बागों का शहर बेंगलुरू (बेले-बेंदा-कालू-ऊरू )
पूर्वोत्तर के बाद इस बार प्रस्तुत है दक्षिण। पिछले दिनों हिंदीसेवी विद्वान डॉ. जयसिंह ‘अलवरी’ ने कर्नाटक के सिरूगुप्पा में सर्वभाषा सम्मेलन आयोजित किया। उनकी संस्था ‘भारतीय साहित्य संस्थान’ आयोजित इस समारोह में विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया तो हमने प्राचीन विजयनगर साम्राज्य तथा बेगलुरू की यात्रा की योजना भी बनाई औश्र ठीक दो महीने पहले ही अपना रेल आरक्षण भी करवा दिया। गुजरात के स्वामी डा. गौरांगशरण देवाचार्य, यथासंभव संपादक मुनीष गोयल और उनके परिजनों का इस यात्रा में साथ रहने का निश्चय हुआ। विजय नगर साम्राज्य के तेनालीरामा की बुद्धिमत्ता की बहुचर्चित कहानियां हमने खूब पढ़ी-सुनी थी। हम्पी के निकट इस साम्राज्य के अवशेष विश्वप्रसिद्ध होने की जानकारी भी थी। स्वामीजी ठीक समय पर दिल्ली पहुंच गए लेकिन जिस दिन हमें रवाना होना था उसी दोपहर हमारे परम मित्र डा. महेन्द्रपाल काम्बोज का देहावसान हो जाने के कारण हम इतने अवसाद ग्रस्त थे कि स्टेशन तक पहुंचने की हिम्मत ही शेष न रही। अगले सुबह दक्षिण की यात्रा के लिए अति उत्सुक अक्षित और माणिक की उदासी देखकर हमने फिर से तैयारी शुरू की। यह सुनिश्चित था कि हम सिरगुप्पा के कार्यक्रम में भाग नहीं ले सकेगे इसलिए सीधे बेगलुरू पहुंचने का निर्णय हुआ।
नवम्बर के अंतिम सप्ताह में कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू का मौसम दिल्ली की सर्दी के बिल्कुल अलग खुशनुमा था। बंगलोर कन्नड़, तमिल और तमिल भाषा के लोगों के लिए सांस्कृतिक संगम का बिंदु है। बेंगलुरू का प्राकृतिक सौंदर्य और आधुनिक जीवन शैली हमेशा से ही पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा हैं देश के इस 5वें महानगर में सड़कों के दोनों ओर लगे हरे भरे वृक्ष, बड़ी- बड़ी इमारतें और सजे धजे बाजार पयर्टकों का मन मोह लेते हैं। बागों का शहर और भारत की सिलीकॉन वैली कहे जाने वाले बंगलुरू ने अपने बढ़ते औद्योगिक विकास के बावजूद अपनी पुरानी खूबसूरती को नहीं खोया हैं। यहाँ की बढ़ती औद्योगिक और घरेलू ज़रूरतों के लिये जल आपूर्ति एक समस्या है। यहाँ 910 मिमी वार्षिक वर्षा होती है।
बैंगलोर से बैंगलुरू बने इस नगर के बारे में प्राप्त ऐतिहासिक तथ्य यह है कि कभी होयसल वंश के राजा बल्लाल जंगल में शिकार करने के लिए गए थे तो रास्ता भूल गए। जंगल में रहने वाली एक गरीब बूढिया से भूखे राजा को केवल उबली सेम (बींस) ही प्राप्त हुई। वापस लौटने पर राजा ने उस बूढिया के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उस पूरे क्षेत्र का नाम ही बेले-बेंदा-कालू-ऊरू रख दिया। स्थानीय (कन्नड़) भाषा में इसका अर्थ उबली बींस की जगह होता है। बस तभी से इस स्थान का नाम बेंगलूरू पड़ गया। जिसे अंग्रेज़ों ने बंगलोर कहा। वर्तमान में इसका नाम बदलकर फिर से बंगलूरू कर दिया गया। यह जानकारी भी थी ही कि विजय नगर का सेनापति कैंपगोड पहला व्यक्ति था जिस ने 1537 में इस शहर की नींव डाली और शहर के चारों कोनों पर 4 निगरानी टावर बना कर इस शहर की सीमा तय कर दी। पर आज का बेंगलुरू उससे कहीं ज्यादा विस्तृत हो चुका है परंतु प्राचीन किले और मंदिर आज भी इस शहर की वैभवशाली स्थापत्य कला की निशानी के तौर पर सुरक्षित हैं।
