सेमीफाइनल के सबक--- डा. विनोद बब्बर
दुनिया को किसी भी मैच के परिणाम उसके खिलाडियों की आपेक्षाओं की कसौटी पर कभी पूरे नहीं उतरते। आखिर हर खिलाड़ी गोल नहीं कर सकता इसलिए विजेता टीम के कुछ खिलाड़ी का ‘गोल’ होना अवश्यं भावी है। लोकसभा चुनाव से पूर्व हुए पांच राज्यों के चुनाव जिन्हें सर्वत्र सेमिफाइनल कहा गया के परिणाम भी इसी सिद्धांत की पुष्टि करते हैं कि विजेता रही भाजपा टीम दिल्ली में ‘गोल’ नहीं तो ‘लम्बी’ जरूर हो गई। यह सेमीफाइनल हर टीम के लिए सबक है बस जरूरत है ईमानदारी से विशलेषण की। जो स्वयं को विजेता मानते हुए मुग्ध होने की गलती करेगा उसके ‘गोल’ होते देर नहीं लगेगी क्योंकि इन चुनाव परिणामों ने एक बात स्पष्ट कर दी कि मतदाता किसी दल विशेष का गुलाम नहीं है। कैडर वोट के मामले में भी यही सत्य है कि उसे अपनी जेब में समझने वाले सावधान हो जाए। टिकटों के मामले में मनमानी, परिवारवाद, हठवादिता के लिए स्थान सिकुड़ रहा है इसलिए हर दल को अपनी कार्यपद्धति को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाना होगा। टिकटों के बंटवारे में ‘पुत्र’ नहीं ‘पात्र’ को प्राथमिकता देनी होगी।
इन चुनावों ने चुनाव आयोग सहित हर दल को कुछ संदेश दिया है लेकिन सबसे बड़ा सबक कांग्रेस के लिए है जो उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने सिकुड़ते जनाधार के अपने परंपरागत आधार में पहली बार इतनी बुरी तरह हारी है। आपातकाल के बाद की असाधारण परिस्थितियों में भी उसकी इतनी दुर्गति नहीं हुई थी। बड़े घोटालों के खुलासे, बेकाबू महंगाई और अप्रभावी नेतृत्व ने देशभर में कांग्रेस से मोहभंग का वातावरण तैयार कर दिया है। हालांकि दिल्ली में शीला दीक्षित और राजस्थान में अशोक गहलोत, का कार्यकाल और उपलब्धियां इतनी खराब नहीं रही लेकिन केंद्र में अपनी सरकार की अलोकप्रियता जिसमें आर्थिक मोर्चे पर बुरी तरह विफलता के संग भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की बजाय उसे बढ़ावा देने के पाप का भागीदार मानते हुए दंडित किया है। राहुल गांधी का कोई भी असर नहीं रहना था, नहीं रहा क्योंकि रैलियों में उन्हें नकारा जा रहा था। आश्चर्य है कि दीवार पर लिखा पढ़ने के बावजूद कुछ नासमझ अब फिर से राहुल को सत्ता सौंपने की बात करने लगे हैं। ऐसे लोगों को कांग्रेस का शुभचिंतक नहीं माना जा सकता।
पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम में जहाँ किसी अन्य राष्ट्रीय दल का अस्तित्व ही नहीं है, कांग्रेस अपनी सफलता पर इतरा नहीं सकती क्योंकि अन्य राज्यों में मोदी के मुकाबले राहुल गांधी बोने साबित हुए। सोनिया गांधी राजस्थान की रैलियों में भीड़ जुटा सकीं, मगर युवाओं के लिए मोदी सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र रहे,। लेकिन इस बात से किसे इंकार होगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सामने मोदी फैक्टर बहुत प्रभावी नहीं रहा। मोदी की चांदनी चौक, अम्बेडकर नगर रैली बेशक सफल रही हो लेकिन इसके आसपास की अधिकांश सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा। अतः भाजपा को तीन राज्यों में अपनी जीत का जश्न मनानेसे पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उभार से दबी अपनी जीत और छत्तीसगढ़ में नजदीकी मुकाबले के प्रति चिंतन करना चाहिए।
