व्यंग्य-----बावले बाबा संग होली के रंग-- डा. विनोद बब्बर
ऊपर वाले का भी जवाब नहीं। अपनी कूची से अपनी बनाई दुनिया में इतने रंग और रस भर दिये कि आदमी आदमी की बजाय काका, मामा, पापा, चाचा, नाना, दादा, तो कभी बाबा या बब्बर हो जाता है। गजब तो तब होता है जब बाबा की भी कई बैरायटियां सामने आती है। जैसे योगी बाबा, भोगी बाबा, ढ़ोंगी बाबा, दाढ़ी बाबा, गाड़ी बाबा, चाउल बाबा, राहुल बाबा, घर के बाबा, बाहर के बाबा, रेल बाबा, जेल बाबा, टाट बाबा, बाट बाबा, चाट बाबा। अब कहाँ तक गिनाये। मेरा ख्याल है सीधे-सीधे अपना परिचय देना ही ठीक रहेगा। अपुन भी बाबा हैं लेकिन इन बाबाओं से अलग जमती है अपनी धूनी। वैसे बता दे कि कानपुर के कोयला बाबा से अपुन का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। हम तो बस बाबा हैं, अपुन की होली का भी रंग अलग है। परिचय की बात है तो साफ-साफ सुनलो -
बावला बाबा हूँ गीत प्रेम के गाया करता हूँ ,
गलत-सही का भी संकेत किया करता हूँ ।
लगी हो आग तो जोर-जोर से चिल्लाता हूँ ,
हाथ सेकने वालों को सबक सिखया करता हूँ।।
वैसे अपुन कवि है। ध्यान से देख-सुन लेना, कवि कहा है, कपि नहीं। एक अंदर की बात बता दूं जो कपि नहीं हो पाता वह कवि हो जाता है। जिससे डाल- डाल, उछला-कूदा न जाए वह कवि बनकर पात-पात शब्दों को उछालता है, नये-नये अथे प्रस्तुत कर शब्दजाल में सबको उलझाता है। ठीक उसी तरह से जैसे जो आम जिंदगी में कुछ ‘कार्य नहीं करता‘ वह किसी राजनैतिक दल में शामिल होकर कार्यकरता (कार्य-कर्ता बन जाता) है। राजनीति की बात चली है तो डर सा लगने लगता है। सुना है महाभारत का एलान हो चुका है। अब गली-गली कुरूक्षेत्र होगा लेकिन न तो कहीं कृष्ण होगा और न ही धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल सुनाने वाला संजय होगा। ऐसे में यह जिम्मेवारी यह बाबा स्वीकार रहा है। दाढ़ी वाला हूँ, दांडी मार्च वाले बाबा के प्रदेश का जो दाढ़ी वाला देशभर में दहाड़ता फिर रहा है उसे तो खूब सुनते हो। चंदा देकर सुनते हो, धंधा छोड़कर सुनते हो, आज फंसे हो इसलिए मेरी भी सुननी पड़ेगी।
वैसे आज राजनीति के अतिरिक्त किसी अन्य खेल में मजा आता ही कहाँ है? लाख उपमा, अलंकार की बात करो, लोग समझने को तैयार ही कहाँ है? अरे मेरे चेहरे पर तो दाढ़ी है और इस में बहुत खूबियाँ भी हैं। पता न हो तो वो भी बता देता हूँ -
दाढ़ी में गुण बहुत हैं, रख देखो श्रीमान।
चिकने चुपड़े बेअसर, दाढ़ी खींचे ध्यान।।
दाढ़ी खींचे ध्यान, सदा ही मान दिलाये।
महंगाई के दौर में, नकद लाभ पहुंचायें।।
कह किंकर समझाय, बने क्यों फिरें अनाड़ी।
फैशन-वैशन छोड़कर, तू भी ,बढ़ा लेे दाढ़ी।।
