बकिंघम पैलेस को मात करता है मैसूर का महल-- डॉ. विनोद बब्बर

‘मैसूर नहीं देखा तो समझों कर्नाटक से अपरिचित रहे’ यह कहावत अनेकों बार सुनी थी। यह खूबसूरत नगर कभी मैसूर के पूर्व महाराजा वोडेयार की राजधानी थी जहाँ उनकी कुल देवी चामुंडेश्वरी देवीका विशाल मंदिर भी है। मैसूर का दशहरा तो विश्वप्रसिद्ध है। 10 दिनों तक चलने वाला यह उत्सव चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है। इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत माना जाता है। इस पूरे महीने मैसूर महल को रोशनी से सजाया जाता है। इस दौरान अनेक सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। उत्सव के अंतिम दिन बैंड बाजे संग सजे हाथी देवी की प्रतिमा को पारंपरिक विधि के अनुसार बन्नी मंडप तक पहुंचाते है। करीब 5 किमी. लंबी इस यात्रा के बाद रात को आतिशबाजी का कार्यक्रम होता है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ निभाई जाती है। उस दौरान देश- विदेश के लाखों लोग मैंसूर आते हैं। मैं सदैव भीड़ से बचता रहा हूँ  इसलिए चाहकर भी दशहरा के अवसर मैसूर नहीं आए। इस बार बंगलुरु आए तो मैसूर हमारी प्राथमिकता में था।
बेंगलुरु से सुबह बिना नाश्ता किये ही इनोवा कार से हम भव्य महलों, सुंदर उद्यानों और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत वाली नगरी मैसूर के लिए रवाना हुए। मैसूर रेशम और मनमोहक चंदन की लकड़ी और सुगंधित धूप के लिए भी जाना जाता है। बेंगलुरू से मैसूर की दूरी 140 किमी है। रास्ते में शूगर सिटी मान्ड्या और रेशम नगरी रंगपुरम आए। आश्चर्य यह कि इस नेशनल हाई-वे पर जगह -जगह स्पीड़ ब्रेकर हैं जो देशभर में अन्यत्र कहीं नहीं है। हमारे ड्राइवर गणेशा ने एक स्थान पर बहुत उम्दा नाश्ते करवाया। इडली संग स्वादिष्ट चटनी और उसके बाद कडक चाय।
सबसे पहले हम मैसूर से 13 किमी. दक्षिण में स्थित चामुंडा पहाड़ी की चोटी पर चामुंडेश्वरी मंदिर है जो देवी दुर्गा को समर्पित है। इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया था। यह मंदिर देवी दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर विजय का प्रतीक है। मंदिर मुख्य गर्भगृह में स्थापित देवी की प्रतिमा शुद्ध सोने की बनी हुई है। यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का शानदार नमूना है। मंदिर की इमारत सात मंजिला की ऊंचाई 40 मी. है। मुख्य मंदिर के पीछे महाबलेश्वर का एक छोटा सा मंदिर भी है जो 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है। हमनें टिकट लेकर चामंुडा के दर्शन किये और पास की खिड़की से राशि देकर प्रसाद ग्रहण किया। मंदिर के पास ही चौराहे पर महिषासुर की विशाल मूर्ति है जहां हमने फोटों लिए  और  नीचे की ओर उतरने लगे। पहाड़ की चोटी से मैसूर का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता है।  पहाड़ी के रास्ते में एक स्थान पर मुड़ते हुए काले ग्रेनाइट के पत्थर से बने नंदी के दर्शन होते हैं।
चंूकि मैं इंग्लैंड लंदन का बकिंघम पैलेस देख चुका हूँ इसलिए मुझे प्रथम दृष्टि में ही सोंरसैनिक शैली में गुम्बदों, प्राचीरों, आर्च तथा कोलोनेड वाला मैसूर महल ब्रिटेन के बकिंघम पैलेस के समान ही दिखाई दिया। मेरे अनुमान से इस समानता का कारण इसका डिजाइन बनाते समय ब्रिटिश वास्तुकार हेनरी इर्विन के मन- मस्तिष्क में बकिंघम पैलेस की तस्वीर थी। इस महल का निर्माण पुराने लकड़ी के महल के स्थान पर 1912 में वोडेयार के 24वें राजा द्वारा कराया गया था, जो वर्ष 1897 में टूट गया था।