देश की राजधानी दिल्ली जिसे मिनी भारत भी कहा जाता है, के चुनावी नतीजे स्वयं आम आदमी पार्टी के लिए भी चौकाने वाले है। युवा वर्ग जो अब तक बड़ों का अनुशरण करता था, उसने इस बार न केवल झाडू चुना बल्कि अपने अभिभावकों को मजबूर किया जिसने दिल्ली की मुख्यमंत्री तक को बुरी तरह हरा दिया। राजनैतिक विरोध अपनी जगह है लेकिन शीला दीक्षित के विरोधियों को भी स्वीकारना होगा कि उन्होंने जिस तरह से पन्द्रह वर्ष दिल्ली को यथासंभव संवारा उससे वह इस हस्र से बेहतर विदाई की हकदार थी। इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकांश क्षेत्रों में मतदान के दिन गुटों में बंटी भाजपा के कार्यकर्ता जिस तरह से औपचारिकता निभा रहे थे उससे स्पष्ट है कि पार्टी को एकता के साथ-साथ अपने कार्यकर्ताओं से जुड़ना होगा वरना उसका भी कांग्रेस जैसा हस्र होते देर नहीं लगेगी।
दिल्ली के मतदाताओं ने हठी बल्ली, आजाद जैसों संग नेतापुत्रों को उचित स्थान पर बैठाया है तो आखिरी समय पाला बदलने वाले जीवनभर के भाजपायी हरिनगर के हरचरण सिंह बल्ली को कांग्रेस और सदा कांग्रेसी रहे मुस्ताबाद के जगदीश प्रधान को भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार बनाना अनैतिक लगा। स्वयं को पूर्वाचंलियों का बेताज बादशाह समझने वाले पश्चिमी दिल्ली के सांसद पुत्र का चौथे स्थान पर पहुंचाना मतदाताओं की परिपक्वता का प्रमाण है। इसी प्रकार उत्तमनगर से लगातार चार बार विधायक रहे मुकेश शर्मा का पतन उनके शिष्य द्वारा ‘आप’ टोपी पहनने के कारण हुआ क्योंकि दूसरों को उभारने की बजाय वह केवल अपने बेटे भतीजे को ही आगे बढ़ाने की तैयारी थे जिससे उनके कार्यकर्ता खिन्न थे। वैसे यहां से आप ने दागी राधव के बदले बाल्यान को टिकट दिया होता तो परिणाम कुछ अलग हो सकता था। अब भाजपा के लिए प्रतिष्ठा बढ़ाने से अधिक प्रतिष्ठा बचाने की चुनौती है।
दिल्ली की सबसे बड़ी समस्या चुनाव के बाद उत्पन्न हो रही है जहाँ किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस भाजपा का समर्थन कर नहीं सकती इसलिए भाजपा का स्टैंड सही है लेकिन आम आदमी पार्टी को कांग्रेस की पेशकश स्वीकार करते हुए सरकार बनाने की दिशा में आगे आना चाहिए। यह केजरीवाल के लिए आवश्यक है कि वह अपने वायदों को पूरा कर दिखाये। उसे कांग्रेस से बात कर न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना चाहिए। पारदर्शिता से शासन चले तो लोकंतत्र का सम्मान संभव है। जो लोग दिल्ली को राष्ट्रपति शासन की ओर धकेल रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि यदि यहीं परिस्थितियां केन्द्र में भी उत्पन्न हुई तो उस समय भी राष्ट्रपति शासन को स्वीकार करेंगे? इस बात को सभी को स्वीकार करना ही चाहिए कि दिल्ली में केजरीवाल ही नायक हैं क्योंकि वह शून्य से 28 पर पहुचे हैं। अब तक दूसरों को भ्रष्ट और स्वयं को ईमानदार बताने से काम चल गया लेकिन अब स्वयं को साबित करने की चुनौती से भागकर वे जनता के दिलों में अपना स्थान बरकरार नहीं रख सकते।