लोग तो खोटे मुखोटे चढ़ाके घूमते है। बहलाते हैं, फुसलाते है। लेकिन होली पर रंगों की बारात में जिसे देखों वही रंगों ऐसा खो जाता है कि हर चेहरे पर मुखोटा नजर आता है। होली पर आओं हम भी इन रंगों संग झूमे रंगों की फुलवारी में। क्या आश्चर्य है कि रंग-बिरंगी दुनिया पाकर मनुष्य संतुष्ट नहीं रहता। उसके मन-मस्तिष्क में उठती तंरगें इतने रंग बदलती है कि न केवल उसका बल्कि दूसरों के रंग में भंग पड़ने लगता है। कभी सारी दुनिया को केवल अपने ही रंग में रंगने की जिद्द ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया। इतिहास के काले रंग से रंगे सैंकड़ों हजारों पन्ने खुद गवाही देते हैं कि दूसरों को अपना गुलाम बनाने के लिए इंसान इतना गिर गया कि पशुता भी शर्मांदा हो उठी। इतिहास के सैंकड़ों पन्ने पर सुनहरी रंग से लिखे उन नामों को स्मरण कर गौरवांवित होते हैं जिन्होंने अपने खून की लालिमा से अपनी मातृ-भूमि का ऋण चुकाया। क्या लोग थे वे दीवाने। लेकिन आज नक्सलवाद, आतंकवाद निर्दोषों के लहू से भारत माता का वक्ष स्थल रंग रहा है। ऐसे में जरूरत है उस रंग की जो भारत की तस्वीर को उजला कर सके।
रंगों की बारात में मेरे साथ नाचते-झूमते आप भी अपने अंदर झांक कर देखोगे तो पाओंगे कि प्रेम और नफरत, उदारता और स्वार्थ, श्रमशीलता और आलस्य, बचपन और बुढ़ापा, पवित्रता और कामुकता, बाबागिरी और नेतागिरी तक आखिर कौन सा रंग नहीं है इस डेढ़ पसली के आदमी में। अपने आपसे बाहर निकल कर जरा बाहर झांके तो प्रातः की लालिमा बिखेरते भगवान सूर्य हमारा स्वागत करते नजर आयेगे। घर से बाहर पार्क, बाग, बगीचों में बिखरी हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों का अपना सौंदर्य है। पेड़-पौधों पर लगे फल, फूल रंगों की एक मिसाल हैं। अनगिनत रंगों की सौगात लिये मानव मन को सौंदर्य के साथ अपनी खुश्बु भी बिखरने का संदेश देते इन फूलों को सभी सराहते हैं लेकिन दिल पर हाथ रखकर कहो कि इनसे सीखने वालों में क्या आपका नाम भी है?
महकते फूलों के बाद जरा चहकते परिंदों की ओर देखों। सफेद कबूतर, हरा तोता, काला कौआ, नीला मोर, मटमैली गौरेया तो मात्र कुछ प्रतीक हैं, गिनने-गिनाने लगे तो शब्द कम पड़ जायेगे लेकिन रंगों के पंखों की फड़फड़ाहट जारी रहेगी। क्या इन रंग-बिरंगे पंखों के साथ आपको कोयल की कूक, पपीहे का गान, मोर की आवाज सुनाई देती है जो रंगों को वाणी का सौंदर्य प्रदान करते हैं।
रंग तो बाजार में भी बहुत है। सब्जी मंडी से अनाज मंडी तक रंगों की भरमार है। जब मौसम अनुकूल हो तो हरी सब्जियाँ चेहरे के रंग बरकरार रखती हैं लेकिन कभी-कभी प्याज जरूर आँखें लाल कर देता है और वह भी तब, जब जिम्मेवार लोग अपनी आँखों पर काली पट्टी बाँध लेते हैं। यहाँ सफेद मूली, लाल गाजर, पीला सीताफल, बैंगन सहित कितने रंग हैं, कहना मुश्किल है लेकिन सभी मचल रहे हैं आपकी थाली की शोभा बनने के लिए। होड़ लगी है परोपकार में स्वयं को प्रस्तुत करने की और साथ ही साथ यह चेतावनी भी कि यदि जल्द से जल्द मुझे अपनी सेवा का मौका न दिया गया तो मैं स्वयं ही नष्ट हो जाऊंगा। अनाज मंडी में भी रंगों का टोटा नहीं है। सफेद चावल, लाल मसूर, हरा मूंग , काली उड़द, पीली अरहर, आखिर कौन सा चाहिए। अजीब बात तो यह है कि यहाँ आकर बिकने वाला राशन का गेंहू काला कहलाने लगता है जबकि लाला लाल ही बना रहता है। क्या इसे खादी और खाकी रंग के वरद हस्त का परिणाम कहा जाए?
