वृंदावन की विधवाएं, भिखारी और हेमा-- डा. विनोद बब्बर
राजनीति भी क्या चीज है। दशकों से ड्रीमगर्ल के नाम से अपनी पहचान बनाने वाली अभिनेत्री जिसके गालों जैसी सड़क बनाने का दावा एक ‘ख्यात’ मुख्यमंत्री किया करते थे आज स्वयं राजनीति में है तो सबके निशाने पर है। जी हां हम मथुरा से भाजपा सांसद, रंगमंच कलाकार, शास्त्रीय नृत्यांगना प्रसिद्ध अभिनेत्री हेमा मालिनी की ही बात कर रहे हैं। जिन्होंने अपने निर्वाचन क्षेत्र मथूरा वृंदावन में वर्षों से रह रही देशभर की हजारों विधवाओं पर एक बयान देकर अपने तमाम राजनैतिक विरोधियों को जैसे अपनी आलोचना के लिए उकसाया हो। जिसे देखो वही उनसे सार्वजनिक रूप से माफी की मांग करता नजर आ रहा है।
इस विवाद की शुरुआत तब हुई जब एक ऐसे ही आश्रम का दौरा करने के बाद हेमामालिनी ने कहा- ‘वृंदावन में 40 हजार विधवाएं हैं। मुझे नहीं लगता कि शहर में और विधवाओं के लिए जगह है। इनकी बड़ी तादाद बंगाल से आ रही है। यह ठीक नहीं है। वे वही क्यों नहीं रहतीं। वहां भी बहुत अच्छे मंदिर हैं। ऐसा ही बिहार में है। मेरी जानकारी के अनुसार इन में से अनेक विधवाओं के पास बढ़िया बैंक बैलेंस है, अच्छी आय होती है, बढ़िया बिस्तर होते हैं, लेकिन ये आदतन भीख मांगती हैं। मैं शीघ्र ही इस संबंध में बंगाल की मुख्यमंत्री से बात करूंगी।’
कांग्रेस के प्रवक्ता के अनुसार- ‘हेमा मालिनी को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म का ज्ञान नहीं है। प्राचीन धार्मिक परंपराओं के अनुसार काशी और मथुरा में बंगाल एवं बिहार सहित देश के अन्य राज्यों की भी विधवाएं वहां के आश्रमों में रहकर ईश्वर की साधना एवं भक्ति में लीन रहकर साध्वी के वेश में अपने शेष जीवन को प्रभु उपासना में व्यतीत करती हैं। हेमा ने विद्वेषपूर्ण भाषा का प्रयोग कर स्वयं और अपने दल की महिलाओं के प्रति नकारात्मक सोच का प्रमाण प्रस्तुत किया है।’ आश्चर्य तो यह है कि उत्तरप्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री जी से जब इस विवाद पर प्रश्न पूछा गया तो उल्टा सवाल दागते हुए पूछा, ‘कौन है हेमामालिनी?’