टिकट लेकर कड़ी जांच के बाद मैसूर के इस विश्वप्रसिद्ध  महल में प्रवेश किया ही था कि केन्द्र सरकार में मंत्री रहे अम्बरेली सौराष्ट्र गुजरात के दिलीप संघाणी को परिवार सहित महल अवलोकनार्थ  मौजूद थे। वे स्वामी गौरांगशरण देवाचार्य से पूर्व परिचित थे इसलिए उनसे चर्चा के बाद ही आगे बढ़ें।  विशाल प्रांगण में अनेक स्थानों पर सिंह द्वार थे। इसकी विशालता वाडियार राजाओं के वैभव का प्रमाण है तो वास्तुकला भी अद्भुत है। जूते बाहर रखने के बाद महल में प्रवेश होता है उसका रास्ता एक सुंदर दीर्घा से है जहाँ भारतीय तथा यूरोपीय शिल्पकला की अनेक सजावटी वस्तुएं हैं। अब इस महल को संग्रहालय में बदल दिया गया है, जिसमें उस काल के स्मृति चिन्ह, तस्वीरें, आभूषण, शाही परिधान और अन्य सामान रखा गया है जिसमें स्वर्ण आभूषण तो हैं ही 84 किलो शुद्ध सोने से बना हाथी का  हौज भी रखा है।  दरबार हॉल और कल्याण मंडप यहां के मुख्य आकर्षण हैं। हाथी द्वार इसकी आधी दूरी पर है, जो महल के केन्द्र का मुख्य प्रवेश द्वार है। इस प्रवेश द्वार को फूलों की डिज़ाइन से सजाया गया है और इस पर दो सिरों वाले बाज का मैसूर का शाही प्रतीक बना हुआ है।
कल्याण मंडप की ओर जाने वाली दीवारों पर सुंदर तैल चित्र लगे हुए हैं जिनमें मैसूर के दशहरा त्यौहार के शाही जुलूस के ऐसे अद्भुत चित्र हैं जिन्हें किसी भी दिशा से देखा जा सकता है। इनके निकट से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि हम भी उस जुलूस का हिस्सा है। अत्यंत भव्य हाल जहाँ ं विशाल झूमरों और कई रंगों वाले कांच को मोर शोभा बढ़ा रहे है। इस ऐतिहासिक दरबार हॉल कीं ऊंची छत और सोने की नक्काशी वाले विशाल स्तम्भ देखते ही बनते हैं। यहां जाने-माने कलाकारों द्विारा बनाई मैसूर और तंजौर शैली की पेंटिंग्स, मूर्तियां और दुर्लभ वाद्ययंत्र रखे गए हैं। इनमें त्रावणकोर के शासक और प्रसिद्ध चित्रकार राजा रवि वर्मा तथा रूसी चित्रकार स्वेतोस्लेव रोएरिच द्वारा बनाए गए  दुर्लभ चित्र भी देखे जा सकते हैं। इस हॉल की सीढ़ियों के निकट से चामुंडी पहाड़ी का मनोरम दृश्य दिखाई देता है।
मैसूर से मात्र 12 किमी दूरी कृष्णराज वाडियार चतुर्थ के शासन काल मे 1932 में बना कृष्णराज सागर डैम है जिसका डिजाइन विश्वविख्यात वैज्ञानिक डॉ. एम.विश्वेश्वरैया ने तैयार किया। इसकी लंबाई 8600 फीट, ऊंचाई 130 फीट और क्षेत्रइसे स्वतंत्रता से पूर्व सिविल इंजीनियरिंग का नमूना माना जाता है। इसके साथ ही स्थित हैं वृंदावन गार्डन जिसे अत्यंत भारत के मोहक स्थलों में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। इस स्थान को देखे बिना मैसूर दर्शन अधूरा माना जाता है इसलिए  टिकट लेकर हमनें 30 एकड़ में फैले इस गार्डन की साज-सज्जा, इसके संगीतमय फव्वारे का आनंद लिया। यहां लगे 100 स्पीकर बाग की शोभा को बढ़ाते हैं, जिन से हर समय देशी व विदेशी संगीत की मधुर धुनें निकलती रहती हैं। यहां की मखमली घास और रंगबिरंगी फूलों का निराला सौंदर्य इस बाग की सैर कर रहे पर्यटकों को आनंदित करते हैं। शाम के समय रंगीन रोशनी में नहाए इस  पूरे उद्यान का नजारा किसी तिलिस्म से कम नहीं लगता। लोग देर रात तक प्राकृतिक व प्रोद्यौगिकी के इस संगम के सौंदर्य का आनंद लेते हैं लेकिन हमें उसी शाम बेंगलुरु वापस लौटना था इसलिए हमें जल्दी निकलना पड़ा। पर जितने समय भी हम यहाँ रहे अक्षित, माणिक सहित उनके माता-पिता ने भरपूर आनंद लिया।
