हे राम, यह शिक्षा है या शोषण! Is it Education or Exploitation?
पिछले सप्ताह राजस्थान के एक विद्यालय में कुछ संन्यासी बच्चों को देखकर उनके बारे में जानने की उत्सुकता हुई। हमें बताया गया कि अपनी गरीबी के कारण बच्चों के भरण पोषण में असमर्थ उनके माता-पिता ने उन्हें मध्यप्रदेश के एक संत की शरण में छोड़ दिया है। अब उस संत की ओर से इन बच्चों की शिक्षा एवं भरण पोषण की व्यवस्था की जाती है। उन बच्चों से उनके परिवार, के बारे में बातचीत करने पर आंसूओं के अतिरिक्त उनके पास कोई उत्तर न था। हां, यह बात अलग थी कि उन सभी बच्चों ने अपने संत पिता की प्रशंसा की जो समय-समय पर वहां आकर उनका हर तरह से ध्यान रखते हैं।लौटते हुए रास्ते में एक सरकारी स्कूल में रूके तो जानकारी मिली कि ‘मिड डे मिल’ ग्रहण कर बच्चे अपने-अपने घर जा चुके है। ‘क्या उन्हें पढ़ाया नहीं जाता?’ के जवाब में बताया गया कि इस गरीब और पिछड़े हुए क्षेत्र के अधिकांश बच्चों को ‘मिड डे मिल’ का आकर्षण स्कूल तक लाता है। उन्हें पढ़ाने का प्रयास को किया जाता है लेकिन ज्यादा देर उन्हें रोका नहीं जा सकता। अभी हाल ही में गर्मी की लंबी छुट्टियां समाप्त हुई हैं इसलिए उनका अभ्यास धीरे- धीरे बदलेगा तो ज्यादा देर रूकने लगेगे। वह यह जानकारी भी मिली कि अति पिछड़े एवं आदिवासी क्षेत्रों में बच्चियों को स्कूल आने पर ‘मिड डे मिल’ के अतिरिक्त नकद राशि भी दी जाती है। अनेक माता-पिता केवल इसीलिए अपने बच्चों को स्कूल भेजते है। ऐसे स्कूलों में पुस्तकें, बस्ता ही नहीं स्कूल की वर्दी भी सरकार द्वारा निःशुल्क प्रदान की जाती है।
यह स्थिति केवल उस क्षेत्र की नहीं, देश के अधिकांश राजकीय विद्यालयों में ‘मिड डे मिल’ दिया जाता है। हां, यह बात अलग है कि इसमें भ्रष्टाचार, घटिया भोजन आदि की शिकायतें भी समय- समय पर सामने आती रहती हैं। राज्य सरकारों द्वारा इसमें सुधार करने के प्रयास भी जारी रहते हैं। अनेक बार इन स्कूलों में शिक्षा के स्तर पर भी बहस होती रहती है। वास्तव में जहां बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए इस तरह के प्रयास करने पड़ते हो और पकाने से बांटने तक की जिम्मेवारी शिक्षकों की हो वहां शिक्षा का वातावरण कितना गंभीर होगा, समझा जा सकता है। शायद कुछ ऐसे ही कारणो से देश भर में ‘पब्लिक’ स्कूलों की बाढ सी़ आ गई है। इन स्कूलों में सरकारी स्कूलों से बेहतर शिक्षा देने के दावे किये जाते है। इसलिए स्तर और चमक- दमक के अनुसार इनमें कहीं भारी तो कहीं भारी भरकम फीस, दाखिले के समय जबरिया ‘डोनेशन’ तथा तरह- तरह के शुल्क वसूलना अब चौकाता नहीं है। अनेक बार तो यहां ‘एडमिशन’ के नाम पर ‘मारा-मारी’, ‘सिफारिश’ की चर्चा भी होती रहती है।
