गुरु की नगरी अमृतसर----डा.विनोद बब्बर
अमृतसर कितनी बार गया ठीक से याद नहीं क्योंकि इस शहर से मेरा एक अलग तरह का जुड़ाव रहा है। कभी कुछ परिजन यहाँ रहा करते थे जो आतंकवाद के दौर में विस्थापित होकर अन्यत्र चले गए लेकिन मेा इस नगरी से नाता नहीं टूटा क्योंकि समय के साथ मेरे मित्रों की संख्या बढ़ती रही और अमृतसर आने के अवसर भी। अमृतसर के गुरुनानक देव विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे डॉ. हरमहेंद्र सिंह बेदी मेरे अभिन्न मित्र हैं। अब मित्रों से मिलने के लिए किसी बहाने की जरूरत ही किहाँ होती है। उनका घर तो हमेशा रास्ते में ही होता है। इस नगरी की एक विशेषता है कि यहाँ सभी पंजाबी हैं। सभी एक पिता की संतान हैं। स्वर्ण मंदिर में केशधारियो से ज्यादा सहजधारी जाते हैं। इनमें रोटी और बेटी की सांझ हैं। तीर्थ सांझे हैं। गुरु सांझे हैं तो त्यौहार भी सांझे हैं। इसीलिए तो कहा भी गया है, ‘दाल रोटी घर दी ते दिवाली अमृतसर दी’
पंजाब के इस सीमांत शहर को सिक्खों के चौथे गुरु रामदास ने अमृत सरोवर के किनारे अमृतसर की स्थापना की थी। इस पवित्र सरोवर के ठीक मध्य में बना गुरुद्वारा जिसे बाद में स्वर्ण-पतरों से मढ़ दिया गया, श्री हरमंदिर साहब या स्वर्ण मंदिर के नाम से जाना जाता है। सही मायनों में कहे तो श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर का मुकुट है, जहाँ प्रतिदिन देश-विदेश के लाखों लोग माथा टेकने आते है। अनेक त्रासदियों और दर्दनाक घटनाओं का गवाह रहे इस ऐतिहासिक नगर में जलियांवाला बाग़ भी है। ये वह स्थान है जो सबसे बड़े नरसंहार का गवाह रहा है। आज भी इसकी दीवारों पर गोलियों के निशान क्रूर जनरल डायर की हृदयहीनता का प्रमाण प्रस्तुत करते है। 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग़ में सभा कर रहे निहत्थे लोगों को घेर कर इसके एकमात्र छोटे से दरवाजे को बंद कर बिना चेतावनी के गोलियां चलाने का आदेश देने वाले 379 निर्दोषों के हत्यारे और अन्य हजारों को घायल करने वाले डायर के कारण खुद ब्रिटिश साम्राज्य भी सारी दुनिया के सामने बेनकाब हो गया था। राष्ट्रीय स्मारक बने इस पावन स्थल का गेट अब बड़ा कर दिया गया लेकिन मैंने पिछले तीस वर्षों में छोटे गेट से बदलते जलियावाला बाग के स्वरूप को देखा है। यहाँ बना संग्रहालय उन अमर शहीदों को श्रद्धा से स्मरण करता है जिन्होंने आजादी को लौ को अपना बलिदान देकर भी बुझने नहीं दिया। मेरे लिए अमृतसर किसी महातीर्थ से कम नहीं है। हर बार सबसे पहले स्वर्ण मंदिर की देहरी पर सिर झुकाकर स्वतंत्रता के तीर्थ जलियावाला बाग में स्थित शहीद स्मारक को प्रणाम करना और फिर दुर्गियाना मंदिर के दर्शनों के बाद ही अपने गन्तव्य पर रवाना हुए।
इतिहासकार अमृतसर को रामायण काल से भी जोड़ते है। श्रीरामचन्द्र के पुत्र लव तथा कुश का जन्म स्थल राम तीर्थ माना जाता है। उस समय यहाँ घने जंगल थे। लव और कुश एक बार सरोवर के तीर पर कुछ समय के लिए ठहरे थे। गुरु नानकदेव जी महाराज ने भी इस स्थान के प्राकृतिक सौंन्दर्य से आकृष्ट होकर यहाँ के एक वृक्ष तले विश्राम व ध्यान किया था। ऐसा विश्वास है कि वह वृक्ष आज भी स्वर्ण मंदिर के पवित्र सरोवर के तट पर विराजमान है। गुरु रामदास जी स्वयं यहाँ पर आकर रहने लगे। इस समय इसे रामदासपुर या चक-रामदास कहा जाता था। कहा जाता है, कि सरोवर के पवित्र जल में स्नान करने से एक कौवे के पर श्वेत हो गए, एक रोगी का कोढ़ दूर हो गया तो हजारों लोग यहाँ आने लगे और इस तरह बसते-बसते अमृतसर ने विशाल रूप धारण कर लिया। इस नगर ने अफ़ग़ान और मुग़लो के अनेक आक्रमण झेले। अनेक बार इस नगरी को बर्बाद किया गया लेकिन दृढ संकल्प और मज़बूत हौसले वाले पंजाबियों ने इसे हर बार पहले से बेहतर बसाया, सजाया। 