणी में रखें? स्कूल-कॉलेजों तक पहुँचे प्रेम के इस विकृत स्वरुप ने सारे समाज को चिंता में डाल दिया है, क्योंकि यह वासना ही तो है जो प्रेम का लबादा ओढे़ है। वरना जो प्रेम जन्म-जन्म का साथ निभाने का दम भर कर परवान चढ़ता है, वह एक ही दिन में कई-कई रुप बदलता नजर क्यों आता है? आज तेरे साथ, कल इसके साथ, परसों उसके साथ, फिर किसी और, और .....के साथ। यह प्रेम नहीं, सीधे-सीधे छल है। ’मैं जिससे प्रेम करता हूँ, वही हो मेरा जीवन साथी’ जैसी बड़ी-बड़ी बाते करने वालांे का प्रेम सरोवर कुछ ही दिनों में, क्यों मरुस्थल में तबदील हो जाता है कि बात तलाक तक जा पहुँचती है? क्या इस संबंध में सोच बदलने की जरुरत नहीं है? ’मैं जिससे प्रेम करता हूँ, वही हो मेरा जीवन साथी’ की बजाय यदि ’जो मेरा जीवन साथी हो, उसी से सदा-नीरा की तरह हो मेरा प्रेम’ की अवधारणा पर चिंतन करना होगा।  
प्रेम मीरा की भक्ति है, शिवा की शक्ति है, राणा का त्याग है,  लक्ष्मण की कर्तव्यनिष्ठा है, बीरबल की सजगता है, तानसेन और बैजू का संगीत है, तुलसीदास की साहित्य साधना है, कबीर की साधुक्कड़ी वाणी है, ऋतुओं का सौंदर्य है, पर्वत सी अचलता है, सागर की विशालता है, गंगा-जल सी निर्मलता है, किसी अबोध की निश्छलता है, किसी मासूम की पीड़ा को अपने हृदय में महसूस करने की अनुभूति है तो श्रवण कुमार सी पितृ भक्ति है। महारानी कर्मवती की राखी की लाज भी तो प्रेम ही थी।
देश पर मर-मिटने का मंत्र है, जिसे जन-गन-मण के प्रति अपना कर्तव्य कभी न भूले, वह तंत्र हैं।
प्रेम आलम्ब है, अभिनंदन है, आश्वति है। अपने प्रेम से एकाकार होने का उपक्रम है। यकीन मानिये, पन्नाधाय की प्रेरणा बनकर निजसुत को राष्ट्र की बलि बेदी पर कुर्बान करने के साहस का नाम प्रेम ही तो था। हाड़ा रानी द्वारा प्रथम मिलन की सेज से वतन की लाज रखने के लिए पति को हटाना, अपना शीश देकर भी मातृ-भूमि का शीश ऊँचा रखने का दुस्साहस प्रेम नहीं तो और क्या था?
मजहब परस्ती से बढ़कर वतन परस्ती के नायक इब्राहिम गार्दी द्वारा देश के दुश्मन अहमदशाह अब्दाली को धिक्कारने का बल प्रेम ही तो है। जलियावाला बाग में बही खून की एक-एक बूँद है, अब्दुल हमीद की वतनपरस्ती है, शिकागो में भारतीय संस्कृति का जयघोष करते स्वामी विवेकानंद का विवेक है, कश्मीर की केसर है, बंगाल का नंदनवन है। कच्छ का विस्तृत रण सा प्रेम देश के जन-जन के हृदय में एकता की प्रेरणा उत्पन्न करने का सबक बनता रहा है, बना रहना चाहिए क्योंकि इसके बिना हम मनुष्य होकर भी मनुष्यता से दूर हैं, शक्ति- सामर्थ्य होते हुए भी निष्क्रिय-निष्प्राण और निर्लज्ज की संज्ञा पा सकते हैं।
विद्यार्थी जीवन को बह्मचर्य आश्रम कहने वालों का मजाक उड़ाने वाले तथा प्रेम के नाम पर स्वच्छंदता के पक्षधर युवाओं के तेजविहीन चेहरे देखकर भी संयम के महत्व को नहीं समझ पाते तो उन्हें कौन समझा सकता है कि किसी भी राष्ट्र की सच्ची संपत्ति हैं उसकी युवा पीढ़ी  जिसके शरीर की आभा में प्रकृति का सबसे अधिक स्पष्ट दर्शन होता है। युवा हृदय में उदारता और कर्मण्यता, सहिष्णुता और अदम्य साहस के स्रोत का प्रवाह पूरे जोरों पर होता है। किसी भी देश का भविष्य उसकी युवा शक्ति पर ही निर्भर होता है। वही उसकी सही अनुभूति और यथार्थ प्रतिबिंब है। युवा ही वह शक्ति है, जो त्रासदी और कुंठाओं को समाप्त कर नव-सृजन कर सकता है।
यह स्मरणीय है कि 25 वर्ष की आयु से पूर्व ही न्यूटन अनेक आविष्कार कर चुका था तो मार्टिन लूथर इससे पहले ही धर्म-सुधार के लिए यूरोप में हलचल मचा चुके थे। नेपोलियन ने इटली पर विजय प्राप्त की, सिकंदर विश्वविजेता बनने का अभियान आरंभ कर चुका था। विदेशियों की छोड़े स्वयं आदिशंकराचार्य, स्वामी रामतीर्थ और विवेकानंद ने इसी अवस्था में पूरे विश्व को चकित कर दिया था। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह गहन चिंतन का विषय है कि युवा पीढ़ी के सम्मुख परोसे जा रहे कोरे भौतिकवाद को अपने देश की संस्कृति, परंपराओं, धर्म और अध्यात्म से जोड़ने के लिए क्या प्रयास किए जाने चाहिए?आओ प्रेम- सद्भावना की सुगंध समीर फैलाने में बाधक बनी सभी दीवारों को गिराने में हम सब साथ-साथ मिलकर हल्ला बोले। जयहिन्द! जय हिन्द के प्रेमी!!
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