बढ़ती असहिष्णुता के दुष्परिणाम --- डा. विनोद बब्बर

दिल्ली जो कभी दिलवालो की नगरी कहलाती थी लेकिन बदलते दौर में दिल्ली की जनसंख्या बढ़ने के साथ ही उसका चरित्र भी बदला। सड़कों पर भीड़, जाम तो जैसे इसकी नियति बन चुकी है। पार्किंग विवाद हो या सड़क पर जरा सा छू जाने की घटना कुछ लोग तो जैसे मरने-मारने पर उतारू रहते हैं।  गत दिवस दिल्ली में पत्नी और बच्चों के सामने जरा सी बात पर पिता को पीट-पीट कर मारने के समाचार ने एक बार फिर चौंकाया है। पार्किंग विवाद के चलते एक सांसद के बेटे की पड़ोसियों द्वारा पिटाई से पहले सहायक पुलिस आयुक्त तक से सड़क पर विवाद सुरखियों में रहना साबित करता है कि रोडरैंज में शहनवाज की मौत  अपनी तरह की कोई पहली घटना नहीं है। पिछले एक वर्ष में रोड़रेज पार्किंग के कारण 12 की जान लेने वाली दिल्ली तो  जैसे छोटी-छोटी बातों पर विवेक खोने का रिकार्ड बनाने पर आमादा है। 
पिछले दिनांे दो छात्रो ने तीसरे की हत्या की। स्कूलों से कालेजों तक, कार्यस्थल से बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन तक, हर गली से सड़क तक हर जगह वातावरण में एक अजीब प्रकार की बेचैनी अनुभव की जा रही है। कहीं कोई अपनो के बीच रहकर भी स्वयं को असुरक्षित कर रहा है तो कोई अपमान का घूंट पीने को विवश है। हम जब अपने परिवेश में देखते हैं कि मामूली सी रगड़ पर कहासुनी के बाद मार पिटाई और बात जान लेने तक जा पहुंची। गरीब बस्तियों में पानी भरने ,चारपाई बिछाने जैसे गैर जरूरी मुद्दों पर विवाद तो मध्यम वर्ग की कालोनियों में अनेक बार बूड़ा फेंकने अथवा गलत जगह गाड़ी खड़ी करने का विवाद भी खून-खराबे का कारण बन जाता है। जो लोग रेल के सामान्य डिब्बे में यात्रा करते हैं उन्हें मालूम है कि सीट पर कब्जा करने के लिए कई बार बात इतनी बढ़ जाती है कि यात्रा यातना बन जाती है। कुछ वर्ष पूर्व उस समय के प्रधानमंत्री के भानजे को छोटी सी बात पर चलती टेªेन से धक्का दे दिया था।
आज हम अपनी युवा पीढ़ी को हर तरह की प्रतियोगिता के लिए मानसिक रूप से तैयार करने की बजाय उससे शत-प्रतिशत अंकों की अपेक्षा करने लगते है। हम अपने बच्चों को अच्छा इंसान बनाने की बजाय अधिक सफलता प्राप्त करने की मशीन बनाने पर उतारू हैं। हमने उन्हें इतना आत्मकेंद्रित बना देते हैं कि उसे अपने मार्ग में आने वाली कोई भी बाधा स्वीकार नहीं। यह बात सड़क से घर तक हर स्थान पर स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। 
सड़कों पर एक दूसरे से आगे निकलने की होड़, टेढ़े-मेढ़े होकर बेतरकीब किसी भी तरह से अपनी अधिकतम गति के साथ आगे बढ़ना आखिर किस प्रकार की विवेकशीलता है? इसी प्रकार से युवा पीढ़ी हर प्रकार की मर्यादा और संस्कृति के चिन्हों को भुलाकर कामातुर हो रही है। प्रेम के नाम पर बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो उसे ‘डू ऑर डाई’ जैसे मानसिक अवसाद की ओर धकेल रहा है। ऐसे प्रेम में प्रेम कम और वासना अधिक दिखाई देती है। यदि हत्या और आत्महत्या की बढ़ती हुई प्रवृति पर चिंतन करें तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि अनियंत्रित हिंसक मनुष्य जब पशु की तरह व्यवहार करता है तो उस समय मानव जाति का समस्त विकास शून्य दिखाई देने लगता है। यह सभी जानते हैं जबकि किसी भी विवाद के परिणामों पर गंभीरता से विचार करें तो यह तथ्य सामने आता है कि उसमें किसी पक्ष की जीत नहीं होती। सभी हारते हैं। केवल नुकसान ही नुकसान होता हे। जिसने आवेश में आकर अतिवादी कदम उठाया हो, वह भी एक मोड़ पर आकर अपने कृत्य पर पछताता है। इस स्थिति के बारे में लगभग सभी मनोवैज्ञानिकों का मत है कि  आज भौतिकता की बढ़ती दौड़, गलाकाट प्रतियोगिता, व्यस्तता और तनाव इतना अधिक हो गया है कि छोटी सी बात पर गुस्सा आ सकता है। अपनी ही समस्याओं ने हमें संवेदनहीन बना दिया है और हम दूसरों की समस्याओं को गंभीरता से लेने की बजाय हम या तो निष्क्रिय बन रहते हैं अथवा अति प्रतिक्रियावादी। आखिर हमें कब समझ में आएगा कि छोटी-छोटी बातों पर हिंसक हो उठना, आवेश में किसी की जान तक लेने की  बढ़ती प्रवृति आत्मघाती है।