मैसूर का चिड़ियाघर विश्व के सबसे पुराने चिड़ियाघरों में से एक माना जाता है। 1892 मेंबने इस चिड़ियाघर में 40 से अधिक  देशों से लाए गए जानवर रखे गये है। खूबसूरती से सजे इस स्थान पर शेर के अलावा हाथी, सफेद मोर, दरियाई घोड़े, गैंडे और गोरिल्ला भी हैं। चिड़ियाघर की करंजी झील में बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं। इसके अतिरिक्त यहां एक जैविक उद्यान भी है जहां भारतीय और विदेशी पेड़ों की करीब 85 प्रजातियां रखी गई हैं।
 1979 में बने मैसूर संग्रहालय में मैसूर स्टेट रेलवे की 1881-1951 के बीच की वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। इनमें भाप से चलने वाले इंजन, सिग्नल, और 1899 में बना सभी सुविधाओं वाला महारानी का सैलून शामिल है। चामुंडी गैलरी में रेलवे विभाग के विकास का दर्शाती तस्वीरें है। यह संग्रहालय बच्चों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उनके ज्ञान को भी बढ़ाता है।
मैंसूर के आसपास भी अनेक ऐतिहासिक महत्व के स्थान है तो ऊंटी जैसा प्रसि़द्ध हिल स्टेशन भी है। मैसूर से 22 किमी पर कबीनी नदी के किनारे बसे नंजनगुड में नंजुंदेश्वर या श्रीकांतेश्वर मंदिर है जिसे दक्षिण काशी कहे जाने वाले इस मंदिर  में स्थापित लिंग की स्थापना गौतम ऋषि ने की थी। नंजुडागुड नंजुडा वैद्य को समर्पित है जिसने हैदर अली के प्रिय हाथी की जान बचाई तो खुश होकर हैदर अली ने उन्हें अपना बेशकीमती हार पहनाया था। आज भी विशेष अवसर पर यह हार उन्हें पहनाया जाता है। इसी प्रकार यहां से 84 किमी दूर जैनों का प्रसि़द्ध तीर्थ श्रवणबेलगोला कुंड पहाड़ी की तराई में स्थित है। जहां हर 12 वर्ष में एक बार होने वाले महामस्ताभिषेक में दुनिया भर के लाखों  लोग भाग लेते हैं। यहां गोमतेश्वर बाहुबली स्तंभ है। बाहुबली मोक्ष प्राप्त करने वाले प्रथम र्तीथकर थे। 983 ई. में उनकी  57 फुट लंबी प्रतिमा ा निर्माण राजा रचमल्ला के एक सेनापति ने कराया था। यह प्रतिमा विंद्यागिरी नामक पहाड़ी से भी दिखाई देती है। मैसूर से 35 किमी दूर कावेरी नदी के किनारे बसे सोमनाथपुर में  सितार के आकार के चबूतरे पर केशव मंदिर का निर्माण 1268 में होयसल सेनापति, सोमनाथ दंडनायक ने करवाया था।
इनके अतिरित्क भी अनेक निकटवर्ती दर्शनीय स्थल हैं-
मैसूर से 16 किलोमीटर दूर श्रीरंगपट्टनम को टीपू सुलतान की राजधानी होने का गौरव हासिल है। यहां अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते वीरगति पाने वाले हैदर अली व टीपू सुलतान के मकबरे हैं। भारतीय और मुगल स्थापत्य कला के अद्भुत संयोजन से बने इन मकबरों का वास्तुशिल्प आद्वितीय व अवर्णनीय है।
दरिया दौलत बाग 1784 में बना टीपू सुलतान का यह ग्रीष्म महल है। इस महल के चारों ओर संुदर बाग हैं। सागवान जैसी मजबूत लकड़ी से बना यह महल संग्रहालय घोषित है जिसमें टीपू और अंग्रेजों के युद्ध के अनेक प्रमाण और प्रभाव देखे जा सकते है।