विभिन्न राज्य सरकारों के छुटपुट प्रयासों के बावजूद गांव से शहर तक, अमीर से गरीब तक अधिकांश लोग इन तथाकथित अंग्रेजी स्कूलों में ही अपने बच्चों का भविष्य तलाश रहे हैं तो अवश्य सोचना होगा कि आखिर व्यवस्था में कहां गंभीर चूक हुई है जो इन स्कूल के अध्यापकों से कई गुना अधिक वेतन लेने वाले अध्यापकों के होते हुए भी शिक्षा के स्तर में अंतर क्यों है। वैसे इसके एकाधिक कारण हो सकते हैं लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि एक ओर अंकों का प्रतिशत शत-प्रतिशत को पार करने के लिए मचल रहा है तो दूसरी ओर हमारी युवा पीढ़ी में ‘संस्कार विहीनता’ भी बढ़ती जा रही है। बेशक संस्कार शिक्षा का ही अंग है लेकिन हमने स्कूली शिक्षा को ही पर्याप्त मान लिया है जबकि शिक्षा देने का काम किसी एक निकाय का नहीं हो सकता। परिवार, परिवेश, प्रकृति भी प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। इनके संसर्ग से प्राप्त ऊर्जा और अनुभव ही प्रखरता से परिपक्वता की ओर ले जाता है। लेकिन हम अपने 2 से ढ़ाई के बच्चों को भी इन संस्थानों के हवाले कर बहुत प्रसन्न होते है। लेकिन इस कैद में बच्चें की मासूमियत, तुतलाना, शरारत, अठखेलियां, मस्तमौलापन, रूठना आदि उससे छीनकर उसे तनाव में जीने का अभ्यास कराया जाता है।
अभी तक हम सरकारी और पब्लिक स्कूलों को ही बराबरी नहीं दिलर सके। इसी बीच शिक्षा दैत्य ने सब समीकरण बदल दिये है। आखिर ऐसा क्यों हुआ, यह जानने के लिए विद्या मन्दिर कहे जाने वाले एक परिसर में जाने की जुगत लगाई। लेकिन वहां की वार्षिक फीस आदि सुनकर लगा कि वहां सरस्वती का नहीं बल्कि लक्ष्मी का साम्राज्य है। पहली कक्षा के बच्चे का वार्षिक खर्च आइ लाख, छठी कक्षा के दस और दसवी के बारह लाख है। इसमें अनेक खर्च शामिल नहीं है। वहां जानकारी भी मिली कि देहरादून, मसूरी, शिमला, जयपुर सहित उत्तर भारत में ही ऐसे सैंकड़ो स्कूल हैं जहां का बात ही पन्द्रह से आरंभ होती है जो बीस से ऊपर तक पहुंचती है।
बेशक सुविधाओं के नाम पर बहुत कुछ है। स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स में स्विमिंग सहित हर खेल, वातानुकुलित क्लासरूम, थियेटर और न जाने क्या-क्या। उस कथित विद्या मन्दिर की मुखिया मिलवाया गया जो धुआध्ंाार अंग्रेजी बोलने के साथ- साथ विभिन्न प्रकार की मुख मुद्राएं बनाकर एक व्यवसायिक ‘सेल्सपर्सन’ की तरह प्रस्तुति दे रही थी। कुछ अभिभावक उस चमक-दमक के मोहपाश में बंधे किसी भी तरह अपने बच्चे का ‘एडमिशन’ वहां चाहते थे। ऐसे में लेन-देन पर किसी तरह के मोलभाव का प्रश्न ही कहां उठता है जब बताया जाए कि ‘वी ऑर पैकड’
बातचीत में निपुण महोदया ने फरमाया कि उनके स्कूल में फलां- फलां विदेशी भाषाएं पढ़ाई जाती है। फलां- फलां सब्जेक्ट है। लेकिन मेरे द्वारा ‘भारतीय भाषाओं’ के बारे में पूछे जाने पर उनका उत्तर था, ‘सोरी सर, यहां संस्कृत नहीं पढ़ाई जाती। एक्चुली वी मैक वर्ल्ड सिटिजन।’