इधर बहुत चर्चा है काले धन की। भगवे बाबा तक उछल रहे है लेकिन मंत्री जी मस्ती से कागज नीले पीले करते रहते हैं। काला घोड़े वाले को जानते हैं आप? लगता है आप काले घोड़े की नाल बेचने वाले के फेर में हैं। कहते है काले घोड़े की नाल से बनी अंगुठी पहनने से संकट टल जाते हैं लेकिन सुना है काले घोड़े वाला ही खुद संकट में है। घोड़ा काला लेकिन घोड़ी सफेद ही शोभा पाती है इसीलिए तो सजी-धजी सफेद घोड़ी पर हाथ में तलवार, सिर पर मुकुट बांधे दुल्हे महाराज के चेहरे की रंगत देखते ही बनती है। खुद को खुदा समझने वाले को जल्दी ही आटे दाल का भाव मालूम हो जाता है तो चेहरे पर नित नये रंग देखे जा सकते हैं। जब कभी तनाव और गृहस्थी संभालने के बोझ तले दबे होने के कारण शेविंग की भी सुध नहीं रहती तो बड़ी हुई दाढ़ी अच्छो-अच्छों का मंुह काला कर देती है। बच्चों की मांगे सुरसा की तरह बढ़ने लगी तो जनाब सहानुभूति के लिए अपनी अर्द्धागिनी की ओर देखते हैं लेकिन कभी कमलनयनी रही मैडम के नयनों से दहकत ंशोले उसे ज्वालामुखी का रूप प्रदान करते हैं। अब आप ही बताओं, जनाब का रंग पीला पड़ने से कैसे रोका जा सकता है? और हाँ, शादी के कुछ सालों बाद ही बेचारे की कुल जमा छ पेंट- कमीजों के रंग एकाकार होने लगते हैं जबकि मैडम की साड़ियों की ‘वाईड रेंज’ में मौजूद हर रंग के बाद भी संतोष का खुशनुमा रंग ढूंढने पर भी नहीं मिलता। बच्चे पढ़ाते-निपटाते साहब तो सफेदी ओढ़ लेते हैं लेकिन मलिका पुखराज अपने बालों की कालिख किसी न किसी तरह बरकरार रख ही लेती है।
जिनके पास काली-पीली कमाई आती है वे अलग ही पहचाने जाते हैं। उनकी कोठी में रंग बिरंगी कारों का काफिला देखकर भ्रम होता है कि कारों का बाजार है या सर्विस स्टेशन? द्वार पर खाकी रंग को देखकर विश्वास करना ही पड़ता है ‘नेताजी का बंगला ही होगा!’
