फिर नया साल, फिर ढेरों सवाल--- डॉ. विनोद बब्बर
2013 अंतिम सांसे गिन रहा है और 2014 दस्तक देने की तैयारी में है। नवधनिक नये साल के जश्न की तैयारी में मस्त है। महानगरों के सभी पंच सितारा होटल पाश्चात्य संस्कृति की धुन पर थिरकने वालों के लिए पहले ही बुक हो चुके हैं, तो अन्य नगरों में भी स्थिति कमोबेश ऐसी-ही है। जो स्वयं को भारतीय संस्कृति का पुरोधा घोषित करते हैं, वे भी भारतीय नववर्ष को लगभग भुलाते हुए ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के जश्न का हिस्सा बन रहे हैं। यह सच है कि हम पर पश्चिमी तौर-तरीकों का प्रभाव बढ़ा है, इसीलिए भाषा ही नहीं, अंग्रेजियत भी हावी हो रही हैं। ऐसे में, प्रथम जनवरी को नववर्ष न मानने की सीख अपनी अपील खो चुकी है। आधुनिकता का दंभ भरने वाले नये साल के स्वागत के लिए तैयार हैं, ऐसे में देश के हाल पर हम सबको अपने आपसे कुछ सवाल करने चाहिए अर्थतृ खुद ही खुद से दो-दो हाथ करने चाहिए।
देश की वर्तमान स्थिति में, जहाँ एक ओर मंदी और बेरोजगारी करोड़ों लोगों के लिए रोज़ी-रोटी का सवाल खड़ा कर रही है, दूसरी ओर अस्थिरता का फन फैला दिखाई देता है। राजनैतिक लाभ के लिए हमारे कुछ नेता देश की एकता और अस्मिता से समझौते करने को तैयार दिखाई दे रहे है। साम्प्रदायिकता, प्रांतवाद, जातिवाद, भाषावाद हमारे विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं क्योंकि हम इस चुनौती से निपटने के नाम पर उल्टे इन्हें ही खाद पानी दे रहे है। बीते वर्ष की असफलताओं को दरकिनार कर अर्थात् राष्ट्र-चिंतन की बजाय कोई अनावश्यक उत्सव मनाने को उतावलो को एक क्षण रूक कर, सोचकर ही आगे बढ़ना चाहिए।
पिछले दिनों हुए पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने केन्द्र सरकार को लगभग मूर्च्छित कर दिया है तो स्वयं को विजेता समझने वाले भी सहमे हुए है। वायदे करना और उन्हें निभाना दो अलग-अलग परिस्थितियां हैं। कहाँ तो हमें मुफ्त की प्रवृति से धीरे- धीरे निजात पानी चाहिए थी हम उसे बढ़ावा देकर न जाने कैसे लोक सेवक कहलवाना चाहते हैं। जबकि यह सर्वविदित है कि सबसीड़ी का लाभ गरीबों की बजाय अमीरों उचित समय नहीं होगा कि वायदों को व्यवहारिकता से जोड़ा जाए। चुनावी घोषणा पत्र में वायदे पूरे करने का स्रोत बताना जरूरी हो। बड़े-बड़े वायदे कर अपनी गरीबी दूर करने वालों को हम अगले चुनाव में मात्र हरा ही तो सकते है पर यह तो उनकी अयोग्यता अथवा मक्कारी को बढ़ावा देना है। बहानेबाजी करने वाले, जादू की छड़ी न होने की बातें कर बच निकलने का रास्ता तलाशने वालों और निश्चित समय में वायदे पूरे न करने वालों की नागरिकता समाप्त करने जैसे कठोर दंड का प्रावधान क्यों नहीं?
राजनीति में धन, बल और अपराध की बढ़ती भूमिका पर बातों की भरमार जरूर है पर क्या हाल ही उभरी पार्टी सहित सभी दल इस गंदगी से मुक्त हैं? आम आदमी के हित और स्वच्छ राजनीति और सिद्धांतों की राजनीति की बातें कोरी बयानबाजी तक सिमट कर रही गई हैं। सभी अपने-अपने वोट बैंक की रक्षा करने से उसे और अधिक बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। महत्वपूर्ण जिम्मेवारी संभाले लोग देश के नियम-कानूनों की मर्यादा का पालन नहीं करते। संसद और विधानसभाएं सार्थक संवाद की बजाय हंगामा और आरोप-प्रत्यारोप का मंच बनकर रह गई है। निराशा के ऐसे माहौल में किसे शुभकामनाएं दें, किसकी बधाइयां स्वीकारें?