विवाद बढ़ने पर हेमा ने फिर दोहराया है- ‘यह देखना दर्दनाक है कि गरीब विधवाएं सड़कों पर अपनी जीविका चलाने के लिए भीख मांगती हैं। क्या आप सभी ने कभी भी उनकी दुर्दशा महसूस की है। मेरा लक्ष्य उनको इस अवस्था से बाहर निकालना है लेकिन यह समझना होगा कि वृंदावन में भी स्थान सीमित है।’
वृंदावन में विधवा आश्रम ‘आमार बाड़ी (अब मां धाम ) की स्थापना करने वाली डा मोहिनी गिरी का कहना है, ‘इन विधवाओं से भीख के पैसे तक छीन लिये जाते हैं और पुलिस डंडे बरसाने से भी नहीं हिचकिचाती। हेमा ने हजारों विधवाओं की उम्मीदें तोड़ दी हैं। यदि उनका मत है कि इन विधवाओं के वृंदावन के मंदिरों में रहकर आम जनता को दर्शन में मुश्किलें पैदा कर रही हैं तो उन्हें (हेमा) को भी बताना चाहिए कि वह स्वयं भीड़भरी मुंबई में क्यों रहती हैं जबकि उनका घर तमिलनाडु में है।’ वैसे डा मोहिनी गिरी यह बताना नहीं भूलती, ‘हमने 20 साल पहले पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु से इस बारे में बात की थी, जिन्होंने विधवाओं को छत और 300 रूपये प्रतिमाह पेंशन देने का वादा किया था। मैने इन विधवाओं का सर्वे कराया और एक ने भी बंगाल लौटने की इच्छा नहीं जताई। हम हर विधवा को मतदाता पहचान पत्र दिला, उन्हें भयमुक्त भी करना चाहते है।’
उस क्षेत्र में कार्यरत एक समाजसेवी के अनुसार, ‘सबसे पहले तो हमें इन विधवाओं के सामाजिक और सांस्कृतिक हालात को समझना चाहिए। आखिर वे अपनी मर्जी से यहां नहीं आईं, बल्कि परिवार द्वारा त्यागे जाने के बाद काशी या वृंदावन में पनाह लेती है। यह काफी संवेदनशील मसला है। निशाने पर ये विधवाएं नहीं बल्कि वह असामाजिक, असंवेदनहीन व्यवस्था होनी चाहिए जो अपने ही परिवार की विधवाओं की गरिमा छीनता है। दीन हीन दशा में जीवन व्यतीत करने वाली विधवाओं की चर्चा करते हुए उनका मत है कि भीख माफिया की उपस्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता परंतु सभी एकसमान नहीं है। यह समझना होगा कि कोई भी न तो आदतन भीख मांगना चाहता है और ऐसे हालात में नहीं रहना चाहता।’
बेशक पहली बार सीधे जनप्रतिनिधि (लोकसभा सदस्य) बनी हेमामालिनी ने छत्ते में हाथ देने की गुस्ताखी की है लेकिन एक अवसर भी उपलब्ध कराया है कि जब हम गंभीर विषय पर चर्चा कर सकते है। हमें देखना होगा कि आखिर वे कौन लोग है जो अपने ही परिवार की इन महिलाओं को घर से निकाल देते हैं या यहां छोड़ जाते हैं। क्या ऐसे लोगों की पहचान कर उन्हें दंडित नहीं किया जाना चाहिए? क्या राज्य सरकारों द्वारा विधवाओं की अनदेखी अर्थात् जनकल्याण के प्रति असंवेदनहीनता निशाने पर नहीं होनी चाहिए? क्या धार्मिक स्थानों की बजाय उन्हें अपने परिवेश में ही स्थापित नहीं किया जा सकता? क्या भीख मांगने के लिए विवश करने की बजाय उन्हें पढ़ाई, लिखाई, कोई दस्तकारी का कार्य सिखाकर अपने पैरों पर खड़ा नहीं किया जा सकता? आज जब हमारी जेलों में प्रशिक्षण देकर समाज के प्रति अपराध करने वालों को भी अपनी उपयोगिता बढ़ाने का अवसर दिया जाता है तो इन मासूम, निर्दोष विधवाओं की अनदेखी क्यों? जो स्वयं को इस देश की समस्त प्रगति का श्रेय देते हैं उन्हें विधवाओं की दुर्दशा को ‘प्राचीन धार्मिक परंपरा’’ घोषित करते अपराधबोध क्यों नहीं होता?
