अलगाववादी धारा 370 को अलविदा कहने की बेला
सारी दुनिया जानती है कि भारतीय जनता पार्टी और उसकी पूर्ववर्ती संस्था जनसंघ सहित देश का प्रत्येक राष्ट्रवादी एक देश में एक संविधान, एक निशान के पक्षधर है। भारतीय संविधान में अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष उपबन्ध सम्बन्धी भाग 21 का अनुच्छेद 370 है। डा. श्यामाप्रसाद मुकर्जी का बलिदान भी इसी मुद्दे को लेकर हुआ था।अपने चुनाव अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी ने जम्मू में कहा था, ‘अगर जम्मू कश्मीर में धारा 370 नहीं होती तो जम्मू-कश्मीर एक समृद्ध व खुशहाल राज्य होता। कांग्रेस को नेहरूजी के उस वादे को पूरा करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि धारा 370 समय के साथ समाप्त हो जाएगी। भाई उमर को यह बताना चाहिए कि गुलाम कश्मीर के डोडा विस्थापितों को कश्मीरी पंडित शरणार्थियों को बराबरी के आधार पर पुनर्वास व राहत की सुविधा क्यों नहीं?’
सत्य तो यह है कि जम्मू एवं कश्मीर में जारी हिंसा व अलगाववाद के लिये यदि कोई जिम्मेदार हैं तो वह है धारा 370। अब जबकि भाजपा की विचारधारा को जम्मू कश्मीर सहित सारे देश में बहुमत के साथ स्वीकारा जा चुका है, धारा 370 की प्रासंगिकता पर बहस होनी चाहिए। यह उपयुक्त ही है कि नई सरकार में मंत्री एवं जम्मू कश्मीर से सांसद चुने गए डा. जितेंद्र सिंह ने चर्चा आरंभ की ही थी कि बहस का स्वागत करने की बजाय राज्य को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझने वाले उमर अब्दुल्ला ने देशद्रोही बयान देते हुए कहा, ‘370 को हटाने का असर कश्मीर के भारत से अलग हो जाने तक भी हो सकता है।’ इसके जवाब में संघ के प्रवक्ता राम माधव ने बिल्कुल उचित कहा, ‘ अनुच्छेद 370 रहे न रहे, जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग था और हमेशा रहेगा।’ दुखद आश्चर्य की बात है कि देश में वर्षों शासन कर चुकी कांग्रेस ने वर्तमान जनादेश से कोई सबक सीखने की बजाय अपना बेसुरा राग अलापना जारी रखा।
धारा 370 को नेहरू की जिद्द पर अस्थाई प्रावधान के रूप में इस आशा से स्वीकार गया था कि शीघ्र ही जम्मू-कश्मीर भी दूसरे राज्यों की तरह भारत संघ में रच बस जाएगा, किंतु ऐसा नहीं हो सका। हद तो तब हुई जब अनुच्छेद 35 5क जोड़ा गया है जो केवल इसी राज्य में लागू है। इके अनुसार राज्य विधानसभा भारतीय संविधान के दायरे के बाहर जाकर भी कानून बना सकती है। जैसे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लोगों को वहां निवास करने सहित तमाम अधिकार दिया जा सकता है, किंतु शेष भारत के लोगों को उनसे वंचित किया सकती है। यह सब कुछ अब्दुल्ला परिवार इस प्रावधान का उपयोग अपने राजनैतिक हितों के लिए किया जिससे यह भारतीय राज्य कानून और संविधान के लिहाज से एक अलग द्वीप बन गया। इस विशेष अनुच्छेद के प्रावधानों के अनुसार, संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में रक्षा, विदेश मामले और संचार के अतिरिक्त किसी अन्य विषय से सम्बन्धित क़ानून को लागू करवाने के लिये केन्द्र को राज्य सरकार की स्वीकृति चाहिए। धारा 356 लागू न होने के कारण राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्ख़ास्त करने का अधिकार नहीं है। 1976 का शहरी भूमि क़ानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता।जिसके तहत दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं ख़रीद सकते। यहां आरटीआई लागु नहीं है।
जम्मू-कश्मीर के नागरिकों के पास दोहरी नागरिकता है। उनका राष्ट्रध्वज अलग है। यहां भारत के राष्ट्रध्वज या राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान अपराध नहीं है। उनकी विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्षं है जबकी अन्य राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष है। उच्चतम न्यायलय के आदेश वहां मान्य नहीं हैं। जम्मू कश्मीर की कोई महिला यदि भारत के किसी अन्य राज्य के व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसकी नागरिकता समाप्त हो जाती है इसके विपरीत यदि वह पकिस्तान के किसी व्यक्ति से विवाह कर ले तो उसे भी जम्मू-कश्मीर की नागरिकता मिल जाती है। महिलाओ पर शरियत लागु है। देश भर के अल्पसंख्यको को मिलने वाली सुविधाएं यहां के (हिन्दू-सिक्खों) को नहीं मिलती।