गंगा, यमुना तो मैॅली है पर इसके नाम पर करोड़ों डकारने वालो बताओं कि देश के अधिकांश गाँवों में आज भी बजली व अच्छी सड़कें क्यों नहीं हैं? स्कूल और अस्पताल नहीं हैं। यदि हैं भी, तो वहाँ पर्याप्त स्टॉफ नहीं, अध्यापक -डाक्टर नहीं। डाक्टर है, तो दवा नहीं। युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। उन्हें रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करना पड़ता है, पर कुछ सिरफिरे लोग उन्हें आतंकित करते हैं। खेती करने वालों को खाद-पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। भीषण सर्दी में फुटपाथ पर दम तोड़ना किसी को आंदोलित नहीं करता बल्कि यह तक कहा जाता है, ‘किसी की मौत का कारण सर्दी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो साइबेरिया में कोई नहीं जिंदा नहीं रहता।’ विश्व के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री की नीतियों का प्रतिफल है कि कर्ज के जाल में फंस कर आत्महत्या करते किसानों की आत्मा हमंे धिक्कारते हुए पूछ रही है, ‘इतने अंधेरों के रहते, कैसा जश्न? कैसा नया वर्ष?’
‘शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है और बच्चे देश का भविष्य’ जैसे जुमले आखिर कब तक हमारे मानस को ठगते रहेगे? पूरे देश की बात छोड़ों, राजधानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का औसत स्तर क्या है, इस पर राजनैतिक कुतर्क लाख प्रस्तुत किये जा सकते हैं पर सत्य किसी से छुपा नहीं हैं। रही बात बच्चों ो प्यार, पढ़ाई और पोषण की, आज भी, देश के लाखों बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। देश के लगभग हर ढ़ाबे में जूठे बर्तन धोने वाले बच्चे क्या हमारे नहीं हैं? बसों और रेलों में करतब दिखाते छोटे-छोटे बच्चों को देखकर चवनी उछालने या मुँह मोड़ने से काम नहीं चल सकता। जेब काटने से भीख माँगने तक विवश बच्चों के रहते आप किस नई सुबह के नाम पर थिरक रहे हैं? कैसा नया वर्ष?
एक निर्भया के साथ हुए अमानवीय व्यवहार पर कैंडल मार्च कर संतुष्ट हो जाने वालों को खुद से पूछना चाहिए कि इतने भर से समस्या का समाधान कब और कैसे हो सकता है? हमें अपने अंदर झांकना होगा कि आधुनिकता के नाम पर हम नारी शोषण के दोषी है या नहीं? सड़क और घर पर हमारे मापदंड अलग-अलग हैं या नहीं? मजबूरी में देह बेचने का जिम्मेवार कौन है? क्या केवल बेचने वाली? क्या केवल कानून? उसे बाजार किसने दिया? खुद से यह सवाल पूछने की बेला है कि पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर नारी को प्रदर्शन और भोग की वस्तु किसने बनाया? क्या हम स्वयं भी उसे न्याय दे रहे हैं? जन्म से पहले ही उसकी भ्रूण हत्या करने वाले आखिर कौन है? कैबरे में थिरकती अर्धनंगेी नारी संग नाचना या नाचने की तमन्ना रखना उत्सव हैं या अभिशाप?
पाकिस्तानी हमारे सैनिकों का सिर काटकर ले जाते हैं और हम ‘ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी’ गाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। आतंकवाद के कारक और कारण नापाकिस्तान की नाफरमानी आखिर कब हमारी आंखों में शोले भरेगी? उससे निपटने के साथ-साथ अपने अंदर दुश्मन के ठिकानों का सफाया कौन और कब करेगा? क्या सीमाओं की कड़ी चौकसी भाषणों तक सीमित रहनी चाहिए? क्या घुसपैठिये हवा में उड़कर आते हैं? देशद्रोहियों को पनाह देने वालों के रहते कैसी सुरक्षा? कैसी शांति? जब देश की सुरक्षा पर खतरा मंडरा रहा हो, तो कैसा नया साल? कैसा उत्सव? कैसी मस्ती?