हमारे ठहरने की व्यवस्था कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति के अशोका पिलर स्थित कार्यालय पर थी। समिति के यशस्वी महांमत्री डा. वि.रा.देवगिरी ने हमें जानकारी दी कि उनकी संस्था के हजारो हिंदी प्रचारक है। वे बीएड कालेज सहित हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वहाँ पहुंचते ही मैंने अपने मित्र राजेन्द्र भाई से सम्पर्क किया। वे फौरन वहाँ उपस्थित हो गए। लगभग बीस वर्ष बाद मुझे देखते ही गले से लिपट गए तो मेरी स्मृतियों में पुराने दिन जीवांत हो उठे। वे मुझे अपने निवास पर ले गए जहाँ हमने अगले दिनों की योजना बनाई। उन्होंने अगली सुबह मैसूर जाने के व्यवस्था के लिए ड्राईवर गणेशा को तैयार किया। जो ठीक समय पर पहुंच कर हमें देर रात तक मैसूर घुमा लाया (मैसूर की चर्चा अगले सप्ताह)
देर रात लम्बी सड़क यात्रा के बाद भी हम सब अगली सुबह ठीक समय पर उठकर लाल बाग जाने के लिए तैयार थे जो विजय नगर के बिल्कुल निकट ही था। लगभग 240 एकड़ में फैला लालबाग भारत के सबसे खूबसूरत बोटेनिकल बागों में से एक माना जाता है। इस बाग के निर्माण हैदर अली ने 1760 में करवाया था। इस बाग की खूबसूरती देखते ही बनती है। सुबह हजारों लोग सैर और व्यायाम के लिए वहाँ उपस्थित थे। देशभर से अलग तरह का वातावरण उस बाग में देखने को मिला। इतनी सुबह जहाँ आधुनिक पीढ़ी के युवा- युवतियों चहल कदमी कर रहे थे वहीं बड़ी आयु के मुस्लिम जोड़ों की बहुतायात भी वहाँ देखने को मिली जो इस बात का प्रमाण था कि कर्नाटक की राजधानी में रहने वाला यह समुदाय आपेक्षाकृत शिक्षित, संपन्न होने के साथ-साथ स्वास्थ्य के प्रति सजग भी है।
लालबाग में विशाल वृक्ष, झील के अतिरिक्त बाग के बीचोबीच शीशा निर्मित एक बड़ा ग्लास-हाउस है जहां वर्ष में दो बार, जनवरी और अगस्त में पुष्प प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इस के निकट लगे बोर्ड के अनुसार ब्रिटेन के राजकुमार के आगमन पर यहाँ पुष्प प्रदर्शनी लगाई गई थी। बाद में इसे स्थायी बना दिया गया। बाग में एक डीयर- एंक्लेव है तो अनेक प्रकार के पक्षी भी देखने को मिले। बिल्कुल काला कौए बाग में बहुतायात में देखे गये। लगभग हर मोड़ पर बंदर-भालू की आकृति वाले कलात्मक कूड़ेदान। साफ- सुधरी सड़के, एक स्थान पर ‘ठंडी सड़क’ लिखा देख हम वहाँ से गुजरे तो चहू ओर घने पेड़ उस स्थान को अतिरिक्त शांति और शीतलता प्रदान करते दिखाई दिए। विशाल बाग के एक ओर पर पहाड़ी जहाँ प्राणायाम की मुद्रा में कुछ लोग बैठे थे। इस खूबसूरत बाग के सुंदर दृश्यो को हम अनेक फिल्मों में भी देखते चुके हैं।