पिछले तीन दशक में यह पहली बार है, जब वामदलों का मध्यप्रदेश औश्र राजस्थान विधानसभा में एक भी प्रतिनिधि नहीं होगा। दिल्ली सहित शेष राज्यों में बसपा का प्रदर्शन नेतृत्व की आंखे खोलने वाला होना चाहिए। सपा आदि दलों की कोई हैसियत इन राज्यों में न होने के कारण वे फिलहाल संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन उन्हें भी अपनी चिंता करनी चाहिए। जातिवाद, कुशासन, अव्यवस्था, भाई - भतीजावाद ज्यादा समय तक चलने वाला नहीं है क्योंकि मतदाता किसी का भी लिहाज करने वाला नहीं है।
देश को अस्थिरता से बचाने के लिए मनमोहन सिंह जी को अपनी छवि बदलते हुए या तो फौरन लोकसभा चुनाव के लिए जाना चाहिए या फिर अपनी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करते हुए तत्काल महंगाई पर रोक लगानी चाहिए। इसके लिए कुछ सख्त कदम भी उठाने पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए वरना सहयोगी दल जो हार का ठिकरा कांग्रेस पर फोड़ने से नहीं चूकेंगे। जैसा कि शरद पवार, मायावती, सपा, नेशनल कान्फ्रंेस आदि दल तो आंखे दिखाने भी लगे है।
चुनाव आयोग के लिए सबक की चर्चा करना जरूरी होगा।एक और हम स्वयं को महाशक्ति कहते नहीं अघाते तो दूसरी ओर मात्र पांच राज्यों की चुनाव प्रक्रिया का डेढ़ महीने लम्बा होना अटपटा है। हमारे पास सुरक्षा तथा संसाधनों का अभाव हो, यह संभव प्रतीत नहीं होता। चुनाव प्रक्रिया लम्बी होने से देश में लगातार राजनैतिक बयानबाजी के कारण अस्थिरता का वातावरण रहता है अतः इससे बचने की आवश्यकता है। यदि पांच राज्यों को उेढ़ महीना तो ऐसे में यह आशंका है कि आगामी लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया एक वर्ष नहीं तो छ माह लम्बी हो सकती है। बहुत बेहतर हो कि सारे देश में एक ही दिन मतदान हो। अगले दो दिनों में परिणाम जिससे देश का विकास तथा आवश्यक फैसले टालने से बचा जाए। ...और अंत में एक सबक मतदाताओं के लिए भी। दिल्ली जैसी परिस्थितियों का निर्माण न हो इसका ध्यान मतदाताओं को रखना चाहिए। ‘बहु’ दो या मत दो पर बहुमत देने में कंजूसी बरतना खतरनाक हो सकता है। लोकतंत्र के हित में प्रत्येक व्यक्ति को इन सबकों से प्रेरणा लेते हुए आत्म परिस्कार करना चाहिए। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि देश के मतदाता आगामी लोकसभा चुनाव में दिल्ली जैसी गलती नहीं दोहरायेंगे।
इन चुनावों ने चुनाव आयोग सहित हर दल को कुछ संदेश दिया है लेकिन सबसे बड़ा सबक कांग्रेस के लिए है जो उत्तर प्रदेश और बिहार में अपने सिकुड़ते जनाधार के अपने परंपरागत आधार में पहली बार इतनी बुरी तरह हारी है। आपातकाल के बाद की असाधारण परिस्थितियों में भी उसकी इतनी दुर्गति नहीं हुई थी। बड़े घोटालों के खुलासे, बेकाबू महंगाई और अप्रभावी नेतृत्व ने देशभर में कांग्रेस से मोहभंग का वातावरण तैयार कर दिया है। हालांकि दिल्ली में शीला दीक्षित और राजस्थान में अशोक गहलोत, का कार्यकाल और उपलब्धियां इतनी खराब नहीं रही लेकिन केंद्र में अपनी सरकार की अलोकप्रियता जिसमें आर्थिक मोर्चे पर बुरी तरह विफलता के संग भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की बजाय उसे बढ़ावा देने के पाप का भागीदार मानते हुए दंडित किया है। राहुल गांधी का कोई भी असर नहीं रहना था, नहीं रहा क्योंकि रैलियों में उन्हें नकारा जा रहा था। आश्चर्य है कि दीवार पर लिखा पढ़ने के बावजूद कुछ नासमझ अब फिर से राहुल को सत्ता सौंपने की बात करने लगे हैं। ऐसे लोगों को कांग्रेस का शुभचिंतक नहीं माना जा सकता।