दुनिया का हर धर्म मानव कल्याण की बात करता है पर धर्म के ठेकेदार क्या कर रहे है? गरीब, अशिक्षित का बुद्धिहरण करने वालो को कब समझ में आएगा कि दान का धन उनकी अय्याशी के लिए नहीं सर्वत्र के कल्याण के लिए है। स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि कहने वाले ‘निधि पति’ बने क्यों घूम रहे हैं? क्या धर्मक्षेत्र भारत को अधार्मिक बनाने का दोष इन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए? हर धर्म सम्प्रदाय में पाखण्डी बाबा, अन्धविश्वास और रुढियां मौजूद है तो हमारे शिक्षित होने का क्या अर्थ है? क्या यह उचित समय नहीं आ गया है कि हर धार्मिक स्थल से लाउडस्पीकर उतरवा दिया जाए। धार्मिक कर्मकांड हमारेे घर, मंदिर-मस्जिद आदि में हो, किसी पार्क, सड़क या सार्वजनिक स्थल पर नहीं। तनाव का कारण बनते धर्मान्तरण पर प्रतिबंध के बिना धर्मनिरपेक्षता का कोई अर्थ हो सकता है। धार्मिक आस्थाओं के व्यापार को धर्म कहा भी जाये तो आखिर क्यों।
वास्तव में, यह समय नव वर्ष के अनुकूल है ही नहीं क्योंकि प्रकृति ही ठण्ड से सहमी-सिकुड़ी हुई है, पेड़ांे के पत्ते गिर रहे हैं। सर्वत्र धुधं और कोहरे ने जन-जीवन को बाधित कर रखा है। पौष की सबसे ठंडी रात में जब कुछ लोग हंगामा करते हैं, देश का किसान उन सर्द रातों में अपने खेतांे में पानी देता है या जंगली पशुओं से अपनी कड़ी मेहनत से तैयार फसल की रक्षा करता है। उसके लिए यह परीक्षा की घड़ी होती है, न कि उत्सव की। क्या आप इस समय को किसी उत्सव के अनुकूल मानते हैं? इसके बिल्कुल विपरीत, जब भारतीय नववर्ष होते हं,ै जैसे चैत्र या बैशाख में (मार्च-अप्रैल) तो प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है। बसंत ऋतु, न गर्मी-न सर्दी, फसलें तैयार, घर में धन-धान्य आने की खुशी, मन में अपने आप ही जश्न की मस्ती छाने लगती है। हमारे मनीषियों द्वारा निर्धारित नववर्ष ही वैज्ञानिक है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि किसी भी उत्सव के लिए सुरक्षा, खुशहाली, समृद्धि, परम्परा और प्रकृति जरूरी है। आज जब इन पाँचों आवश्यक तत्वों में से एक भी विद्यमान नहीं है तो सवाल उठता है और उठना भी चाहिए कि कैसा नया साल? कैसी मस्ती?
देश की वर्तमान स्थिति में, जहाँ एक ओर मंदी और बेरोजगारी करोड़ों लोगों के लिए रोज़ी-रोटी का सवाल खड़ा कर रही है, दूसरी ओर अस्थिरता का फन फैला दिखाई देता है। राजनैतिक लाभ के लिए हमारे कुछ नेता देश की एकता और अस्मिता से समझौते करने को तैयार दिखाई दे रहे है। साम्प्रदायिकता, प्रांतवाद, जातिवाद, भाषावाद हमारे विवेक पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं क्योंकि हम इस चुनौती से निपटने के नाम पर उल्टे इन्हें ही खाद पानी दे रहे है। बीते वर्ष की असफलताओं को दरकिनार कर अर्थात् राष्ट्र-चिंतन की बजाय कोई अनावश्यक उत्सव मनाने को उतावलो को एक क्षण रूक कर, सोचकर ही आगे बढ़ना चाहिए।
पिछले दिनों हुए पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामों ने केन्द्र सरकार को लगभग मूर्च्छित कर दिया है तो स्वयं को विजेता समझने वाले भी सहमे हुए है। वायदे करना और उन्हें निभाना दो अलग-अलग परिस्थितियां हैं। कहाँ तो हमें मुफ्त की प्रवृति से धीरे- धीरे निजात पानी चाहिए थी हम उसे बढ़ावा देकर न जाने कैसे लोक सेवक कहलवाना चाहते हैं। जबकि यह सर्वविदित है कि सबसीड़ी का लाभ गरीबों की बजाय अमीरों उचित समय नहीं होगा कि वायदों को व्यवहारिकता से जोड़ा जाए। चुनावी घोषणा पत्र में वायदे पूरे करने का स्रोत बताना जरूरी हो। बड़े-बड़े वायदे कर अपनी गरीबी दूर करने वालों को हम अगले चुनाव में मात्र हरा ही तो सकते है पर यह तो उनकी अयोग्यता अथवा मक्कारी को बढ़ावा देना है। बहानेबाजी करने वाले, जादू की छड़ी न होने की बातें कर बच निकलने का रास्ता तलाशने वालों और निश्चित समय में वायदे पूरे न करने वालों की नागरिकता समाप्त करने जैसे कठोर दंड का प्रावधान क्यों नहीं?