दो घंटे से अधिक लालबाग में बीताने के बाद वापस लौटे तो नाश्ते के लिए डा. देवगिरी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थो स्वादिष्ट रवा इडली, चटनी, सांबर संग पूरियां और उसके बाद गर्मागर्म काफी। हम अपने साथ ‘गुजरात के लड्डू’ लेकर गए थे जो सूखे मेवों और शुद्ध घी से बने थे। डा. देवगिरी और हम सबने गुजरात के लड्डओं का आनंद भी लिया। तदोपरान्त लाल बहादुर शास्त्री बीएड महाविद्यालय के लिए रवाना हुए, जहाँ के प्रिंसिपल डा. इस्पाक अली ने व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया था। स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाली दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित इस महाविद्यालय में देश के विभिन्न भागों के छात्रों से मिलना सुखद अनुभव रहा। वातावरण में लघु भारत की झलक तो थी लेकिन हिंदी के प्रति समर्पण-प्रेम एकता की सुगंध प्रसाारित कर रहा था। इस महाविद्यालय में व्याख्यान से पूर्व स्वामी जी संग मुझे भी परंपरागत ढ़ंग से सम्मानित किया गया। चंदन की माला, फलों की टोकरी, ललाट पर तिलक। व्याख्यान के बाद आभार व्यक्त करते हुए प्रो. कांबले जो स्वामीजी की विद्वता से बहुत प्रभावित थे के इस कथान, ‘इन दिनों बाबाओं से बहुत डर लगता है लेकिन स्वामीजी ने हमारी धारणा ही बदल दी।’ का जोरदार तालियों से स्वागत किया गया।
पुराने बेगलुरू के महत्वपूर्ण शेषाद्रि रोड की ओर जाते हुए हमने यातायात अनुशासन के अभाव को हमने महसूस किया जिसकी पुष्टि हमारे मित्रों ने भी तो अन्य दिनों में भी हमने वहीं अनुभव बार-बार हुआ। ट्रैफिक नियमों के प्रति गंभीरता की बजाय लोग जबरदस्ती घुसने की कोशिश करते देख गए।
बेंगलुरू मेंँ मैट्रों का कार्य भी जारी है। प्राप्त जानकारी के अनुसार दिल्ली मैट्रों से बिल्कुल विपरीत वहां का कार्य लगातार लक्ष्य से पिछड़ रहा है। यह जानकारी भी मिली कि वहां मैट्रों बिजली की बजाय सीएनजी से चलाने की योजना है। अधिकांश स्थान पर स्टेशन निर्माण कार्य चल रहा है। विधानसभा के निकट अंडरग्राऊड मैट्रों का कार्य चल रहा है इसलिए भारत के सबसे सुंदर विधानसभा भवन को निकट से देखना संभव नहीं हो सका।
नवद्रविड़ शैली में ग्रेनाइट पत्थरों से बना है। यह पंच-मंजिल भवन लगभग 46 मीटर ऊंचा है जो दूर से देखने पर किसी मंदिर की तरह दिखाई देता है। 106 मीटर चौड़ी और 213 मीटर लंबी इस इमारत में कई गुंबद, श्वेत स्तंभों और मेहराबों ने इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा दिए हैं
1864 में बने कब्बन पार्क 300 एकड़ में फैला है। इस पार्क का नाम उस समय के वायसराय लार्ड पार्क कब्बन के नाम पर पड़ा। आज भी यह पार्क आधुनिक बेंगलुरू, के हृदय में हरियाली के निराले उद्यान के रूप में पहचाना जाता है। इस पार्क के पास बनी लाल गौथिक शैली की इमारतें, स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी व दो मंजिला हाईकोर्ट इस की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं।
