खून के रिश्तों पर फिरता पानी --- डा. विनोद बब्बर

पाषाण काल से आधुनिक सभ्यता तक का सफर मानवीय संबंधों के परस्पर आकर्षण की गाथा है। आदिमानव से परिवार और समाज की ओर बढ़ना रिश्तों के कारण हीं संभव हुआ, जिसने दुनिया की तस्वीर ही बदल दी। अपने परिवार और निकटजनों के जीवन को सुखकर बनाने के लिए, तो कभी रिश्तों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करने के लिए मनुष्य ने क्या नहीं किया। ‘आसमान से तारे तोड़ लाने’ की बात अकारण नहीं है। वास्तव में, आज की समस्त भौतिक सुख-सुविधाएं और नित नये आविष्कार मानवीय संबंधों से, संबंधों द्वारा, संबंधों के लिए ही तो है। दुनिया से कटे एक-अकेले व्यक्ति को धन कमाने, महल खड़ा करने और नये-नये आविष्कारों का जरूरत ही नहीं होती। इतनी महिमा होते हुए भी आज इन्हीं संबंधों की नींव पर खड़ा समाज और समाज की मर्यादा और शांति खतरे में है। परिवार टूटन के कगार पर है। पति-पत्नी के जिस रिश्ते को मन, वचन, कर्म, धर्म से निभाना चाहिए, आज के भौतिकवादी युग में इस रिश्ते में व्यापक परिवर्तन आ रहा है। इसे पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव कहें या अपनी कमजोरी, जो इस पावन रिश्ते में जहर घोल रही है। उन्नति के नए रास्तों से भी दाम्पत्य जीवन में कुछ नई चुनौतियां उभरने लगी है। फिर भी यह मानना होगा की यदि कितना भी परिवर्तन क्यों न आ जाए।
पिछले दिनों दिल्ली में रॉ अधिकारी अनन्य चक्रवर्ती ने जिस बेरहमी से पत्नी और बेटा  बेटी की दरांती व हथौड़ी से सिर पर वारकर हत्या का का हृदय- विदारक समाचार सामने आया।  चरित्र पर शक के कारण हुई इन हत्याओं के तरीके को देखते हुए साफ है कि घटना को पूरी तैयारी के साथ दिया था। ऐसी अनेक घटनाएं हैं। सभी का उल्लेख करना न केवल अनावश्यक है, बल्कि शर्मनाक भी है क्योंकि ये परिवार नामक संस्था पर कलंक हैं, जहाँ रिश्ते की पवित्रता और गरिमा की खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान देने तक से संकोच नहीं किया जाता। आखिर, फिज़ां में ऐसा क्या ज़हर घुल गया है कि लोग रिश्तों की मर्यादा को भूल रहे हैं। जिन संबंधों के लिए अपनी जान तक दी जाती थी, आज जान लेने से भी लोग संकोच नहीं करते। आखिर, खून के रिश्तों को स्वार्थ की काली छाया कलंकित क्यों कर रही है, क्यों सफेद हो रहा है हमारा अपना खून ?
‘खून पुकारता है!, ‘खून पानी से गाढ़ा होता है’, ‘अपना-अपना होता है’ जैसे अनेक जुमले अचानक थोथे क्यों दिखाई देने लगे?  ऐसा लगता है कि हम अपनी संस्कृति को भुला बैठे हैं अथवा आदर्शों को व्यवहार में उतारने की बजाय उनके गीत गाने तक ही सीमित रहे हैं। इन घटनाओं में यदि हम कन्या भ्रूण-हत्याओं और वैवाहिक संबंधों में बढ़ती दरार को भी शामिल कर दें, तो तस्वीर काफी भयावह दिखाई देने लगेगी। इस जहरीले वातावरण का दोषी कौन है और इसका समाधान क्या है? 
