राष्ट्र, धर्म और राजनीति--- डा. विनोद बब्बर

हाल ही संपन्न हुए लोकसभा चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हुए। एक गरीब परिवार के बच्चा का देश के सर्वाधिक शक्तिशाली पद तक पहुंचना दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की शक्ति है। आज सारी दुनिया कभी चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को मिली इस आशातीत सफलता पर हैरान है  लेकिन कुछ अपनो को यह ‘हजम’ नहीं हो रहा है। इसीलिए वे इस अभूतपूर्व निर्णय को छोटा साबित करने के बहाने तलाश रहे है। असफलता की भविष्यवाणियां की जा रही है। आश्चर्य है कि अपने परस्पर विरोधी आंकलनों के कारण वे स्वयं उपहास का पात्र बन रहे हैं पर होंठों पर जनता-जनार्दन के फैसले को नकारने का दुस्साहस है, कुटिल मुस्कान है। ऐसे लोग जो स्वयं को धर्मनिरपेक्षता का ध्वज वाहक बताते नहीं थकते, इस बार उनके तमाम प्रयास उस समय असफल हो गए जब मोदी के विरूद्ध अल्पसंख्यकों के मन में खौफ पैदा कर अपने ध्रवीकरण नहीं करा सके। इमाम को अपने पक्ष में मतदान की अपील करवाने वालों को अपनी करनी का उल्टा फल मिला जब क्रिया के बाद प्रतिक्रिया हुई और बहुसंख्यक समाज में ध्रुवीकरण हुआ। परिणाम सामने है अतः आतंक के चुनाव में धर्म के नाम पर समाज के न बंटने पर खिन्न है। एक नेत्री ने तो एक सम्प्रदाय विशेष  को इसलिए कोसा है कि उन्होंने उस नेत्री के दल को अपना समर्थन नहीं दिया इसलिए उनकी संसद से उपस्थिति ही नहीं रही। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के एक घोर साम्प्रदायिक मंत्री मुसलमानों के बीजेपी के झांसे में आने की शिकायत करते नजर आ रहे है जबकि एक पत्रकार मित्र जीत को फीकी करने के लिए कहते हैं, ‘देश में 543 चुनाव क्षेत्र थे लेकिन मोदी ने वाराणसी को ही चुना जहां मंदिर-मस्जिद विवाद हैं। यह धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल की उनकी मानसिकता दर्शाता है।’ बिहार में अपनी करनी का फल सामने पर मुख्यमंत्री जी जो दीवार पर लिखी अपनी हार को भी नहीं पढ़ सके पर जनता के फैसलें की व्याख्या करते हुए इसे धर्म और राजनीति के घालमेल का परिणाम बता रहे है। ऐसे में आवश्यक है कि हम धर्म और राजनीति के संबंधों पर स्वस्थ्य बहस करें। 
यह विशेष रूप से समझना होगा कि जिस यूरोप को हमारे तथाकथित आधुनिक लोग आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हैं वहाँ भी राजनीति और धर्म अलग नहीं है। पिछले दिनों ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने अपने धार्मिक विश्वास की चर्चा करते हुए कहा था कि वह एक प्रतिबद्ध ईसाई हैं और स्थानीय चर्च के दिखाए रास्ते पर चलकर उन्होंने भरपूर शांति और मदद पाई है।’ उन्होंने  चर्च टाइम्स से कहा कि ‘यह मेरी ईसाइयत ही है, जिसने मुझे लोगों की जिंदगी संवारने की कोशिश के लिए प्रेरित किया। जो लोग ‘धर्मनिरपेक्ष तटस्थता’ को अपनाते हैं, वे उसके नतीजे को समझने में नाकाम रहते हैं।’ वैसे  कैमरन पहले प्रधानमंत्री नहीं है। उनसे पहले  मार्गरेट थैचर ने 1985 में  सार्वजनिक रूप से अपनी धार्मिक आस्था को प्रकट किया।