मैंने दुस्साहस कर पूछा, ‘क्या वर्ल्ड सिटिजन होने के लिए अपनी मातृभाषा को भूलना अनिवार्य है?’ तो उन्होंने तत्काल घंटी बजाकर पानी और कॉफी लाने का आदेश दिया। मैंने उन्हें फिर याद दिलाया, आपके ‘वर्ल्ड सिटिजन’ के लिए किस एक भाषा से काम चलता है तो उन्होंने कहा, ‘शायद आपने सुना नहीं, एक नहीं, हमारे यहां अनेक भाषाएं हैं।’ मैंने कॉफी की बजाय पानी से काम चलाते हुए कहा, ‘मैम, जब अनेक भाषाएं हैं तो उस अनेकता में इस देश की एकता की भाषा को उपेक्षित रखने का कारण जानना चाहता हूं। जहां तक मेरी जानकारी है, हिंदी की वजह से भी अनेक लोग को विश्वमंच पर स्थान मिला है। स्वयं मुझे भी एक छोटा सा हिन्दी सेवी होने के कारण दुनिया के अनेक देशों में जाने का अवसर मिला। मेरे साहित्य का भारतीय भाषाओं संग एकाधिक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। यही तो ‘सांस्कृतिक आदान-प्रदान’ की परम्परा है। आज व्यापार करने भारत आ रही कम्पनियां भी अपने विज्ञापन में हिंदी का उपयोग कर रही है। कभी अंग्रेजों ने भी यहां रहने के लिए हिन्दी सीखी थी। क्या वर्तमान भारत में रहकर भारतीय भाषाओं के बिना काम चल सकता है?’ इतना सुनते ही उन्होंने पैंतरा बदला, ‘ओह ग्रेट!! वेरी सून वी विल इंवाइट यू फोर लैक्चर दी इम्पोटेंस ऑफ इण्डियन लैग्वेज।’ और भी बहुत कुछ। लेकिन ये कहानी फिर कभी।
हां, उस परिसर को देखते हुए यह जाना कि उस राज्य का शिक्षा का वार्षिक बजट जितना है, यहां उससे अधिक का ‘लेन-देन’ होता है। हर राज्य के निजी स्कूलों में ‘आर्थिक रूप से कमजोर’ वर्ग के बच्चों के लिए लगभग एक तिहाई स्थान आरक्षित रखने का प्रावधान है जो यहां लागू नहीं होता। हमारे प्रधानमंत्री जी ‘मन की बात’ में ‘महानगरों
में एक करोड़ के बंगले’ वालों द्वारा टैक्स न चुकाये जाने की चर्चा कर रहे थे। जहां तक मेरी जानकारी है देश के किसी भी महानगर में एक करोड़ का बंगला तो छोड़िए ढ़ंग का फ्लैट भी नहीं मिलता। लेकिन शिक्षा के नाम पर करोड़ों के लेन-देन करने वाले ऐसे स्कूलों में जिनके बच्चे पढ़ते हैं क्या कभी उनकी लिस्ट भी आयकर विभाग ने जांची है? शायद नहीं क्योंकि उस स्कूल द्वारा उपलब्ध कराये गये पत्रक में ‘आयकर की धारा........ के अंतर्गत फीस में छूट’ भी अंकित था।
अपने आशियाने की ओर वापस लौटते एक स्थान पर जलपान के लिए रूके तो वहां मसरूर अवनर की ग़ज़ल बज रही थी-
दिल के लुटने का सबब पूछो न सबके सामने।
नाम आएगा तुम्हारा, ये कहानी फिर सही।।
नफरतों के तीर खा कर, दोस्तों के शहर में।
हमने किस किस को पुकारा, ये कहानी फिर सही।।
यह ग़ज़ल सुनते हुए कुछ देर पहले होस्टल में रहने वाले एक 6 वर्ष के बच्चे की मनोदशा को देख उमड़े भावों ने आकार लिया- सोने के पिंजरे में रखकर, खुश हुए मॉम डैड भी। कितनी राते रो के काटी, ये कहानी फिर कभी!।
बचपन का चीर हरण हुआ, नटखट शरारत खो गई,
क्यों जिंदगी रोबोट हुई, ये कहानी फिर कभी।।
मां का आंचल, पापा की घुड़की, दादी-दादी स्वप्न है।
क्यों अर्थ ने अनर्थ किया, ये कहानी फिर कभी।।
मशीन से क्यों हम हुए, ये कहानी फिर कभी।।
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समाज का दुःखद पहलु, जो समाज को और भी बीमार करता जा रहा है. वर्ल्ड-सिटीजन्स की हालत निसंदेह 'धोबी के कुत्ते' वाली हो जाती है...
ReplyDeleteसमाज की एक तस्वीर सामने लाने के लिए हार्दिक साधुवाद गुरुवर