यहां यह स्मरणीय है कि कांग्रेस में भी इस प्रावधान का विरोध था। नेहरू जी ने अपने रक्षामंत्री गोपालस्वामी अयंगार को इन प्रावधानों को आगे बढ़ाने का काम सौंपा था। जब अयंगार ने अपने प्रस्तावों को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में प्रस्तुत किया तो चारों ओर से रोषपूर्ण विरोध के स्वर उठने लगे। मौलाना आजाद को भी शोर मचाकर चुप करा दिया गया। सरदार पटेल भी इसके पक्ष में नहीं थे; लेकिन नेहरू और गोपालस्वामी अयंगार के निर्णयों में दखलंदाजी न करने की अपनी स्वाभाविक नीति के चलते मौन रहे। लेकिन पटेल अयंगार को प्रेषित पत्र में लिखते हैं, ”मैंने पाया कि मूल प्रारूप में ठोस बदलाव किए गए हैं, विशेष रूप से राज्य नीति के मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक सिध्दान्तों की प्रयोजनीयता को लेकर। आप स्वयं इस विसंगति को महसूस कर सकते हैं कि राज्य भारत का हिस्सा बन रहा है और उसी समय इन प्रावधानों में से किसी को भी स्वीकार नहीं कर रहा।” अंत में इसे ‘अंतरराष्ट्रीय जटिलताओं के कारण एक कामचलाऊ व्यवस्था’ का नाम देकर देश पर थोपा गया।
यह कटु सत्य है कि धारा 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान ने कश्मीर घाटी के अधिकांश युवकों को भारत की मुख्य राष्ट्रीय धारा से जुड़ने नहीं दिया। प्रादेशिक संविधान की आड़ लेकर जम्मू-कश्मीर के सभी कट्टरपंथी दल और कश्मीर केन्द्रित सरकारें भारत सरकार द्वारा संचालित राष्ट्रीय महत्व के प्रकल्पों और योजनाओं को स्वीकार नहीं करते। भारत की संसद में पारित पूजा स्थल विधेयक, दल बदल कानून और सरकारी जन्म नियंत्रण कानून को जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता। जो सिरफिरे इस अलगाववादी धारा को कश्मीरियों की संस्कृति की रक्षा से जोड़ते हैं वे भूलते हैं कि संस्कृति की रक्षा स्वयं उनके अनुयायी करते हैं पर समयानुकूल परिर्वतनों को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। स्वयं कश्मीर का युवक आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर रहा है। उनका रहन-सहन बदला है। उसे अनावश्यक कट्टरवादी सोच में उलझाएं रखने वालों को समझना चाहिए कि धारा 370 के नाम पर कश्मीरी मुसलमानों को बाकी देश से अलग कर किसी का भी भला नहीं होने वाला नहीं है।
आज जम्मू कश्मीर सहित देश की जनता ने भाजपा को पूर्ण बहुमत देकर धारा 370 से जुड़ा वायदा पूरा करने की जिम्मेदारी सौंपी है लेकिन कुछ तत्व कश्मीर के भारतीयकरण में अपनी रोजी-रोटी पर संकट देख हाय तौबा करने से बाज नहीं आ रहे है। ये वे लोग हैं जिन्हें कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर मौन रहे। उनकी वापसी के लिए कुछ नहीं किया। आज उन्हें ‘क्या 370 से राज्य की आम जनता को भी कुछ लाभ हुआ या उनके हिस्से में केवल नुकसान और अपयश ही आया’ पर बहस से भी परहेज है क्योंकि उनकी पोल खुलने का डर है। 1951 में जनसंघ के जन्म से लेकर आज तक हम न केवल सुस्पष्ट, स्पष्टवादी और सतत् दृष्टिकोण बनाए हुए हैं, अपितु यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे लेकर डा. श्यामाप्रसाद मुकर्जी ने अपना बलिदान देकर राष्ट्रीय एकता को मजबूत किया। अब जबकि इसी माह डा. मुकर्जी की पुण्यतिथि तथा जयंती है, उनके विचारपुत्रों का धारा 370 पर बहस आरंभ करना सर्वथा उचित ही नहीं समय की मांग है। इस विषय पर सुरक्षात्मक रवैये की बजाय पूरी सजगता के साथ देश के सम्मुख रखा जाना चाहिए। यदि इस बहस के आरंभ में कश्मीर के कुछ गैरराजनैतिक बुद्धिजीवियों सहित देश के प्रबुद्ध लोगों की एक अध्ययन टीम बनाई जाए जो यह देखे कि कश्मीर की आम जनता को इस अलगाववादी धारा के रहते क्या-क्या खोना पड़ा है। केवल राजनैतिक नारे नहीं, ठोस कार्यवाही ही डा. मुकर्जी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी और भारत के इस मस्तक प्रदेश में स्थायी शांति का मार्ग प्रशस्त होगा। देश व्यग्रता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा है जब धारा 370 हटेगी, दो विधान एक हो जाएंगे। आज जो अपनी राजनैतिक दुकानदारी बचाने के लिए प्रदेश और देश का अहित कर रहे हैं उन्हें भी सद्बुद्धि आएगी। -- डा. विनोद बब्बर
अलगाववादी धारा 370 को अलविदा कहने की बेला
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