यह प्रश्न समाज के हृदय को आन्दोलित करना चाहिए। आखिर, पारिवारिक रिश्तों के बीच कैक्टस कौन बो रहा है?  किसकी नजर लगी है, मेरे देश को? यदि इस प्रश्न का उत्तर चाहिए, तो अपने ही मन को टटोलना होगा। क्या हम सचमुच अपने संबंधों के प्रति ईमानदार हैं? कहीं यह सब पिछले कुछ वर्षो से टीवी चैनलों पर परोसी जा रही तड़क-भड़क, विकृत संस्कृति, कामुकता, विवाहेतर संबंधों को अनदेखा करने के परिणाम तो नहीं हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि देश के एक वर्ग को इसकी रत्ती-भर भी चिंता नहीं हैं।  पश्चिम की अमर्यादित संस्कृति को यहाँ फलने-फूलने का मौका दिया जा रहा है। ऐसे में, संस्कार-विहीन लोग अक्सर हिंसक होकर अपनों की जान लेने तक उतर आते है तो आश्चर्य की क्या बात है? यह भोगवाद की संस्कृति और भौतिक पदार्थों की मृग-मरीचिका का उप-उत्पाद है जो केवल अपने सुख-सुविधाओं और अहम के आगे सोचती ही नहीं जबकि हमारे सद्ग्रन्थ हमें त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देते हैं। पूरे वातावरण को कलुषित करने वाली ऐसी घटनाएं हमारी शिक्षा प्रणाली को भारतीय संस्कृति के नैतिक पक्ष से विमुख करने के प्रति सावधान करती है।  समाज में एक दूसरे के प्रति संवेदना हो, आवश्यकता पड़ने पर एक हाथ दूसरे हाथ की मदद करने के लिए खुद-बखुद आगे आना चाहिए।  ऐसे श्रेष्ठ संस्कार राष्ट्र की नई पीढ़ी में कैसे रोपित किये जाएं, यह चिंता पूरे समाज की होनी चाहिए।  
यह सर्वविदित है कि आज परिवार टूट रहे हैं। संयुक्त परिवार एकाकी हो रहे हैं। यह भी शर्मनाक परन्तु सत्य है कि अब परिवार तो क्या, उसका हर सदस्य भी एकाकी हो चला है। कुछ लोग पैसे की चमक-दमक और आत्म-केंद्रित सोच को पारिवारिक तनाव और कटूता का कारण मानते हैं। यदि सचमुच ऐसा है, तो यह कैसी उन्नति है, जिसमें मनुष्य में मनुष्यता का लगातार पतन हो रहा है? 
क्या आपका मन आपसे यह प्रश्न नहीं करता कि आखिर कहाँ पहुँच गये हैं हम और हमारा समाज? आपसी संबंधों में तनाव की परिणति हिंसा में होना सचमुच सिहरन पैदा करता है।  इसके अनेक कारण हो सकते हैं।  आज, हम एक ऐसे समाज का अंग बनते जा रहे हैं जहाँ हर आदमी आत्मकेंद्रित है। उसमें स्वार्थ कूट-कूटकर भरा है। कोई किसी की बात ही नहीं सुनना चाहता। अब, हर समय तो कोई आपकी प्रशंसा, स्तुति, वंदना नहीं कर सकता, गलत को गलत भी कहना पड़ता है। यदि परिवार के किसी एक सदस्य को अधिक धन अथवा यश प्राप्त होता है, तो बाकी सदस्य उसे ईर्ष्या के रूप में क्यों ले? नशे का बढ़ता चलन भी खतरनाक है। आज, हर शादी पार्टी में नशे का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। कुछ लोग नशें में सुध-बुध खोकर संबंधों की मर्यादा को भी भूल जातेे हैं। आज नशे के बदलते हुए रूप सामने आ रहे हैं। दौलत का नशा, रूप का नशा, सत्ता का नशा, योग्यता का नशा, ऊँचे संबंधों का नशा, जब और कोई नशा नहीं हो, तो अहम का नशा। 
क्या यह कटु सत्य नहीं कि आज हम बड़ी-बड़ी बातंे तो कर सकते हैं परन्तु, इस बुराई के विरुद्ध एक भी कदम उठाते हुए हमारे पाँव काँपने लगते हैं।  यदि हम अब भी नहीं चेते, स्वयं को संस्कारित ढ़ाँचे में नहीं ढाला, तो बहुत संभव है कि रिश्तों पर पानी फेरती घटनाओं का अगला शिकार हम ही हों।
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