कर्कशता से भटके आधारभूत मुद्दे-- डा. विनोद बब्बर
यूं तो हर चुनाव असाधारण होता है परंतु लोकसभा का वर्तमान चुनावी अभियान अद्वितीय है। अद्वितीय इस मायने में कि जितनी आग इस बार उगली जा रही है शायद ही इससे पूर्व कभी इतनी आग उगली गई हो। दूसरांे को नकारा और स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए ऐसी भाषा बोली जा रही हैं जिसे सुन कर कष्ट होता है। चुनावी शब्द बाण सामान्य शिष्टाचार के स्तर से भी नीचे व्यक्तिगत प्रहार तक पहुँच रहे हैं। चुनावी लाभ-हानि के लिए गडे़ मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं। 1984 से गुजरात दंगों तक को खूब उछाल-उछाल कर भावनाओं का दोहन करने की कोशिशें जारी है। दूसरों के भ्रष्टाचार को खूब भुनाया जा रहा है लेकिन यह बताने को कोई तैयार नहीं कि उसने बड़ी-बड़ी बातों के अलावा भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए क्या किया है। आश्चर्य तो यह है कि जो कुछ करने का साहस तक नहीं जुटा सकता वह शोर मचाने में सबसे आगे है।
इस बार टिकटों के बंटवारे पर लगभग हर दल में जिस तरह की जूतम-पजार हुई उसने इन दलों के आंतरिक लोकतंत्र की पोल खोल दी है। यहां तक कि स्वयं को एकमात्र ईमानदार दल बताने वालों के अपनों ने ही टिकटें बेचने से समर्थन सहयोग के लिए पैसे की मांग का आरोप लगाते हुए टिकट लौटाई है। विशेष दुर्भाग्य की बात तो यह है कि जन्म-जन्म के राजनैतिक विरोधी पाला बदलते ही एक ही क्षण जुड़वा भाई बनकर टिकट तक पा गए। ऐसे में उस पार्टी ने वर्षों से वफादार रहे अपने कार्यकर्ताओं की भावनाओं तक की परवाह नहीं की कि आखिर जिसके भ्रष्टाचार अथवा कार्यशैली का वे कार्यकर्ता विरोध करते हुए जनता से अपने ईमानदार उम्मीवार के लिए वोट मांगते थे, आज उसी के समर्थन में किस मुंह से वोट मांगने निकलेंगे।

इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आजादी के 67 वर्ष बाद भी शिक्षा, सड़क, सिंचाई, स्वास्थ्य, सुरक्षा और बेरोजगारी जैसे मूल मुद्दों को प्रभावी ढंग से किसी ने भी नहीं उठाया है। आज, अपने स्वार्थों के तहत, एक दल महापुरुषों के नाम पोस्टरों में छपवाने व उनके नाम से निर्माण-कार्य कराने को अपनी उपलब्धि बता रहा है। आखिर देश की 70 प्रतिशत जनता को विकास की मुख्यधारा से दूर रखकर हम एक मजबूत व विकसित राष्ट्र का सपना कैसे पूरा कर सकते हैं? देश की शैक्षिक स्थिति को किसी भी दल ने अपने मुख्य मुद्दों में शामिल नहीं किया है जबकि सभी को मालूम है कि पिछड़ेपन के लिए मूलरूप से अशिक्षा ही जिम्मेदार है। आज़ादी की आधी से ज़्यादा सदी बीतने के बाद भी हमारी सरकार में शिक्षा मंत्रालय का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, बल्कि वह मानव संसाधन विकास मंत्रालय का ही एक हिस्सा है। हम शिक्षा पर जीडीपी का 3 प्रतिशत से भी कम खर्च करते हैं, जबकि करोड़ों लोग आज भी निरक्षर हैं। आठवीं करने से पहले ही आधी लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं। हम चाहे चाँद पर घर बना लें, हर सड़क को एक्सप्रेस-वे में तब्दील कर दें, लेकिन जब तक समाज के हर बच्चे को शिक्षित नहीं करते, तब तक इस असंतुलित विकास का कोई मतलब नहीं है। अशिक्षा सामाजिक गैर-बराबरी के लिए मूलरूप से जिम्मेदार है और यहीं से वैमनस्यता की शुरुआत होती है। परंतु, जनता को अशिक्षित बनाये रखने में छिपे लाभ लेने के लिए हमारे नेता इस ओर आँखें मूंदे हैं तो कोई आश्चर्य नहीं है।
देश के लाखों गाँवों में सड़कें और बिजली न होने का मुद्दा भी चुनाव में नहीं है। जोकि गाँवों और देश के धीमे विकास का मुख्य कारण है। स्वास्थ्य के संबंध में भी स्थिति चिंताजनक है क्योंकि हमारे यहाँ मातृ-मृत्यु दर व शिशु-मृत्यु दर एक छोटे से देश श्रीलंका से भी ज्यादा है। टीकाकरण तथा परिवार नियोजन की स्थिति भी खराब हैं। जनसंख्या के बोझ से दबे अस्पताल लोगों को उपचार मुहैया कराने में विफल रहते हैं। एम्स सहित हर बड़े अस्पतालों के बाहर मरीजों की लंबी लाइन लगी है तो गंभीर रोगियों के लिए बैड़ उपलब्ध नहीं है। जो दो वक्त की रोटी नहीं जुटा सकते वे महंगे निजि अस्पतालों तक कैसे पहुंच सकते हैं इस बात से बेखबर देश के महान नेताओं बताओं कि चुनावी मौसम में अस्पतालों के निर्माण की योजनाए सामने आती है तो कुछ के शिलान्यास भी होते हैं पर अधिकांश योजनाएं परवान क्यों नहीं चढ़ पाती?