क्या ऐसी समस्याओं के मूल में हमारा दोगलापन दोषी नहीं है? एक ओर हम गाते-दोहराते नहीं थकते कि- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनु स्मृति 3-56)’ अर्थात् जिस कुल में स्त्रियाँ पूजित होती हैं, उस कुल से देवता प्रसन्न होते हैं। जहाँ स्त्रियों का अपमान होता है, वहाँ सभी ज्ञानदि कर्म निष्फल होते हैं। उस समाज में विधवाओं को घर से निकालने वाली कुप्रथा क्यों बरकरार है? कहाँ गए हमारे समाज सुधारक, हमारे संत, हमारे उद्धारक, हमारे देश के संसाधनों पर समुदाय विशेष का प्रथम अधिकार बताने वाले? अािर्थक सुधारों की बड़ी-बड़ी बाते करने वालों को बताना चाहिए कि ऐसी शर्मनाक परिस्थितियों के आस्तित्व का कारण क्या है और वे तमाम कानूनों और उन्हें लागू करने की शक्ति के बावजूद असफल क्यों रहे? असहाय, विकलांग, विधवा, वृद्ध को पैंशन की अनेक योजनाओं के रहते यदि बंगाल, बिहार अथवा अन्य किसी स्थान की विधवा वृंदावन आती है तो स्पष्ट है कि व्यवहार में ये योजनाएं असफल है। यदि इस असफलता के लिए हेमा मालिनी दोषी है तो निश्चित रूप से उन्हें क्षमा नहीं किया जाना चाहिए लेकिन गंदगी को छिपाना, दबाना कोई समाधान नहीं है।
सवाल यहीं तक रहता तो शायद इसको इतना गंभीर नहीं माना जाता, लेकिन जिस तरह की समस्याएं वृद्धों के साथ है। समाज में विखंडन की बढ़ती प्रवृति के कारण बहुत तेजी से वृद्धाश्रमों की मांग बढ़ रही है लेकिन वृद्धाश्रमों की दशा क्या है? हैं भी तो कितने? केवल सरकारों को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि समाज के मूल में ‘अपनो’ को ‘उपेक्षित’ करने का वायरस आखिर कहां से प्रवेश कर गया है। क्या भोगवादी संस्कृति के सर्वाधिक प्रचलित शब्द है ‘यूज एंड थ्रो’ का व्यवहारिक रूप है? , जब तक कोई व्यक्ति अथवा वस्तु उपयोगी है, उसका जमकर प्रयोग- दुरूपयोग करा। उसे महान बताओं, उसके गुण गाओं लेकिन जब उसकी उपयोगिता न रहे तो.....!
कोई स्वयं तो विधवा हुई नहीं। यदि परिस्थितिवश दुर्भाग्य से ऐसा हुआ भी है तो उस अबला को संपत्ति से बेदखल कर, उसे अपने आस-पास देखना नहीं चाहते वे सबसे बड़े अपराधी है। इस मूल मुद्दे से ध्यान हटाने का प्रयास करने वाले भी कम दोषी नहीं है। ऐसे भी अनेक मामले सामने आते हैं जब ‘अपनो’ द्वारा ठुकराई इन अबलाओं को विधर्मी देह-व्यापार में धकेलने तक उतारू रहते है। यह सही है कि हेमा मालिनी ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न को जिस तरीके से डइाया है वह असंवेदनशील हो लेकिन
क्या इतने भर से हम सबको समाज के रूप में, जनप्रतिनिधियों और सरकार का संरक्षक के रूप में होते हुए भी अपनी आंखे मूंदे रखनी चाहिए? क्या ‘बुरा मत देखो’ की नीति आत्मघाती नहीं है? क्या राजधर्म की सीमा केवल अपनो को बचाने से आगे नहीं बढ़ती? क्या मीडिया से सोशल मीडिया तक इस तरह के संवेदनशील मुद्दों पर चुप्पी को उचित ठहराया जा सकता है? आखिर कब आएगे हमारे उन माता-बहनों, बेटियों के अच्छे दिन जो वृंदावन सहित देश के किसी भी कोने में विवशता की स्थिति में है? यह स्पष्ट होना ही चाहिए कि इस महत्वपूर्ण प्रश्न का मौन रहना हमारी संवेदनाओं की मृत्यु की घोषणा है या स्वार्थ पर सिद्धांतों की चाशनी लपेटकर प्रस्तुत करने की कला। - डा. विनोद बब्बर 09868211911
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