पूर्वोत्तर के राज्य मिजोरम में जहाँ किसी अन्य राष्ट्रीय दल का अस्तित्व ही नहीं है, कांग्रेस अपनी सफलता पर इतरा नहीं सकती क्योंकि अन्य राज्यों में मोदी के मुकाबले राहुल गांधी बोने साबित हुए। सोनिया गांधी राजस्थान की रैलियों में भीड़ जुटा सकीं, मगर युवाओं के लिए मोदी सबसे बड़ा आकर्षण का केन्द्र रहे,। लेकिन इस बात से किसे इंकार होगा कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सामने मोदी फैक्टर बहुत प्रभावी नहीं रहा। मोदी की चांदनी चौक, अम्बेडकर नगर रैली बेशक सफल रही हो लेकिन इसके आसपास की अधिकांश सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन खराब रहा। अतः भाजपा को तीन राज्यों में अपनी जीत का जश्न मनानेसे पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उभार से दबी अपनी जीत और छत्तीसगढ़ में नजदीकी मुकाबले के प्रति चिंतन करना चाहिए।
देश की राजधानी दिल्ली जिसे मिनी भारत भी कहा जाता है, के चुनावी नतीजे स्वयं आम आदमी पार्टी के लिए भी चौकाने वाले है। युवा वर्ग जो अब तक बड़ों का अनुशरण करता था, उसने इस बार न केवल झाडू चुना बल्कि अपने अभिभावकों को मजबूर किया जिसने दिल्ली की मुख्यमंत्री तक को बुरी तरह हरा दिया। राजनैतिक विरोध अपनी जगह है लेकिन शीला दीक्षित के विरोधियों को भी स्वीकारना होगा कि उन्होंने जिस तरह से पन्द्रह वर्ष दिल्ली को यथासंभव संवारा उससे वह इस हस्र से बेहतर विदाई की हकदार थी। इसके अतिरिक्त यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकांश क्षेत्रों में मतदान के दिन गुटों में बंटी भाजपा के कार्यकर्ता जिस तरह से औपचारिकता निभा रहे थे उससे स्पष्ट है कि पार्टी को एकता के साथ-साथ अपने कार्यकर्ताओं से जुड़ना होगा वरना उसका भी कांग्रेस जैसा हस्र होते देर नहीं लगेगी।
दिल्ली के मतदाताओं ने हठी बल्ली, आजाद जैसों संग नेतापुत्रों को उचित स्थान पर बैठाया है तो आखिरी समय पाला बदलने वाले जीवनभर के भाजपायी हरिनगर के हरचरण सिंह बल्ली को कांग्रेस और सदा कांग्रेसी रहे मुस्ताबाद के जगदीश प्रधान को भाजपा द्वारा अपना उम्मीदवार बनाना अनैतिक लगा। स्वयं को पूर्वाचंलियों का बेताज बादशाह समझने वाले पश्चिमी दिल्ली के सांसद पुत्र का चौथे स्थान पर पहुंचाना मतदाताओं की परिपक्वता का प्रमाण है। इसी प्रकार उत्तमनगर से लगातार चार बार विधायक रहे मुकेश शर्मा का पतन उनके शिष्य द्वारा ‘आप’ टोपी पहनने के कारण हुआ क्योंकि दूसरों को उभारने की बजाय वह केवल अपने बेटे भतीजे को ही आगे बढ़ाने की तैयारी थे जिससे उनके कार्यकर्ता खिन्न थे। वैसे यहां से आप ने दागी राधव के बदले बाल्यान को टिकट दिया होता तो परिणाम कुछ अलग हो सकता था। अब भाजपा के लिए प्रतिष्ठा बढ़ाने से अधिक प्रतिष्ठा बचाने की चुनौती है।