कब्बन पार्क से थोड़ी दूरी पर बाल भवन है। जहाँ बच्चे टॉय ट्रेन, नाव, घुड़सवारी और थिएटर का आनंद ले सकते हैं। पास ही हीरे के आकार का एक्वेरियम है जहाँ बच्चे समुद्री जीवों और उनके संसार के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
कस्तूरबा रोड पर कब्बन पार्क से आगे की ओर स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय देश का यह सब से पुराना संग्रहालय है। यहां पर्यटक प्राचीन सिक्कों, शिलालेखों और पुराने चित्रों के संग्रह देखने के साथ-साथ बेंगलुरू शहर की झलक भी देख सकते हैं।
विश्वेश्वरैया औद्योगिक तथा प्रौद्योगिकीय संग्रहालय;संग्रहालय आधुनिक कर्नाटक ओर भारत के प्रसिद्ध वास्तुकार सर.एम.विश्वेश्वरैया को समर्पित किया गया है। इस इमारत को ध्यान से देखें तो विज्ञान और तकनीक की विविधता की झलक देखने को मिलती है।
उल्सूर झील लगभग डेढ़ वर्ग मिलोमीटर क्षेत्र में फैली है। यहां पर्यटक नौकायन, तैराकी और फोटोग्राफी का मजा ले सकते हैं। झील पर बने छोटे-छोटे टापू आराम व पिकनिक मनाने के लिहाज से बेहतर माने जाते हैं।
अन्य दर्शनीय स्थलों में वेंकटप्पा आर्ट गैलरी; शेषाद्रि अय्यर मेमोरियल हॉल, जिसमें सार्वजनिक पुस्तकालय भी है; उच्च न्यायालय; बच्चों के मनोरंजन और अभिरुचि का केंद्र जवाहरलाल नेहरू भवन, ं सॉफ़्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क (एस.टी.पी.) नंदी हिल, आग के देवता अग्नि की दुर्लभ प्रतिमा वाला गुफ़ा मंदिर, मेकेदातु, वानरघट्टा नेशनल पार्क, कण्व जलाशय, उलसूर झील और हेसरघट्टा झील भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बंगलौर पैलेस जिसे वाडियार राजाओं ने इंगलैंड के विंडसर कैसल से प्रभावित हो कर ट्यूडर शैली में बनवाया था। यह ऐतिहासिक महल 45 हजार वर्गफुट क्षेत्र में फैला है।
हमारे पास समय का अभाव था इसलिए अनेक स्थानों को देखने से वंचित रहे जिनमें प्रमुख हैं। मेकेटाट बेंगलुरू से 98 किलोमीटर की दूरी पर कनकपुरा रोड पर है। 45 किमी दूर पर्ल वैली एक खूबसूरत जल प्रपात है, जो 90 मीटर की ऊंचाई से गिरता है। इतनी ऊचाई से गिरने पर इसके पानी की बंूदें मोतियों का आभास देती हैं, इसी वजह से इसे पर्ल वैली कहा जाता है। बनेरघट्टा राष्ट्र पार्क जहां अनेक प्रकार के वन्य जीव घने जंगल वाले इस पहाड़ी इलाके में खुलेआम घूमते हैं। वन्य जीव प्रेमियों के लिए यह एक बेहतर पिकनिक स्थल है।