सुनाते हैं रंग तो महज सात ही होते हैं। सोचता हूँ फिर ये हजारों रंगों कहाँ से आये? क्या जरूरत थी इनकी जबकि गायब है प्रेम और शांति का रंग। गुणी जन कहते है कि सातों रंगों को मिला देने से जो रंग बनता है वह सफेद होता है। सफेद यानी सद्भावना। हाँ, सभी का एकाकार हो जाना ही तो शांति की सबसे पहली शर्त है। दूध और पानी की तरह, अपना आस्तित्व समुद्र में विलिन करती नदियों की तरह। आश्चर्य होता है कि शांति के नाम पर दुनिया भर में विभिन्न रंगों की खाक छानने वाले इतनी सीधी सी बात क्यों नहीं समझते। वे शांति तो चाहते हैं लेकिन मरघट सी। जैसी कभी हिरणाकश्यप ने चाही थी। स्वयं अपने ही पुत्र को मार कर शांति चाहने वाले को होलिका मिल गयी। आज भी तो ऐसे लोगों की कमी नहीं है। वे कहाँ समझते हैं कि मरघट में धुआ और धूल होती है, क्रंदन होता है लेकिन कभी किलकारी नहीं होती। छनछनाहट और खनखनाहट नहीं होती और न ही होती है शहनाई, ढोल, ताशे की मंगल ध्वनि। क्या शांति के ऐसे रंग का कोई स्वागत करना चाहेगा? नहीं, हर्गिज नहीं! सभी को चाहिए काश्मीर के केसर की खुश्बु, रंग- बिरंगे फूलों को चहकते भोले-भाले बच्चें, प्रगति के रंग बिखेरता हुआ भारत!
कहने को बहुत कुछ है लेकिन आपसे बार-बार मिलने की चाह है इसलिए शेष फिर। शायद आपको लगेे कि बाबा को होली पर जरा ज्यादा चढ़ गई है तो बता दूं, होली पर रंग संग कीचड़ भी चलता है। लेकिन ध्यान रहे-
भंग का रंग चढ़े पर रंग में भंग न हो।
रंग खेलने से पहले समझ लो -
देखो मुझ पर रंग न डालो,
डालो तो यूँ डालो, हम-तुम वे सब
ये सारा जग इक रंग में रंग जाये।
जैसे चटक चांदनी सारी है छिति को चमकाती,
जैसे रजनीगंधा सारे उपवन को महकाती ,
एक सुरीला गीत लुभाता है सारी महफ़िल को,
जैसे वसुंधरा सारे जग की माता कहलाती।
भिन्न-भिन्न नदियों का जल मिल ज्यों सुरसरी कहलाये।
हम-तुम वे सब ,ये सारा जग इक रंग में रंग जाये।
होली की अनंत शुभकामनाओं सहित - बावला बाबा
बावला बाबा हूँ गीत प्रेम के गाया करता हूँ ,
गलत-सही का भी संकेत किया करता हूँ ।
लगी हो आग तो जोर-जोर से चिल्लाता हूँ ,
हाथ सेकने वालों को सबक सिखया करता हूँ।।
वैसे अपुन कवि है। ध्यान से देख-सुन लेना, कवि कहा है, कपि नहीं। एक अंदर की बात बता दूं जो कपि नहीं हो पाता वह कवि हो जाता है। जिससे डाल- डाल, उछला-कूदा न जाए वह कवि बनकर पात-पात शब्दों को उछालता है, नये-नये अथे प्रस्तुत कर शब्दजाल में सबको उलझाता है। ठीक उसी तरह से जैसे जो आम जिंदगी में कुछ ‘कार्य नहीं करता‘ वह किसी राजनैतिक दल में शामिल होकर कार्यकरता (कार्य-कर्ता बन जाता) है। राजनीति की बात चली है तो डर सा लगने लगता है। सुना है महाभारत का एलान हो चुका है। अब गली-गली कुरूक्षेत्र होगा लेकिन न तो कहीं कृष्ण होगा और न ही धृतराष्ट्र को आंखों देखा हाल सुनाने वाला संजय होगा। ऐसे में यह जिम्मेवारी यह बाबा स्वीकार रहा है। दाढ़ी वाला हूँ, दांडी मार्च वाले बाबा के प्रदेश का जो दाढ़ी वाला देशभर में दहाड़ता फिर रहा है उसे तो खूब सुनते हो। चंदा देकर सुनते हो, धंधा छोड़कर सुनते हो, आज फंसे हो इसलिए मेरी भी सुननी पड़ेगी।