दिल्ली की सबसे बड़ी समस्या चुनाव के बाद उत्पन्न हो रही है जहाँ किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस भाजपा का समर्थन कर नहीं सकती इसलिए भाजपा का स्टैंड सही है लेकिन आम आदमी पार्टी को कांग्रेस की पेशकश स्वीकार करते हुए सरकार बनाने की दिशा में आगे आना चाहिए। यह केजरीवाल के लिए आवश्यक है कि वह अपने वायदों को पूरा कर दिखाये। उसे कांग्रेस से बात कर न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाना चाहिए। पारदर्शिता से शासन चले तो लोकंतत्र का सम्मान संभव है। जो लोग दिल्ली को राष्ट्रपति शासन की ओर धकेल रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि यदि यहीं परिस्थितियां केन्द्र में भी उत्पन्न हुई तो उस समय भी राष्ट्रपति शासन को स्वीकार करेंगे? इस बात को सभी को स्वीकार करना ही चाहिए कि दिल्ली में केजरीवाल ही नायक हैं क्योंकि वह शून्य से 28 पर पहुचे हैं। अब तक दूसरों को भ्रष्ट और स्वयं को ईमानदार बताने से काम चल गया लेकिन अब स्वयं को साबित करने की चुनौती से भागकर वे जनता के दिलों में अपना स्थान बरकरार नहीं रख सकते।
पिछले तीन दशक में यह पहली बार है, जब वामदलों का मध्यप्रदेश औश्र राजस्थान विधानसभा में एक भी प्रतिनिधि नहीं होगा। दिल्ली सहित शेष राज्यों में बसपा का प्रदर्शन नेतृत्व की आंखे खोलने वाला होना चाहिए। सपा आदि दलों की कोई हैसियत इन राज्यों में न होने के कारण वे फिलहाल संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन उन्हें भी अपनी चिंता करनी चाहिए। जातिवाद, कुशासन, अव्यवस्था, भाई - भतीजावाद ज्यादा समय तक चलने वाला नहीं है क्योंकि मतदाता किसी का भी लिहाज करने वाला नहीं है।
देश को अस्थिरता से बचाने के लिए मनमोहन सिंह जी को अपनी छवि बदलते हुए या तो फौरन लोकसभा चुनाव के लिए जाना चाहिए या फिर अपनी आर्थिक नीतियों की समीक्षा करते हुए तत्काल महंगाई पर रोक लगानी चाहिए। इसके लिए कुछ सख्त कदम भी उठाने पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए वरना सहयोगी दल जो हार का ठिकरा कांग्रेस पर फोड़ने से नहीं चूकेंगे। जैसा कि शरद पवार, मायावती, सपा, नेशनल कान्फ्रंेस आदि दल तो आंखे दिखाने भी लगे है।
चुनाव आयोग के लिए सबक की चर्चा करना जरूरी होगा।एक और हम स्वयं को महाशक्ति कहते नहीं अघाते तो दूसरी ओर मात्र पांच राज्यों की चुनाव प्रक्रिया का डेढ़ महीने लम्बा होना अटपटा है। हमारे पास सुरक्षा तथा संसाधनों का अभाव हो, यह संभव प्रतीत नहीं होता। चुनाव प्रक्रिया लम्बी होने से देश में लगातार राजनैतिक बयानबाजी के कारण अस्थिरता का वातावरण रहता है अतः इससे बचने की आवश्यकता है। यदि पांच राज्यों को उेढ़ महीना तो ऐसे में यह आशंका है कि आगामी लोकसभा चुनावों की प्रक्रिया एक वर्ष नहीं तो छ माह लम्बी हो सकती है। बहुत बेहतर हो कि सारे देश में एक ही दिन मतदान हो। अगले दो दिनों में परिणाम जिससे देश का विकास तथा आवश्यक फैसले टालने से बचा जाए। ...और अंत में एक सबक मतदाताओं के लिए भी। दिल्ली जैसी परिस्थितियों का निर्माण न हो इसका ध्यान मतदाताओं को रखना चाहिए। ‘बहु’ दो या मत दो पर बहुमत देने में कंजूसी बरतना खतरनाक हो सकता है। लोकतंत्र के हित में प्रत्येक व्यक्ति को इन सबकों से प्रेरणा लेते हुए आत्म परिस्कार करना चाहिए। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि देश के मतदाता आगामी लोकसभा चुनाव में दिल्ली जैसी गलती नहीं दोहरायेंगे।
सेमीफाइनल के सबक--- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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22:07
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