अंतिम दिन ड्राइवर समय पर न पहुंचने के कारण बेचैनी शुरू हो गई तब हमने राजेन्द्र भाई से सम्पर्क किया। डाक्टरों द्वारा ड्राइविंग मना के बावजूद राजेन्द्र भाई एक अन्ना को साथ लेकर हमारे पास पहुंचे। दरअसल हेरेहल्ली स्थित उनके निवास पर हमारे रात्रि भोजन का कार्यक्रम था। समय अभाव के कारण हमने केवल जलपान किया और भोजन पैक करवा लिया। भीड़ भाड़ वाली सड़कों से होते हुए हम विश्व प्रसि़द्ध ‘इस्कान’ मंदिर पहुंचे। समय बचाने के लिए हमने अपने जूते भी गाड़ी में छोड़ दिए। अति शीघ्रता से सैंकड़ों सीढ़ियों वाले उस भव्य मंदिर के दर्शन के बाद हम बेगलुरू स्टेशन पर पहुंचे। कुछ ही देर बाद राजधानी एक्सप्रेस पर सवार हो हम वापसी की राह पर थे। राजधानी में भोजन व्यवस्था होते हुए भी हमने पुष्पा बहन के हाथ से बनी भिंड़ी संग भोजन का आनंद लिया। सचमुच अविस्मरणीय रहा बागों की नगरी बैंगलुरू का यह सफर।
-- विनोद बब्बर, संपादक -राष्ट्र किंकर दिल्ली
नवम्बर के अंतिम सप्ताह में कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू का मौसम दिल्ली की सर्दी के बिल्कुल अलग खुशनुमा था। बंगलोर कन्नड़, तमिल और तमिल भाषा के लोगों के लिए सांस्कृतिक संगम का बिंदु है। बेंगलुरू का प्राकृतिक सौंदर्य और आधुनिक जीवन शैली हमेशा से ही पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र रहा हैं देश के इस 5वें महानगर में सड़कों के दोनों ओर लगे हरे भरे वृक्ष, बड़ी- बड़ी इमारतें और सजे धजे बाजार पयर्टकों का मन मोह लेते हैं। बागों का शहर और भारत की सिलीकॉन वैली कहे जाने वाले बंगलुरू ने अपने बढ़ते औद्योगिक विकास के बावजूद अपनी पुरानी खूबसूरती को नहीं खोया हैं। यहाँ की बढ़ती औद्योगिक और घरेलू ज़रूरतों के लिये जल आपूर्ति एक समस्या है। यहाँ 910 मिमी वार्षिक वर्षा होती है।
बैंगलोर से बैंगलुरू बने इस नगर के बारे में प्राप्त ऐतिहासिक तथ्य यह है कि कभी होयसल वंश के राजा बल्लाल जंगल में शिकार करने के लिए गए थे तो रास्ता भूल गए। जंगल में रहने वाली एक गरीब बूढिया से भूखे राजा को केवल उबली सेम (बींस) ही प्राप्त हुई। वापस लौटने पर राजा ने उस बूढिया के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उस पूरे क्षेत्र का नाम ही बेले-बेंदा-कालू-ऊरू रख दिया। स्थानीय (कन्नड़) भाषा में इसका अर्थ उबली बींस की जगह होता है। बस तभी से इस स्थान का नाम बेंगलूरू पड़ गया। जिसे अंग्रेज़ों ने बंगलोर कहा। वर्तमान में इसका नाम बदलकर फिर से बंगलूरू कर दिया गया। यह जानकारी भी थी ही कि विजय नगर का सेनापति कैंपगोड पहला व्यक्ति था जिस ने 1537 में इस शहर की नींव डाली और शहर के चारों कोनों पर 4 निगरानी टावर बना कर इस शहर की सीमा तय कर दी। पर आज का बेंगलुरू उससे कहीं ज्यादा विस्तृत हो चुका है परंतु प्राचीन किले और मंदिर आज भी इस शहर की वैभवशाली स्थापत्य कला की निशानी के तौर पर सुरक्षित हैं।