इधर थोड़ी सी अव्यवस्था अथवा अपनी इच्छा न पूरी होने के कारण आत्महंता बनने की प्रवृति भी तेजी से बढ़ रही है। जरा-जरा सी बात पर बेकाबू हो जाना अर्थात असिहष्णुता किसी गंभीर बीमारी का संकेत है। बेषक दिल्ली रोड रेज के आरोपी कानून के गिरफ्त में हैं। यह उस अपराध के दोषियों को उनकी करनी की सजा दिलाने का प्रयास है। असली चुनौती इस प्रकार की शर्मनाक घटनाओं को रोकना है। यह कार्य केवल कानून के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। सम्पूर्ण समाज को आत्म चिंतन करना होगा कि चूक कहां है। क्या यह सत्य नहीं कि अनेक महत्वकांक्षाओं और आपेक्षाओं में पली बढ़ी हमारी नयी पीढ़ी की व्यथा है कि हमने उसे सभी साधन तो उपलब्ध करा दिये गये हैं लेकिन सेवा, संस्कार और सहिष्णुता जैसे गुण हम देना भूल गए। यदि हम अपने दिल पर हाथ दखकर स्वयं से पूछें कि हमने अपने माता-पिता के प्रति कितनी श्रद्धा रखी,, अपने परिजनों के लिए कितना त्याग किया, राष्ट्र और समाज के प्रति हमारा चिंतन क्या है? तो निश्चित रूप से इसी प्रश्न के उत्तर में अनेक संमस्याओं का कारण समझ में आ जायेगा।  
जिन लोगों को खुलेपन के नाम पर नंगेपन से भी परहेज नहीं औश्र जो लोग स्कूली शिक्षा में  यौन शिक्षा आरंभ करने की पूरजोर वकालत करते है उन्हें नैतिक शिक्षा की जरूरत कभी महसूस नहीं हुइ। आखिर उनकी दृष्टि में नैतिक शिक्षा का अर्थ शिक्षा का भगवाकरण क्यों है? हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में तनाव और अवसाद को नियंत्रित करने, सड़क यातायात के नियमों का पालन करने, दूसरों की बात को शालीनता से सुनने समझने जैसे पाठ्यक्रमों की बहुत अधिक जरूरत है। इसके अतिरिक्त टीवी चैनलों द्वारा फैलाई जा रही अपसंस्कृति को भी फिर से जाँचने और कसने की जरूरत है। ऐसे कार्यक्रम जो स्वछंदता को बढ़ावा देते हैं, रिश्तों को विकृत रूप में प्रस्तुत करतें हों और आत्मकेंद्रित स्वार्थी मानव बनाने का काम करते हों वे परिवार और समाज की शांति को भंग करते हैं और ऐसी स्थिति उत्पन्न करतें हैं जिन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। 
एक और बात जिस पर हमें विचार करना होगा कि परिवार के सदस्यों का आपस में घटता संवाद, एक दूसरे से दूर-दूर रहने, दूसरे की पीड़ा को समझने की जरूरत न महसूस करना भी ऐसे तनावों का कारण बनता है। ऐसे तनावों को समाप्त करने तथा परिवार का वातावरण सुखद बनाने में हमारी मातृशक्ति की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है क्योंकि परिवार का आधार ही नारी है। यदि हर सास अपनी बहू को बेटी के समान और बहू सास को मां का दर्जा देने लगे तो इस प्रकार की स्थितियों से बचा जा सकता है जो मानवता को कलंकित करती हैं, मधुर रिश्तों  को विषाक्त बनाती हैं और निर्दोष बच्चों के भविष्य को अंधकारमय बनाती हैं। आज की सबसे बड़ी जरूरत अपनी अगली पीढ़ी को सद्संस्कार देकर उसमें असहिष्णुता की बढ़ती हुई प्रवृति पर अंकुश लगाने की है। हम सब अपने बच्चों के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं तो क्या हमें अपने आपसे यह प्रश्न पूछनना चाहिए कि क्या हम सुख के साधन ही इकट्ठे करते रहेंगे या फिर सुख के लिए नैतिकता की साधना करने की जरूरत भी महसूस करेंगे? (लेखक  संपर्क-09868211911)
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  1. समाज के सामने विकट स्थिति...

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