पिछले चुनावों के दौरान सौ दिन में महंगाई घटाने के वायदे के साथ सत्ता में आया दल इस मुद्दे पर खामोश है जबकि पिछले एक वर्ष में ही स्वयं उनकी ही सरकार दो बार 10 प्रतिशत़ $ 10 प्रतिशत महंगाई भत्ता बढ़ाकर स्वीकार कर चुकी है कि मात्र एक ही वर्ष में महंगाई कम-से-कम 20 प्रतिशत और बढ़ी है। सरकार की इस असफलता पर कोई भी जिम्मेवार नहीं है क्योंकि सरकार के वर्तमान मुखिया जनमत की बजाय जनपथ के प्रति उत्तरदायी रहे है। भविष्य में इस प्रकार की गैरजिम्मेदार प्रणाली दोहराई नहीं जाएगी, इसपर भी कोई कुछ कहने को तैयार नहीं है तो कैसे माना जाए कि उन दलों का दृष्टिकोण लोकतंत्रिक है?
सिंचाई और कृषि का चोली-दामन का साथ है, दुर्भाग्यवश इस चुनाव में सिंचाई कोई मुद्दा नहीं बना है जबकि कृषि उत्पादन लगातार घट रहा है और पूरे देश में विशेषकर महाराष्ट्र में सूखे के कारण पिछले कुछ वर्षो में अनेक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह विडम्बना है कि विदर्भ के किसानों की आत्महत्या से किसी दल के प्रांतीय गौरव को चोट नहीं पहुँची। लेकिन,दूसरे प्रदेशों के गरीब नौजवानों के शान्ति से काम करने पर उनकी निज अस्मिता खतरे में पड़ जाती है। उस पर सितम यह कि जो वर्षों अपने राज्य की सत्ता पर काबिज रहकर अपने युवकों के लिए उचित शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था नहीं कर सके वे ऐसी घटनाओं पर शोर मचाने में सबसे आगे नजर आते हैं।
‘कानून का शासन’ सुरक्षा का मुख्य आधार है और उसका मुख्य बिन्दु है मुकदमे का समय से ट्रायल। लेट ट्रायल के कारण ही 1984 के दंगों के अभियुक्तों को अभी तक सज़ा नहीं हो पायी। आज अदालतों व जजों की कमी तथा भारतीय अपराध व दंड संहिता के कुछ नियमों को बदलने जैसा महत्वपूर्ण विषय किसी भी पार्टी के एजेंडे में नहीं है। आज, लगभग तीन करोड़ से ज्यादा मामले लम्बित हैं जो हमारी लचर न्याय व्यवस्था और बदहाल प्रणाली के द्योतक हैं। सस्ती और वैकल्पिक ऊर्जा भी विकास के मामले में यह एक बड़ा मुद्दा होना चाहिए। पुरानी ऊर्जा परियोजनाएं दम तोड़ रही हैं जबकि ऊर्जा की निर्बाध सप्लाई के बिना आधुनिक विकास संभव ही नहीं है। इसके अलावा, बेरोज़गारी, सैन्य आधुनिकीकरण पर्यावरण- संरक्षण व नगर-विकास जैसे कुछ अन्य मूल मुद्दे भी हैं। लेकिन, प्राथमिकता के स्तर पर किसी का भी ध्यान इन पर नहीं है। क्या हम इस परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। क्या देश की जनता को इतना मूर्ख समझा जाता है कि वह इतने जरूरी मुद्दों को भुलाकर देश की संसद का चुनाव कर देगी। यदि हमें भारत को 21वीं सदी के विकसित राष्ट्र की कसौटी पर खरा उतारना है, तो फिर हमें स्वयं-ही अपने विवेक को खंगालना होगा कि हमें अब किन मुद्दों पर अपने प्रतिनिधियों को चुनना है। उन आधारभूत मुद्दों के आधार पर जो हमारे देश की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आज तो होड़ मची है आग उगलने की या फिर कौन गरीबों को किस भाव चावल देगा। लेकिन, किसी का ध्यान चावल और अन्य ज़रूरी चीजें खरीदने की आम आदमी की क्षमता विकसित करने की ओर नहीं है, तो आखिर क्यों? भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। ऐसे में यदि युवक बेरोजगार होगा तो विकास कैसे होगा। देश में विदेशी पूंजी निवेश के लिए मचल रहे हमारे ‘महान’ नेता युवा बेरोजगारों के मुद्दे पर मौन क्यों?
बढ़ती जनसंख्या के मुद्दे पर बोलते हुए जैसे सभी को जैसे काठ मार जाता है तो एक समान कानून की बात करना तक अपराध है। तुष्टीकरण अब मुद्दा ही नहीं रहा क्योंकि अब कोई भी दल इससे अछूता नहीं रहा। यह बेहद शर्मनाक होगा जब आदमी की पहचान उसकी योग्यता की बजाय उसकी जात या धर्म हो, हर आदमी महज एक वोट और उसका समुदाय वोट बैंक हो। अगर अब भी हमारे नेता कर्कशता भूलकर देश की सांस्कृतिक एकता और खुशहाली के लिए कार्य करना नही सीखे तो यह देश के लोकतंत्र के प्रति अपराध होगा। यदि वे आधारभूत मुद्दों की सुध ले तो इस देश का बच्चा-बच्चा कह उठेगा ‘नमो-नमो हिन्दुस्तान।’ वरना चेतावनी के रूप में याद रखें, दिनकर जी की ये पंक्तियाँ-
आजादी रोटी नहीं, पर दोनों में कोई बैर नहीं।
यदि भूख बेताब हुई, तो आजादी की खैर नहीं।।
कर्कशता से भटके आधारभूत मुद्दे-- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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