राजनीति में धन, बल और अपराध की बढ़ती भूमिका पर बातों की भरमार जरूर है पर क्या हाल ही उभरी पार्टी सहित सभी दल इस गंदगी से मुक्त हैं? आम आदमी के हित और स्वच्छ राजनीति और सिद्धांतों की राजनीति की बातें कोरी बयानबाजी तक सिमट कर रही गई हैं। सभी अपने-अपने वोट बैंक की रक्षा करने से उसे और अधिक बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक गिरने को तैयार हैं। महत्वपूर्ण जिम्मेवारी संभाले लोग देश के नियम-कानूनों की मर्यादा का पालन नहीं करते। संसद और विधानसभाएं सार्थक संवाद की बजाय हंगामा और आरोप-प्रत्यारोप का मंच बनकर रह गई है। निराशा के ऐसे माहौल में किसे शुभकामनाएं दें, किसकी बधाइयां स्वीकारें?
गंगा, यमुना तो मैॅली है पर इसके नाम पर करोड़ों डकारने वालो बताओं कि देश के अधिकांश गाँवों में आज भी बजली व अच्छी सड़कें क्यों नहीं हैं? स्कूल और अस्पताल नहीं हैं। यदि हैं भी, तो वहाँ पर्याप्त स्टॉफ नहीं, अध्यापक -डाक्टर नहीं। डाक्टर है, तो दवा नहीं। युवाओं के सामने रोजगार का संकट है। उन्हें रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करना पड़ता है, पर कुछ सिरफिरे लोग उन्हें आतंकित करते हैं। खेती करने वालों को खाद-पानी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। भीषण सर्दी में फुटपाथ पर दम तोड़ना किसी को आंदोलित नहीं करता बल्कि यह तक कहा जाता है, ‘किसी की मौत का कारण सर्दी नहीं होती। अगर ऐसा होता तो साइबेरिया में कोई नहीं जिंदा नहीं रहता।’ विश्व के सर्वश्रेष्ठ अर्थशास्त्री की नीतियों का प्रतिफल है कि कर्ज के जाल में फंस कर आत्महत्या करते किसानों की आत्मा हमंे धिक्कारते हुए पूछ रही है, ‘इतने अंधेरों के रहते, कैसा जश्न? कैसा नया वर्ष?’
‘शिक्षक राष्ट्र का निर्माता है और बच्चे देश का भविष्य’ जैसे जुमले आखिर कब तक हमारे मानस को ठगते रहेगे? पूरे देश की बात छोड़ों, राजधानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का औसत स्तर क्या है, इस पर राजनैतिक कुतर्क लाख प्रस्तुत किये जा सकते हैं पर सत्य किसी से छुपा नहीं हैं। रही बात बच्चों ो प्यार, पढ़ाई और पोषण की, आज भी, देश के लाखों बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। देश के लगभग हर ढ़ाबे में जूठे बर्तन धोने वाले बच्चे क्या हमारे नहीं हैं? बसों और रेलों में करतब दिखाते छोटे-छोटे बच्चों को देखकर चवनी उछालने या मुँह मोड़ने से काम नहीं चल सकता। जेब काटने से भीख माँगने तक विवश बच्चों के रहते आप किस नई सुबह के नाम पर थिरक रहे हैं? कैसा नया वर्ष?
एक निर्भया के साथ हुए अमानवीय व्यवहार पर कैंडल मार्च कर संतुष्ट हो जाने वालों को खुद से पूछना चाहिए कि इतने भर से समस्या का समाधान कब और कैसे हो सकता है? हमें अपने अंदर झांकना होगा कि आधुनिकता के नाम पर हम नारी शोषण के दोषी है या नहीं? सड़क और घर पर हमारे मापदंड अलग-अलग हैं या नहीं? मजबूरी में देह बेचने का जिम्मेवार कौन है? क्या केवल बेचने वाली? क्या केवल कानून? उसे बाजार किसने दिया? खुद से यह सवाल पूछने की बेला है कि पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगकर नारी को प्रदर्शन और भोग की वस्तु किसने बनाया? क्या हम स्वयं भी उसे न्याय दे रहे हैं? जन्म से पहले ही उसकी भ्रूण हत्या करने वाले आखिर कौन है? कैबरे में थिरकती अर्धनंगेी नारी संग नाचना या नाचने की तमन्ना रखना उत्सव हैं या अभिशाप?