वैसे आज राजनीति के अतिरिक्त किसी अन्य खेल में मजा आता ही कहाँ है? लाख उपमा, अलंकार की बात करो, लोग समझने को तैयार ही कहाँ है? अरे मेरे चेहरे पर तो दाढ़ी है और इस में बहुत खूबियाँ भी हैं। पता न हो तो वो भी बता देता हूँ -
दाढ़ी में गुण बहुत हैं, रख देखो श्रीमान।
चिकने चुपड़े बेअसर, दाढ़ी खींचे ध्यान।।
दाढ़ी खींचे ध्यान, सदा ही मान दिलाये।
महंगाई के दौर में, नकद लाभ पहुंचायें।।
कह किंकर समझाय, बने क्यों फिरें अनाड़ी।
फैशन-वैशन छोड़कर, तू भी ,बढ़ा लेे दाढ़ी।।
लोग तो खोटे मुखोटे चढ़ाके घूमते है। बहलाते हैं, फुसलाते है। लेकिन होली पर रंगों की बारात में जिसे देखों वही रंगों ऐसा खो जाता है कि हर चेहरे पर मुखोटा नजर आता है। होली पर आओं हम भी इन रंगों संग झूमे रंगों की फुलवारी में। क्या आश्चर्य है कि रंग-बिरंगी दुनिया पाकर मनुष्य संतुष्ट नहीं रहता। उसके मन-मस्तिष्क में उठती तंरगें इतने रंग बदलती है कि न केवल उसका बल्कि दूसरों के रंग में भंग पड़ने लगता है। कभी सारी दुनिया को केवल अपने ही रंग में रंगने की जिद्द ने साम्राज्यवाद को जन्म दिया। इतिहास के काले रंग से रंगे सैंकड़ों हजारों पन्ने खुद गवाही देते हैं कि दूसरों को अपना गुलाम बनाने के लिए इंसान इतना गिर गया कि पशुता भी शर्मांदा हो उठी। इतिहास के सैंकड़ों पन्ने पर सुनहरी रंग से लिखे उन नामों को स्मरण कर गौरवांवित होते हैं जिन्होंने अपने खून की लालिमा से अपनी मातृ-भूमि का ऋण चुकाया। क्या लोग थे वे दीवाने। लेकिन आज नक्सलवाद, आतंकवाद निर्दोषों के लहू से भारत माता का वक्ष स्थल रंग रहा है। ऐसे में जरूरत है उस रंग की जो भारत की तस्वीर को उजला कर सके।
रंगों की बारात में मेरे साथ नाचते-झूमते आप भी अपने अंदर झांक कर देखोगे तो पाओंगे कि प्रेम और नफरत, उदारता और स्वार्थ, श्रमशीलता और आलस्य, बचपन और बुढ़ापा, पवित्रता और कामुकता, बाबागिरी और नेतागिरी तक आखिर कौन सा रंग नहीं है इस डेढ़ पसली के आदमी में। अपने आपसे बाहर निकल कर जरा बाहर झांके तो प्रातः की लालिमा बिखेरते भगवान सूर्य हमारा स्वागत करते नजर आयेगे। घर से बाहर पार्क, बाग, बगीचों में बिखरी हरियाली और रंग-बिरंगे फूलों की क्यारियों का अपना सौंदर्य है। पेड़-पौधों पर लगे फल, फूल रंगों की एक मिसाल हैं। अनगिनत रंगों की सौगात लिये मानव मन को सौंदर्य के साथ अपनी खुश्बु भी बिखरने का संदेश देते इन फूलों को सभी सराहते हैं लेकिन दिल पर हाथ रखकर कहो कि इनसे सीखने वालों में क्या आपका नाम भी है?