श्रीरंगपट्टनम से 3 किलामीटर दक्षिण में स्थित इस जगह पर कावेरी नदी की ही दो जलधाराएं आ कर मिलती हैं। लोग इस संगम स्थल पर जाकर बोटिंग तथा स्नान का आनंद लेते हैं।
बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान वन्य प्राणियों की बहुत अच्छा संरक्षण स्थली है। यहां पर दुर्लभ जाति के अनेक पशु व पक्षी प्रकृति का भरपूर आनंद लेते हैं। बांदीपुर को 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर स्कीम के लिए चुना गया है।
मैसूर से 82 किलोमीटर दूर भीमेश्वरी  में कावेरी फिशिंग कैंप है। जहां विश्व की सबसे अच्छी किस्म की मछली महाशीर मिलती है।
मैसूर से 85 किलोमीटर पूर्व में स्थित शिवसमुद्रम रमणीक जलप्रपातों के लिए मशहूर है। यहां कावेरी नदी 2 धाराओं में विभक्त हो कर नीचे गिरती है। इस से 1.5 किलोमीटर की ही दूरी पर एशिया की पहली हाइड्रो इलेक्ट्रिक परियोजना की शुरूआत 1905 में की गई थी।
नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान- यह स्थान प्रकृति प्रेमियों के आकर्षण का विशेष केंद्र है। वन्य प्राणियों से भरापूरा यह उद्यान हाथी, चीते आदि की विशेष संरक्षण स्थली है।
इस के अलावा काबिनी रिवर लाज, बी.आर.हिल्स, महादेशवरा हिल्स, तालाकाड़, मेलकेट आदि यहां अनेक दर्शनीय स्थल हैं।
हमे मैसूर के इतिहास की जानकारी सिकंदर के आक्रमण (327 ई0 पू0) के बाद से ही प्राप्त होती है। उस समय मैसूर के उत्तरी भाग पर सातवाहन वंश का अधिकार था, जो सातकर्णी कहलाते थे। इसके बाद  कदंब वंश, पल्लवों, इक्ष्वाकु वंश, परमनदि, गंग वंश, चालुक्यों, राष्ट्रकूट वंश, चोलवंश का शासन रहा। चालुक्यों में विक्रमादित्य (1076- 1126) बहुत प्रसिद्ध था। 1155 में कलचूरियो और उसके बाद पोयसल या होयसाल वंश जो स्वयं को यादव या चंद्रवंशी कहते थे का शासन हुआ। इनमें बिट्टिदेव ( 1104-1141) अधिक प्रसिद्ध था। 1336 में तंुगभद्रा के पास विजयनगर नामक एक हिंदु राज्य के संस्थापक हरिहर तथा बुक्क थे। इसके आठ राजाओं सिंहासन पर अधिकार कर लिया। उसकी मृत्यु के बाद उसके तीन पुत्रों, नरसिंह, कृष्णराय तथा

अच्युतराय, ने बारी बारी से राजसता संभाली। सन् 1565 में बीजापुर, गोलकुंडा आदि मुसलिम राज्यों के सम्मिलित आक्रमण से तालीफोटा की लड़ाई में विजयनगर राज्य का पतन हो गया। 18वीं शती में मैसूर पर मुसलमान शासक हैदर अली का शासन हुआ। उसकी मृत्यु के बाद 1799 तक उसका पुत्र टीपू सुल्तान शासक रहा। अंग्रेजों से हुए श्रीरंगपट्टम् के युद्ध में टीपू सुल्तान की मृत्यु के पश्चात् मैसूर को अंग्रेजों ने कब्जा लिया। 1831 में हिंदु राजा को गद्दी से उतारकर वहाँ अंग्रेज कमिश्नर नियुक्त हुआ। 1881 में  राजा चामराजेंद्र गद्दी पर बैठे। 1894 में कलकते में इनका देहावसान हो गया। महारानी के संरक्षण में उनके बड़े पुत्र राजा बने और 1902 में शासन संबंधी पूरे अधिकार उन्हें सौंप दिए गए। भारत के स्वतंत्र होने पर मैसूर नामक एक अलग राज्य बना  जिसमें आसपास के कुछ क्षेत्र भी सम्मिलित थे। भारत में राज्यों के पुनर्गठन के बाद मैसूर को कर्नाटक में शामिल कर दिया गया।

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