वादे हैं, वादो का क्या!-- डॉ. विनोद बब्बर
अपना स्वार्थ साधने के लिए कड़ी-बड़ी बातें करना, झूठा दिखावा करना मानवीय स्वभाव कहा जा सकता है। रहीम ने कहा भी है-
काज पड़े कछु और है, काज सरे कछु और।
रहिमन भावर के पड़े, नदी सुहावत मोर।।
राजनीति को समाज का ‘टायलेट’ कहने वाले उससे वायदों के प्रति गंभीर होने की आपेक्षा ही नहीं करते। चुनावी घोषणा पत्र में लोकलुभावन वादे करते हुए वे मतदाताओं के भलाई और क्षेत्र के विकास के इतने स्वप्न दिखाते हैं कि अच्छे-अच्छे जाल में फंस जाते है। हर बेरोजगार को रोजगार, हर घर तक सस्ती बिजली-पानी, पक्की, नाली गली सड़क पहुंचाना, अपराधों पर अंकुश, महिलाओं को सुरक्षा सुनिश्चित, टैक्स का भार न लादने का वादा, किसानों को मुफ्त बिजली दी जाएगी। 100 दिनों में महंगाई में कमी, प्रशासन में पारदर्शिता जैसे सपने लगभग हर दल ने दिखाये लेकिन सपने कभी अपने नहीं हुए। होते भी कैसे अनेक बार ऐसे भी वायदे किये जाते हैं जिन्हें पूरा करना राजनीतिक दलों के वश में होता ही नहीं। जैसे नगर निगम के चुनाव में अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे उछालना, दुश्मन देश को सबक सिखाना। दूर की बात क्या करे, अभी हाल ही में दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक दल ने प्रथम सप्ताह में ही लोकपाल कानून पास कराने का वादा किया था। परिस्थितियों ने उन्हें कुर्सी पर तो बैठा दिया लेकिन योग्य अधिकारी रहे महोदय ने फरमाया, ‘उन्हें मालूम नहीं था कि दिल्ली में कोई भी कानून बनाने से पहले केन्द्र की अनुमति आवश्यक है इसलिए.......!’ स्पष्ट है कि जब प्रशासनिक अधिकारी रहे व्यक्ति का ज्ञान अधूरा है तो कम पढ़े लिखे नेता की स्थिति तो इससे भी खराब होगी।
इसमें कोई संदेह नहीं कि चुनावी वायदे के प्रति राजनीतिक दल वास्तव में गंभीर होते, तो अब तक भारत की तकदीर ही बदल चुकी होती, कोई भी राज्य अविकसित नहीं रहता और न ही केन्द्र सरकार से विशेष पैकेज की मांग होती। अब नए नायक कहे जा रहे केजरीवाल साहब द्वारा दिल्ली के लोगों को मात्र तीन महीने के लिए हर महीने 20 हजार लीटर पानी देने की घोषणा को ही ले। जिस वर्ग ने उन्हें शीर्ष पर बैठाया उसे ही इस योजना से बाहर रखा गया है। जिन बस्तियों में जल पाइपलाइन नहीं है, जिन घरों में मीटर नहीं है या खराब हैं अथवा जिनके घर एनडीएमसी या दिल्ली छावनी इलाकें में हैं उन्हें इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा पर उन्हें इस योजना के नुकसान जरूर झेलने पड़ेगे। इस केजरीवाल राहत योजना के तहत प्रतिदिन केवल 666 लीटर पानी उपयोग करने वाले ही इससे लाभान्वित होंगे और इससे अधिक इस्तेमाल करने वाले दंडित क्योंकि उन्हें एक लीटर अधिक होते ही 10 प्रतिशत अतिरिक्त शुल्क देना होगा।
इतना ही क्यों, ये केजरीवाल साहब हर सभा में इन पानी के मीटरों की हकीकत बताते थे। वे मीटर के एक सिरे पर फूंक मार कर साबित करते थे कि मीटर पानी से ही नहीं, हवा से भी चलते है। अब उन्हे स्वयं के तर्क ही याद नहीं। इस तरह से 666 लीटर का अर्थ पानी $ हवा दोनो है तो पानी 400 लीटर के आसपास ही होना चाहिए। एक परिवार जिसमें दो विवाहित बेटे, उनके बच्चे और बूढ़े माँ-बाप हो तो मात्र इतने पानी से कैसे गुजारा होगा इस पर बात करने को कोई तैयार नहीं है। जबकि हमारे जैसे लाखो लोग ऐसे भी है जिनके यहाँ पानी तो नहीं आता पर बिल जरूर आते हैं। उसपर भी सितम ये कि पानी न आने पर मीटर रीडिंग ही आगे न बढ़े तो अब मीटर को ‘फाल्टी’ घोषित कर जुर्माना भी लगेगा। सस्ती बिजली का मामला भी कुछ इसी तरह से है।