महकते फूलों के बाद जरा चहकते परिंदों की ओर देखों। सफेद कबूतर, हरा तोता, काला कौआ, नीला मोर, मटमैली गौरेया तो मात्र कुछ प्रतीक हैं, गिनने-गिनाने लगे तो शब्द कम पड़ जायेगे लेकिन रंगों के पंखों की फड़फड़ाहट जारी रहेगी। क्या इन रंग-बिरंगे पंखों के साथ आपको कोयल की कूक, पपीहे का गान, मोर की आवाज सुनाई देती है जो रंगों को वाणी का सौंदर्य प्रदान करते हैं।
रंग तो बाजार में भी बहुत है। सब्जी मंडी से अनाज मंडी तक रंगों की भरमार है। जब मौसम अनुकूल हो तो हरी सब्जियाँ चेहरे के रंग बरकरार रखती हैं लेकिन कभी-कभी प्याज जरूर आँखें लाल कर देता है और वह भी तब, जब जिम्मेवार लोग अपनी आँखों पर काली पट्टी बाँध लेते हैं। यहाँ सफेद मूली, लाल गाजर, पीला सीताफल, बैंगन सहित कितने रंग हैं, कहना मुश्किल है लेकिन सभी मचल रहे हैं आपकी थाली की शोभा बनने के लिए। होड़ लगी है परोपकार में स्वयं को प्रस्तुत करने की और साथ ही साथ यह चेतावनी भी कि यदि जल्द से जल्द मुझे अपनी सेवा का मौका न दिया गया तो मैं स्वयं ही नष्ट हो जाऊंगा। अनाज मंडी में भी रंगों का टोटा नहीं है। सफेद चावल, लाल मसूर, हरा मूंग , काली उड़द, पीली अरहर, आखिर कौन सा चाहिए। अजीब बात तो यह है कि यहाँ आकर बिकने वाला राशन का गेंहू काला कहलाने लगता है जबकि लाला लाल ही बना रहता है। क्या इसे खादी और खाकी रंग के वरद हस्त का परिणाम कहा जाए?
इधर बहुत चर्चा है काले धन की। भगवे बाबा तक उछल रहे है लेकिन मंत्री जी मस्ती से कागज नीले पीले करते रहते हैं। काला घोड़े वाले को जानते हैं आप? लगता है आप काले घोड़े की नाल बेचने वाले के फेर में हैं। कहते है काले घोड़े की नाल से बनी अंगुठी पहनने से संकट टल जाते हैं लेकिन सुना है काले घोड़े वाला ही खुद संकट में है। घोड़ा काला लेकिन घोड़ी सफेद ही शोभा पाती है इसीलिए तो सजी-धजी सफेद घोड़ी पर हाथ में तलवार, सिर पर मुकुट बांधे दुल्हे महाराज के चेहरे की रंगत देखते ही बनती है। खुद को खुदा समझने वाले को जल्दी ही आटे दाल का भाव मालूम हो जाता है तो चेहरे पर नित नये रंग देखे जा सकते हैं। जब कभी तनाव और गृहस्थी संभालने के बोझ तले दबे होने के कारण शेविंग की भी सुध नहीं रहती तो बड़ी हुई दाढ़ी अच्छो-अच्छों का मंुह काला कर देती है। बच्चों की मांगे सुरसा की तरह बढ़ने लगी तो जनाब सहानुभूति के लिए अपनी अर्द्धागिनी की ओर देखते हैं लेकिन कभी कमलनयनी रही मैडम के नयनों से दहकत ंशोले उसे ज्वालामुखी का रूप प्रदान करते हैं। अब आप ही बताओं, जनाब का रंग पीला पड़ने से कैसे रोका जा सकता है? और हाँ, शादी के कुछ सालों बाद ही बेचारे की कुल जमा छ पेंट- कमीजों के रंग एकाकार होने लगते हैं जबकि मैडम की साड़ियों की ‘वाईड रेंज’ में मौजूद हर रंग के बाद भी संतोष का खुशनुमा रंग ढूंढने पर भी नहीं मिलता। बच्चे पढ़ाते-निपटाते साहब तो सफेदी ओढ़ लेते हैं लेकिन मलिका पुखराज अपने बालों की कालिख किसी न किसी तरह बरकरार रख ही लेती है।
जिनके पास काली-पीली कमाई आती है वे अलग ही पहचाने जाते हैं। उनकी कोठी में रंग बिरंगी कारों का काफिला देखकर भ्रम होता है कि कारों का बाजार है या सर्विस स्टेशन? द्वार पर खाकी रंग को देखकर विश्वास करना ही पड़ता है ‘नेताजी का बंगला ही होगा!’