हमारे ठहरने की व्यवस्था कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति के अशोका पिलर स्थित कार्यालय पर थी। समिति के यशस्वी महांमत्री डा. वि.रा.देवगिरी ने हमें जानकारी दी कि उनकी संस्था के हजारो हिंदी प्रचारक है। वे बीएड कालेज सहित हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वहाँ पहुंचते ही मैंने अपने मित्र राजेन्द्र भाई से सम्पर्क किया। वे फौरन वहाँ उपस्थित हो गए। लगभग बीस वर्ष बाद मुझे देखते ही गले से लिपट गए तो मेरी स्मृतियों में पुराने दिन जीवांत हो उठे। वे मुझे अपने निवास पर ले गए जहाँ हमने अगले दिनों की योजना बनाई। उन्होंने अगली सुबह मैसूर जाने के व्यवस्था के लिए ड्राईवर गणेशा को तैयार किया। जो ठीक समय पर पहुंच कर हमें देर रात तक मैसूर घुमा लाया (मैसूर की चर्चा अगले सप्ताह)
देर रात लम्बी सड़क यात्रा के बाद भी हम सब अगली सुबह ठीक समय पर उठकर लाल बाग जाने के लिए तैयार थे जो विजय नगर के बिल्कुल निकट ही था। लगभग 240 एकड़ में फैला लालबाग भारत के सबसे खूबसूरत बोटेनिकल बागों में से एक माना जाता है। इस बाग के निर्माण हैदर अली ने 1760 में करवाया था। इस बाग की खूबसूरती देखते ही बनती है। सुबह हजारों लोग सैर और व्यायाम के लिए वहाँ उपस्थित थे। देशभर से अलग तरह का वातावरण उस बाग में देखने को मिला। इतनी सुबह जहाँ आधुनिक पीढ़ी के युवा- युवतियों चहल कदमी कर रहे थे वहीं बड़ी आयु के मुस्लिम जोड़ों की बहुतायात भी वहाँ देखने को मिली जो इस बात का प्रमाण था कि कर्नाटक की राजधानी में रहने वाला यह समुदाय आपेक्षाकृत शिक्षित, संपन्न होने के साथ-साथ स्वास्थ्य के प्रति सजग भी है।
लालबाग में विशाल वृक्ष, झील के अतिरिक्त बाग के बीचोबीच शीशा निर्मित एक बड़ा ग्लास-हाउस है जहां वर्ष में दो बार, जनवरी और अगस्त में पुष्प प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इस के निकट लगे बोर्ड के अनुसार ब्रिटेन के राजकुमार के आगमन पर यहाँ पुष्प प्रदर्शनी लगाई गई थी। बाद में इसे स्थायी बना दिया गया। बाग में एक डीयर- एंक्लेव है तो अनेक प्रकार के पक्षी भी देखने को मिले। बिल्कुल काला कौए बाग में बहुतायात में देखे गये। लगभग हर मोड़ पर बंदर-भालू की आकृति वाले कलात्मक कूड़ेदान। साफ- सुधरी सड़के, एक स्थान पर ‘ठंडी सड़क’ लिखा देख हम वहाँ से गुजरे तो चहू ओर घने पेड़ उस स्थान को अतिरिक्त शांति और शीतलता प्रदान करते दिखाई दिए। विशाल बाग के एक ओर पर पहाड़ी जहाँ प्राणायाम की मुद्रा में कुछ लोग बैठे थे। इस खूबसूरत बाग के सुंदर दृश्यो को हम अनेक फिल्मों में भी देखते चुके हैं।
दो घंटे से अधिक लालबाग में बीताने के बाद वापस लौटे तो नाश्ते के लिए डा. देवगिरी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थो स्वादिष्ट रवा इडली, चटनी, सांबर संग पूरियां और उसके बाद गर्मागर्म काफी। हम अपने साथ ‘गुजरात के लड्डू’ लेकर गए थे जो सूखे मेवों और शुद्ध घी से बने थे। डा. देवगिरी और हम सबने गुजरात के लड्डओं का आनंद भी लिया। तदोपरान्त लाल बहादुर शास्त्री बीएड महाविद्यालय के लिए रवाना हुए, जहाँ के प्रिंसिपल डा. इस्पाक अली ने व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया था। स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाली दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित इस महाविद्यालय में देश के विभिन्न भागों के छात्रों से मिलना सुखद अनुभव रहा। वातावरण में लघु भारत की झलक तो थी लेकिन हिंदी के प्रति समर्पण-प्रेम एकता की सुगंध प्रसाारित कर रहा था। इस महाविद्यालय में व्याख्यान से पूर्व स्वामी जी संग मुझे भी परंपरागत ढ़ंग से सम्मानित किया गया। चंदन की माला, फलों की टोकरी, ललाट पर तिलक। व्याख्यान के बाद आभार व्यक्त करते हुए प्रो. कांबले जो स्वामीजी की विद्वता से बहुत प्रभावित थे के इस कथान, ‘इन दिनों बाबाओं से बहुत डर लगता है लेकिन स्वामीजी ने हमारी धारणा ही बदल दी।’ का जोरदार तालियों से स्वागत किया गया।
पुराने बेगलुरू के महत्वपूर्ण शेषाद्रि रोड की ओर जाते हुए हमने यातायात अनुशासन के अभाव को हमने महसूस किया जिसकी पुष्टि हमारे मित्रों ने भी तो अन्य दिनों में भी हमने वहीं अनुभव बार-बार हुआ। ट्रैफिक नियमों के प्रति गंभीरता की बजाय लोग जबरदस्ती घुसने की कोशिश करते देख गए।
बेंगलुरू मेंँ मैट्रों का कार्य भी जारी है। प्राप्त जानकारी के अनुसार दिल्ली मैट्रों से बिल्कुल विपरीत वहां का कार्य लगातार लक्ष्य से पिछड़ रहा है। यह जानकारी भी मिली कि वहां मैट्रों बिजली की बजाय सीएनजी से चलाने की योजना है। अधिकांश स्थान पर स्टेशन निर्माण कार्य चल रहा है। विधानसभा के निकट अंडरग्राऊड मैट्रों का कार्य चल रहा है इसलिए भारत के सबसे सुंदर विधानसभा भवन को निकट से देखना संभव नहीं हो सका।
नवद्रविड़ शैली में ग्रेनाइट पत्थरों से बना है। यह पंच-मंजिल भवन लगभग 46 मीटर ऊंचा है जो दूर से देखने पर किसी मंदिर की तरह दिखाई देता है। 106 मीटर चौड़ी और 213 मीटर लंबी इस इमारत में कई गुंबद, श्वेत स्तंभों और मेहराबों ने इसकी खूबसूरती में चार चांद लगा दिए हैं
1864 में बने कब्बन पार्क 300 एकड़ में फैला है। इस पार्क का नाम उस समय के वायसराय लार्ड पार्क कब्बन के नाम पर पड़ा। आज भी यह पार्क आधुनिक बेंगलुरू, के हृदय में हरियाली के निराले उद्यान के रूप में पहचाना जाता है। इस पार्क के पास बनी लाल गौथिक शैली की इमारतें, स्टेट सेंट्रल लाइब्रेरी व दो मंजिला हाईकोर्ट इस की खूबसूरती को और बढ़ा देते हैं।
कब्बन पार्क से थोड़ी दूरी पर बाल भवन है। जहाँ बच्चे टॉय ट्रेन, नाव, घुड़सवारी और थिएटर का आनंद ले सकते हैं। पास ही हीरे के आकार का एक्वेरियम है जहाँ बच्चे समुद्री जीवों और उनके संसार के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
कस्तूरबा रोड पर कब्बन पार्क से आगे की ओर स्थित राष्ट्रीय संग्रहालय देश का यह सब से पुराना संग्रहालय है। यहां पर्यटक प्राचीन सिक्कों, शिलालेखों और पुराने चित्रों के संग्रह देखने के साथ-साथ बेंगलुरू शहर की झलक भी देख सकते हैं।