1849 में अमृतसर को ब्रिटिश भारत में मिला दिया गया। समय के साथ अमृतसर में अनेक बदलाव देखने को मिलते हैं लेकिन ‘अमृसतर सिफ्ती दा घर’ वाली अवधारणा और गरिमा जस की तस बरकरार है।
अकाल तख्त, स्वर्ण मंदिर एवं पवित्र सरोवर विशाल परिसर के मध्य स्थित है, जिसका मुख्य प्रवेशद्वार उत्तर दिशा में है। इस द्वार पर एक घंटाघर बना है। सिक्ख परम्परा के अनुसार हरमंदिर साहिब में प्रवेश करते समय सिर ढकना आवश्यक है। अंदर सरोवर के आसपास संगमरमर का बना परिक्रमा पथ है। इस परिसर में दिनभर गुरुवाणी की कर्णप्रिय गूंज सुनाई देती रहती है। परिसर में और भी अनेक महत्त्वपूर्ण भवन एवं छोटे गुरुद्वारे हैं। इनमें सबसे प्रमुख अकाल तख्त है। सिक्खों की धार्मिक सत्ता का पांच प्रमुख केंद्र श्री अकाल तख्त साहिब तथा श्री हरमंदिर साहिब, श्री आनंदपुर साहिब, श्री पटना साहिब, श्री संचखंड हजूर साहिब नांदेड़ है। 1708 में जब गुरु गोविन्द सिंह महाराज द्वारा नांदेड़ साहिब में व्यक्तिगत गुरुओं की परंपरा समाप्त करने और श्री गुरुग्रंथ साहिब को गुरु सी सर्वोच्चता प्रदान करने के पश्चात व्याख्या संबंधित किसी भी विवाद को सम्पूर्ण सिक्ख समुदाय यहाँ होने वाली वार्षिक या अर्द्ध वार्षिक बैठकों में सर्वसम्मति से निपटाते थे। जो गुरुमत (गुरुओं का निर्णय) बन सभी सिक्खों पर लागू होते हैं। अकाल तख्त की महत्ता इतनी रही है कि महाराजा रणजीत सिंह तक को उसका आदेश मानते हुए हर सजा स्वीकार करना पड़ा था। यहीं कोठा साहिब है, जहाँ श्रीगुरु ग्रंथ साहिब को रात्रि के समय सुखासन के लिए लाया जाता है। प्रातःकाल तीन बजे यहीं से गुरु ग्रंथ साहिब की सवारी उसी सम्मान से हरिमंदिर साहिब ले जाई जाती है। अकाल तख्त के सामने दो निशान साहिब भी स्थापित हैं। अकाल तख्त के गुंबद पर भी सुनहरी चमक मौजूद है।
दुर्गियाना मंदिर पंजाब के प्रमुख हिंदू मंदिरों में से है, जो अमृतसर में स्थित है। दुर्गियाना मंदिर का नाम देवी दुर्गा के नाम पर रखा गया है। वैसे इसे लक्ष्मी नारायण मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण गुरु हर्सेमल कपूर ने करवाया। यहाँ भी पवित्र सरोवर के बीचोबीच मंदिर है। लोहगढ़ गेट के पास स्थित दुर्गियाना मंदिर अपनी नक्क़ाशीदार चांदी के दरवाज़े के लिए भी प्रसिद्ध है। मंदिर परिसर में सीता माता और बारा हनुमान जैसे कुछ ऐतिहासिक मंदिर हैं। कहा जाता है कि कभी स्वर्ण मंदिर के गलियारे में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ थी। उस समय महंतों का दौर था। महंतों के व्यवहार से श्रद्धालुओं में रोष बढ़ने पर महंतों के साथ-साथ मूर्तियाँ भी हटा दी गई।