केवल इस एक नई पार्टी की बात नहीं है, पुराने भी कम पापी नहीं है। भाजपा कश्मीर से धारा-370 हटाने और समान नागरिक संहिता बनाने, अयोध्या में राममंदिर बनाने का वायदा लगभग हर बार करती है पर सरकार में होने पर ‘यह सरकार हमारी नहीं है, मिली जुली है। जब हमे बहुमत मिलेगा तो....!’ जैसे शब्द जाल फेंक कर बच निकलती है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 100 दिन में महंगाई कम करने का वायदा किया था लेकिन इन पांच सालों में महंगाई ‘कितनी कम’ हुई है सारा देश जानता है। कांग्रेस का हाथ गरीब के साथ होने का वादा था लेकिन रोजी-रोटी का संकट बढ़ा है, असुरक्षा बोध लगातार बढ़ा है। न्यायपूर्ण और समतावादी शासन अर्थात् भय,भूख और भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वादा तो किसी चुटकले का स्वरूप ग्रहण कर चुका है। दबे-कुचल-शोषित की बात करने वाले समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी आदि दल भी किसी सें पीछे हैं। स्वयं हीरे की अंगूठी, कीमती वस्त्र, बेशुमार दौलत पाकर उन्हें अपने वायदे पूरे हो जाने की अनुभूति होती हो तो बात अलग है। भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प लेकर अपने खिलाफ चल रहे मुकद्दमें वापस करवाने के लिए किसी से भी समझौता करने वाले अपने वायदे याद रखे भी तो कैसे? आश्चर्य तो यह है कि उनके समर्थक भी उनकी नाफरमानी का कोई नोटिस नहीं लेते। वायदों पर कभी जाति तो कभी धर्म, कभी भाषा तो कभी प्रांत, कभी हवा तो कभी आंधी हावी हो जाती है। सचमुच महान है हमारे भाषण्वीर नेता जो राजनीति को सेवा का माध्यम तो बताते हैं लेकिन सत्ता में आते ही निजसेवा के अतिरिक्त सब कुछ भूल जाते है।
जहाँ तक चुनावी घोषणपत्रों का सवाल है, इस सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है कि सभी दल यह काम बुद्धिजीवी छवि वाले अपने उन नेताओं को सौंपते हैं जिनका धरातल की राजनीति से कोई खास जुड़ाव नहीं होता। वे बड़ी-बड़ी बातें घोषणापत्र में दर्ज जरूर करा सकते हैं लेकिन व्यावहारिक न होने के कारण उन्हें ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है। क्या यह जरूरी नहीं होना चाहिए कि वायदों को पूरा करने का रोडमैप भी घोषणापत्र में शामिल करना अनिवार्य किया जाए। उन्हें इस बात को भी स्पष्ट करना चाहिए कि वे अपने हवाई वायदों को पूरा करने के लिए वित्त प्रबंधन कैसे करेंगे? सबसीड़ी देकर वायदे पूरे करने का कोई अर्थ नहीं हो सकता। सबसीड़ी देने का अर्थ है एक हाथ देकर दूसरे से उससे भी ज्यादा वसूलना। झूठे वायदे करने की मजबूत परम्परा के परिणामों को भुगतने के बाद क्या आज कुशल नेता की परिभाषा बदलने का उचित समय नहीं है? क्या वे राज्य जिसके पास पर्याप्त प्राकृतिक संसाधन होते हुए भी उनका सही और अनुकूलतम उपयोग न कर पाने पर उन्हें दंडित करने की शुरूआत करने का सही समय नहीं है? यदि वे केवल ‘वादावीर’ न होते तो उन राज्यों की दशा बदली जा सकती थी।
वायदों को व्यवहारिकता की कसौटी पर न कसने वालों से मेरा अनुरोध है कि ‘वे एक बार, केवल एक बार मुझ पर भी भरोसा करें। मैं वायदा करता हूँ कि चुने जाने पर अपने क्षेत्र के हर मतदाता को एक शानदार कोठी, अपनी पसंद की चार पहिया गाड़ी, बिजली-पानी पूरी तरह मुफ्त (नो 666 लीटर, नो 400 यूनिट), 50 वर्ष से अधिक वाले हर व्यक्ति को वर्ष में 10 बार मुफ्त हवाई यात्रा, अनगिनत बार रेलयात्रा और प्रति माह एक लाख रुपये बिना कुछ किये प्राप्त करने का संवैधानिक अधिकार दिलाऊंगा। शिक्षा और स्वास्थ्य पंचसितारा और बिना एक भी पैसा दिये प्राप्त होगे।’ यदि 5 वर्षो में मैं यह सब न कर सका तो जनता मुझे अगली बार न चुने क्योंकि मैं चुनाव लडूंगा ही नहीं। और हाँ, मुझे यह स्वीकार करने से कोई गुरेज नहीं कि इसी दौरान मैं यह सब प्राप्त कर ही चुका हुंगा।
कुछ मित्र याद दिला रहे हैं कि केजरीवाल साहब कहा करते थे, ‘मैं अपने बच्चों की कसम खाकर कहता हूँ कि कांग्रेस और बीजेपी से कोई गठबंधन नहीं करूंगा। उन्होंने दिल्लीवासियों को कांग्रेस को वोट नहीं देंने की कसम दिलाई थी लेकिन वे उस पर कायम नहीं रह सके और.....!’ यह सब चलता है क्योंकि हम गंभीर नहीं है। क्या याद नहीं एक फिल्म का यह गीत-
कसमे वादे प्यार वफा
सब बाते है, बातों का क्या ?
कोई किसी का नहीं
ये झूठे नाते है, नातों का क्या?
होगा मसीहा सामने तेरे
फिर भी न तू बच पायेगा
दुनियावाले तेरा बनकर
तेरा ही दिल तोड़ेंगे
देते हैं भगवान को धोखा
इंसान को क्या छोड़ेंगे!
वादे हैं, वादो का क्या!-- डॉ. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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06:15
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