विश्वेश्वरैया औद्योगिक तथा प्रौद्योगिकीय संग्रहालय;संग्रहालय आधुनिक कर्नाटक ओर भारत के प्रसिद्ध वास्तुकार सर.एम.विश्वेश्वरैया को समर्पित किया गया है। इस इमारत को ध्यान से देखें तो विज्ञान और तकनीक की विविधता की झलक देखने को मिलती है।
उल्सूर झील लगभग डेढ़ वर्ग मिलोमीटर क्षेत्र में फैली है। यहां पर्यटक नौकायन, तैराकी और फोटोग्राफी का मजा ले सकते हैं। झील पर बने छोटे-छोटे टापू आराम व पिकनिक मनाने के लिहाज से बेहतर माने जाते हैं।
अन्य दर्शनीय स्थलों में वेंकटप्पा आर्ट गैलरी; शेषाद्रि अय्यर मेमोरियल हॉल, जिसमें सार्वजनिक पुस्तकालय भी है; उच्च न्यायालय; बच्चों के मनोरंजन और अभिरुचि का केंद्र जवाहरलाल नेहरू भवन, ं सॉफ़्टवेयर टेक्नोलॉजी पार्क (एस.टी.पी.) नंदी हिल, आग के देवता अग्नि की दुर्लभ प्रतिमा वाला गुफ़ा मंदिर, मेकेदातु, वानरघट्टा नेशनल पार्क, कण्व जलाशय, उलसूर झील और हेसरघट्टा झील भी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बंगलौर पैलेस जिसे वाडियार राजाओं ने इंगलैंड के विंडसर कैसल से प्रभावित हो कर ट्यूडर शैली में बनवाया था। यह ऐतिहासिक महल 45 हजार वर्गफुट क्षेत्र में फैला है।
हमारे पास समय का अभाव था इसलिए अनेक स्थानों को देखने से वंचित रहे जिनमें प्रमुख हैं। मेकेटाट बेंगलुरू से 98 किलोमीटर की दूरी पर कनकपुरा रोड पर है। 45 किमी दूर पर्ल वैली एक खूबसूरत जल प्रपात है, जो 90 मीटर की ऊंचाई से गिरता है। इतनी ऊचाई से गिरने पर इसके पानी की बंूदें मोतियों का आभास देती हैं, इसी वजह से इसे पर्ल वैली कहा जाता है। बनेरघट्टा राष्ट्र पार्क जहां अनेक प्रकार के वन्य जीव घने जंगल वाले इस पहाड़ी इलाके में खुलेआम घूमते हैं। वन्य जीव प्रेमियों के लिए यह एक बेहतर पिकनिक स्थल है।
अंतिम दिन ड्राइवर समय पर न पहुंचने के कारण बेचैनी शुरू हो गई तब हमने राजेन्द्र भाई से सम्पर्क किया। डाक्टरों द्वारा ड्राइविंग मना के बावजूद राजेन्द्र भाई एक अन्ना को साथ लेकर हमारे पास पहुंचे। दरअसल हेरेहल्ली स्थित उनके निवास पर हमारे रात्रि भोजन का कार्यक्रम था। समय अभाव के कारण हमने केवल जलपान किया और भोजन पैक करवा लिया। भीड़ भाड़ वाली सड़कों से होते हुए हम विश्व प्रसि़द्ध ‘इस्कान’ मंदिर पहुंचे। समय बचाने के लिए हमने अपने जूते भी गाड़ी में छोड़ दिए। अति शीघ्रता से सैंकड़ों सीढ़ियों वाले उस भव्य मंदिर के दर्शन के बाद हम बेगलुरू स्टेशन पर पहुंचे। कुछ ही देर बाद राजधानी एक्सप्रेस पर सवार हो हम वापसी की राह पर थे। राजधानी में भोजन व्यवस्था होते हुए भी हमने पुष्पा बहन के हाथ से बनी भिंड़ी संग भोजन का आनंद लिया। सचमुच अविस्मरणीय रहा बागों की नगरी बैंगलुरू का यह सफर।
-- विनोद बब्बर, संपादक -राष्ट्र किंकर दिल्ली
बागों का शहर बेंगलुरू (बेले-बेंदा-कालू-ऊरू )
Reviewed by rashtra kinkar
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02:59
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