पाकिस्तानी हमारे सैनिकों का सिर काटकर ले जाते हैं और हम ‘ए मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी’ गाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। आतंकवाद के कारक और कारण नापाकिस्तान की नाफरमानी आखिर कब हमारी आंखों में शोले भरेगी? उससे निपटने के साथ-साथ अपने अंदर दुश्मन के ठिकानों का सफाया कौन और कब करेगा? क्या सीमाओं की कड़ी चौकसी भाषणों तक सीमित रहनी चाहिए? क्या घुसपैठिये हवा में उड़कर आते हैं? देशद्रोहियों को पनाह देने वालों के रहते कैसी सुरक्षा? कैसी शांति? जब देश की सुरक्षा पर खतरा मंडरा रहा हो, तो कैसा नया साल? कैसा उत्सव? कैसी मस्ती?
दुनिया का हर धर्म मानव कल्याण की बात करता है पर धर्म के ठेकेदार क्या कर रहे है? गरीब, अशिक्षित का बुद्धिहरण करने वालो को कब समझ में आएगा कि दान का धन उनकी अय्याशी के लिए नहीं सर्वत्र के कल्याण के लिए है। स्वयं को ईश्वर का प्रतिनिधि कहने वाले ‘निधि पति’ बने क्यों घूम रहे हैं? क्या धर्मक्षेत्र भारत को अधार्मिक बनाने का दोष इन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए? हर धर्म सम्प्रदाय में पाखण्डी बाबा, अन्धविश्वास और रुढियां मौजूद है तो हमारे शिक्षित होने का क्या अर्थ है? क्या यह उचित समय नहीं आ गया है कि हर धार्मिक स्थल से लाउडस्पीकर उतरवा दिया जाए। धार्मिक कर्मकांड हमारेे घर, मंदिर-मस्जिद आदि में हो, किसी पार्क, सड़क या सार्वजनिक स्थल पर नहीं। तनाव का कारण बनते धर्मान्तरण पर प्रतिबंध के बिना धर्मनिरपेक्षता का कोई अर्थ हो सकता है। धार्मिक आस्थाओं के व्यापार को धर्म कहा भी जाये तो आखिर क्यों।
वास्तव में, यह समय नव वर्ष के अनुकूल है ही नहीं क्योंकि प्रकृति ही ठण्ड से सहमी-सिकुड़ी हुई है, पेड़ांे के पत्ते गिर रहे हैं। सर्वत्र धुधं और कोहरे ने जन-जीवन को बाधित कर रखा है। पौष की सबसे ठंडी रात में जब कुछ लोग हंगामा करते हैं, देश का किसान उन सर्द रातों में अपने खेतांे में पानी देता है या जंगली पशुओं से अपनी कड़ी मेहनत से तैयार फसल की रक्षा करता है। उसके लिए यह परीक्षा की घड़ी होती है, न कि उत्सव की। क्या आप इस समय को किसी उत्सव के अनुकूल मानते हैं? इसके बिल्कुल विपरीत, जब भारतीय नववर्ष होते हं,ै जैसे चैत्र या बैशाख में (मार्च-अप्रैल) तो प्रकृति अपने पूरे निखार पर होती है। बसंत ऋतु, न गर्मी-न सर्दी, फसलें तैयार, घर में धन-धान्य आने की खुशी, मन में अपने आप ही जश्न की मस्ती छाने लगती है। हमारे मनीषियों द्वारा निर्धारित नववर्ष ही वैज्ञानिक है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि किसी भी उत्सव के लिए सुरक्षा, खुशहाली, समृद्धि, परम्परा और प्रकृति जरूरी है। आज जब इन पाँचों आवश्यक तत्वों में से एक भी विद्यमान नहीं है तो सवाल उठता है और उठना भी चाहिए कि कैसा नया साल? कैसी मस्ती?
फिर नया साल, फिर ढेरों सवाल--- डॉ. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
on
23:28
Rating:
No comments