अमृतसर तो स्वयं में ही आकर्षण है लेकिन उसके सबसे बड़े आकर्षणों में शामिल है खालसा कालेज। अमृतसर-लाहौर राजमार्ग पर 1892 में 300 एकड़ में स्थापित यह कालेज अपनी भव्यता में किसी महल को भी मात करता है। ब्रिटिश शासन के दौरान उच्च शिक्षा संस्थान के लिए बनाये गए खालसा कालेज के लिए सिंह सभा आंदोलन और चीफ खालसा दीवान ने भूमि दान करने के लिए अमृतसर, लाहौर के धनवानों और महाराजाओं से भूमिदान में ली तथा धन जुटाया। इसका डिजाइन अपने समय के जाने-माने वास्तुकार भाई राम सिंह ने बनाया था। 1911-12 में बनकर तैयार हुई ब्रिटिश, मुगल और सिख वास्तुकला की इस भव्य इमारत को आरंभ में कोट खालसा नाम दिया गया। अनेक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों, राजनीतिक नेताओं, सशस्त्र बलों के जनरलों, वैज्ञानिकों, प्रसिद्ध खिलाड़ियों ओलम्पियनों, अभिनेताओं, लेखकों, पत्रकारों और विद्वानों का शिक्षण स्थल रहा इस कालेज का देश की आजादी के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। खास बात यह है कि अनेक फिल्मों की शूटिंग इस कालेज के परिसर में हुई जिसमें पिछले दिनों प्रदर्शित फिल्म वीर-जारा भी शामिल है। मेरे लिए यहाँ अनेको बार जाना हुआ क्योंकि इसके ठीक सामने कबीर पार्क में डॉ. बेदी का निवास है।
अमृतसर से लगभग 30 किमी की दूरी पर ग्राण्ड ट्रंक रोड जो भारत और पाकिस्तान को जोड़ती है। उसी सड़क पर वाघा बॉर्डर है। पिछले दिनों अपने अमृतसर आए तो अटारी बार्डर जाने का कार्यक्रम भी बना। हर शाम यहाँ गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति भवन के प्रागंण में होने वाला ‘बीटिंग रिट्रिट’ जैसा भव्य कार्यक्रम होता है। उसे देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती है। अटारी के उस पार का क्षेत्र भी कभी हमारा ही था लेकिन अंग्रेजों की फूट डालों और राज करो की नीति ने पंजाब की धरती को दो फाड़ कर दिया। हमारा ही अभिन्न अंग रहा पाकिस्तान अपने जन्म से लगातार हमें तनाव देता रहा है। भारत के शांतिप्रिय लोग तो इस तनाव की समाप्ति की कामना करते हैं लेकिन ‘नापाक’ सरकारे ऐसा हर्गिज नहीं चाहती।
अटारी बॉर्डर से कुछ दूरी पहले ही सभी गाड़ियाँ रोक दी गई। आगे पैदल जाना पड़ा। सड़क के किनारे पाकिस्तान जाने वाले ट्रकों की कम से कम एक किमी लंबाई तक लाइन थी। इन अधिकांश ट्रकों में प्याज, आलू आदि के बोरे लदे हुए मिले। यहाँ स्कैनर मशीन से इनकी जांच की व्यवस्था है वरना हर बोरे को खोलकर जाँचना तो बहुत टेढ़ी खीर होता। सामने स्वर्ण जयंती द्वार दिखाई दिया जिसके बाद कुछ कदम की दूरी पर एक और द्वार के पार पाकिस्तान है। स्वर्ण जयंती द्वार के पास स्टेडियम जैसी सीढ़ियां बनी हैं जिनपर बैठ कर लोग परेड देखते है। परेड़ तो साढ़े पांच से छः बजे के बीच में होती है लेकिन लोग अच्छी सीट की उम्मीद में शाम को तीन बजे से आकर बैठने लगते हैं ताकि परेड का लुत्फ उठा सकें। आश्चर्य हुआ कि गर्मी और बरसात के दिनों में भी भीड़ कम नहीं होती जब बिना सिर पर छत के, यहाँ सीमेंट की बैंच पर बैठ कर लोग घंटांे इंतज़ार करते है। सरकार के स्तर पर यहाँ सुविधाएं बढ़ाने के बारे में सोचा जाना चाहिए।
लगभग पौने पांच बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो सारी बैंच ठसाठस भरी थीं। लेकिन हमारे पास ‘विशेष प्रेस पास’ होने के कारण हमें निर्धारित स्थान पर बैठाया गया। परेड़ के दृश्यों को अपने कैमरे में कैद करने के लिये मुझे जो सर्वश्रेष्ठ स्थान मिला मैं वहाँ पहुंँचा। अंदर जश्न का माहौल बना हुआ था। देशभक्ति गीत बज रहे थे। युवा, प्रौढ़ ही नहीं वृद्ध और बच्चे भी बड़े उत्साह से हाथों में तिरंगा लिए ‘भारत माता की जय’, ‘वंदे मातरम्’, के नारे लगा रहे थे। इसी बीच कुछ युवतियाँ और स्कूली बच्चे अपनी सीट छोड़ कर सड़क पर नृत्य करने लगे। एक पल को लगा जैसे हम किसी सांस्कृतिक कार्यक्रम में हो।