सुनाते हैं रंग तो महज सात ही होते हैं। सोचता हूँ फिर ये हजारों रंगों कहाँ से आये? क्या जरूरत थी इनकी जबकि गायब है प्रेम और शांति का रंग। गुणी जन कहते है कि सातों रंगों को मिला देने से जो रंग बनता है वह सफेद होता है। सफेद यानी सद्भावना। हाँ, सभी का एकाकार हो जाना ही तो शांति की सबसे पहली शर्त है। दूध और पानी की तरह, अपना आस्तित्व समुद्र में विलिन करती नदियों की तरह। आश्चर्य होता है कि शांति के नाम पर दुनिया भर में विभिन्न रंगों की खाक छानने वाले इतनी सीधी सी बात क्यों नहीं समझते। वे शांति तो चाहते हैं लेकिन मरघट सी। जैसी कभी हिरणाकश्यप ने चाही थी। स्वयं अपने ही पुत्र को मार कर शांति चाहने वाले को होलिका मिल गयी। आज भी तो ऐसे लोगों की कमी नहीं है। वे कहाँ समझते हैं कि मरघट में धुआ और धूल होती है, क्रंदन होता है लेकिन कभी किलकारी नहीं होती। छनछनाहट और खनखनाहट नहीं होती और न ही होती है शहनाई, ढोल, ताशे की मंगल ध्वनि। क्या शांति के ऐसे रंग का कोई स्वागत करना चाहेगा? नहीं, हर्गिज नहीं! सभी को चाहिए काश्मीर के केसर की खुश्बु, रंग- बिरंगे फूलों को चहकते भोले-भाले बच्चें, प्रगति के रंग बिखेरता हुआ भारत!
कहने को बहुत कुछ है लेकिन आपसे बार-बार मिलने की चाह है इसलिए शेष फिर। शायद आपको लगेे कि बाबा को होली पर जरा ज्यादा चढ़ गई है तो बता दूं, होली पर रंग संग कीचड़ भी चलता है। लेकिन ध्यान रहे-
भंग का रंग चढ़े पर रंग में भंग न हो।
रंग खेलने से पहले समझ लो -
देखो मुझ पर रंग न डालो,
डालो तो यूँ डालो, हम-तुम वे सब
ये सारा जग इक रंग में रंग जाये।
जैसे चटक चांदनी सारी है छिति को चमकाती,
जैसे रजनीगंधा सारे उपवन को महकाती ,
एक सुरीला गीत लुभाता है सारी महफ़िल को,
जैसे वसुंधरा सारे जग की माता कहलाती।
भिन्न-भिन्न नदियों का जल मिल ज्यों सुरसरी कहलाये।
हम-तुम वे सब ,ये सारा जग इक रंग में रंग जाये।
होली की अनंत शुभकामनाओं सहित - बावला बाबा
व्यंग्य-----बावले बाबा संग होली के रंग-- डा. विनोद बब्बर
Reviewed by rashtra kinkar
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