मुझे जो दूर तक दिखाई दे रहा था, उसमें पाकिस्तानी गेट के उस पार भी एक स्टेडियम नज़र आ रहा था लेकिन उस पार मात्र तीस-चालीस दर्शक हीद बैठे हुए दिखाई दे रहे थे। इधर का उत्साह और उस पार की खामोशी पाकिस्तानी शासकों की गलत नीतियों की दास्तां बयां कर रही थी जो शांतिप्रिय और बेहतर समाज के निर्माण में असफल रहा है। निर्धारित समय से दो मिनट पूर्व बीएसएफ के मेजर ने सभी से अपने-अपने स्थान पर बैठने का अनुरोध किया तो नृत्य में मस्त बच्चे और युवतियाँ तेजी से दौड़े। इसी बीच सीमा सुरक्षा बल (बी.एस.एफ.) के कुछ जवान खूबसूरत पगड़ी बांधे हुए सावधान की मुद्रा में खड़े दिखाई दिए। थे। इनमें दो महिला जवान सबसे आगे थीं। जब धरती पर पैर पटक कर वह दोनों तेजी से कदमताल करती हुईं पाकिस्तान के द्वार की ओर बढ़ीं तो जनता में उत्साह की लहर दौड़ गई। भारतीय दर्शक अपनी आवाज के माध्यम से अपना संदेश देश के दुश्मनों तक भी पहुँचाना चाहते थे। संदेश स्पष्ट था, ‘चाहे जितना जोर लगा लो! सबसे आगे हम है हिन्दुस्तानी!” वैसे मैंने एक बार पाकिस्तानी की यात्रा कर चुके अपने मित्र से पूछा भी था कि लाहौर जो बार्डर से मात्र 24 किमी दूर है, क्या अटारी से मेरे भारतीयों भाईयों की हुंकार लाहौर तक पहुँचती है। तो उनकी मुस्कुराहट बता रही थी कि आवाज पहुँचे या न पहुँचे पर संदेश अवश्य पहुँचता है।
सामने कदमताल करते जवान पाकिस्तानी सीमा की ओर बढ़ते दिखाई दे रहे थे किन्तु एक पेड़ आगे के दृश्य को बाधित कर रहा था। लेकिन वहाँ क्या हुआ होगा इसकी जानकारी मुझे थी। जैसे ही सूर्यास्त होता हैं, दोनों तरफ के गेट खोल दिए जाते हैं और दोनों देशों के राष्ट्रध्वज को सम्मान के साथ उतारा जाता है। दोनों देश के जवान एक-दूसरे से हाथ मिलाते है। उस समय दोनों ओर के सैनिकों की भाव-भंगिमाए देखने योग्य होती हैं। छः बजे हमारे जवान उतनी ही चुस्ती-फुर्ती के साथ कदमताल करते हुए वापिस आये तो जनता ने जोरदार स्वागत किया। पाकिस्तान-भारत के मध्य का गेट बन्द कर दिया गया। कार्यक्रम के संपन्न हो जाने की घोषणा के बादद लोगों में सैनिकों से हाथ मिलाने की होड़ लग गई। बुलंद आवाज वाले मेजर की प्रस्तुति कार्यक्रम का एक आकर्षण थी। उन्हें बधाई देते मैंने जब देश का रक्षामंत्री बनने की कामना की तो उसने श्रद्धा से मेरे चरण स्पर्श करते हुए कहा, ‘मेरे लिए आपका आशीर्वाद ही बहुत बड़ा सम्मान है।’ सभी वापसी के लिए तैयार थे। देशभक्ति का सागर हिलोरे लेता हुआ अहसास करवा रहा था कि हम सब लोग एक ही माँ की संतान हैं और उस मां का नाम है- भारत माता! वह शाम वाघा बॉर्डर पर हमारे लिए एक यादगार शाम बन गयी।
यह याद दिलाना आवश्यक है कि अमृतसर के व्यंजन पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। केसर का ढ़ाबा, ज्ञान की लस्सी की चर्चा तो लंदन और अमेरिका में भी होती है। देशभर में अमृतसरी नान की छाया हुआ है। ऐसे भी बहुत से लोग हैं जिन्होंने शायद ही कभी अमृतसर देखा हो लेकिन देश के नगरों- महानगरों में ‘अमृतसर के मशहूर नान’ का बोर्ड लगाये अपनी रोजी-रोटी कमा रहे है। वैसे मक्के दी रोटी ते सरसों दा साग, लारेंस रोड की टिक्की, भल्ले बेहद स्वादिष्ट है। और हाँ, मसालेदार अमृतसरी पापड़, वढ़िया साथ लेकर नहीं आए तो समझो अधूरी रही गुरु की इस नगरी की यात्रा।
गुरु की नगरी अमृतसर----डा.विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
on
22:15
Rating:
No comments