जहाँ तक भारत का प्रश्न है, यहाँ अनेक धर्म है। नाना प्रकार की परम्पराएं-प्रथाऐं हैं। विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं के बावजूद सम्पूर्ण समाज, साहित्य, सभ्यता, संस्कृति और राजनीति एक-दूसरे से  प्रभावित है। विविधता में एकता भारतीय लोकाचार का सौंदर्य और विशिष्टता है। एकात्मता का भाव था, है और रहेगा जिसे अपने तुच्छ राजनैतिक लाभ के लिए तोड़ने की कोशिशें हो रही है। जबकि राजनैतिक विचारक डॉ.राम मनोहर लोहिया की दृष्टि में ‘धर्म, दीर्घकालीन राजनीति है, और राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। धर्म और राजनीति मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें।’ शायद इससे बढ़िया धर्म और  राजनीति की परिभाषा होना मुश्किल है। इसी प्रकार राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने एकाधिक बार कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सर्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविशवासों और ढकोसलों का धर्म नहीं। नैतिकता से बिलग राजनीति को त्याग देना चाहिए।’ स्पष्ट है कि गांधी, लोहिया के विचार आज भी प्रासंगिक है। आश्चर्य है कि उनके नाम का इस्तेमाल कर सत्ता-सुख भोगने वाले बेशक स्वयं इसे  बहुत पहले त्याग चुके हैं पर दूसरों पर हमला करने के लिए राजनीति और धर्म, राष्ट्रधर्म जैसे शब्दों का दुरुपयोग कर रहे है। यहां यह स्मरणीय है, किसी भी राष्ट्र की उत्पति धर्म और संस्कृति के मिलन से होती है। अगर यू कहा जाये कि ‘राष्ट्र शरीर है तो धर्म उसकी आत्मा और संस्कृति उसकी तंत्रिकाये है जिनमें रक्त संचरण का दायित्व राजनीति का है। किसी भी नागरिक का प्रथम एवं प्राकृतिक धर्म अपने राष्ट्र के प्रति दायित्व बोध से आरंभ होता है।’ तो गलत न होगा।
महान विचारक ओशो के मतानुसार ‘धर्म जीवन को जीने की कला है,  विज्ञान है, जीवन को उसके पूरे अर्थों में कैसे जिएं उसकी खोजबीन है। यानि धर्म यदि जीवन-कला की आत्मा है, तो राजनीति जीवन-कला का शरीर है। धर्म अगर प्रकाश है तो राजनीति पृथ्वी है। भारत में राजनीति और धर्म दोनों जैसे विरोधी रहे हैं। यह एक दूसरे की तरफ पीठ किए हुए हैं। यह आज की ही बात नहीं है, हजारों वर्षों से ऐसा होता आ रहा है और इसका परिणाम हमने भोगा है। हजार वर्ष की गुलामी इसका  बेहद संजीदा उदाहरण है। हिंदुस्तान गुलाम हुआ, क्योंकि हिंदुस्तान के धार्मिक लोगों के मन में ऐसा नहीं लगा कि उन्हें कुछ करना चाहिए। धार्मिक लोग कहते  रहे कि राजनीति से कुछ लेना -देना नहीं है। आश्चर्य कि वे नहीं समझ पाए कि राजनीति के धर्मनिरपेक्ष होने का क्या अर्थ है? वे नहीं समझे कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, श्रेष्ठ है, राजनीति को उससे प्रयोजन होना चाहिए।’
आज जब देश के साम्प्रदायिक सद्भाव को वोट बैंक के लिए नष्ट करने की कोशिश हो रही है, ऐसे में डा. एपीजे कलाम जैसा व्यक्तित्व हमारे सामने आदर्श है जो राष्ट्र धर्म और संस्कृति मे आस्था रखते है। इसी प्रकार से हाल ही में जमीयत उलेमा- ए-हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने बिल्कुल दुरुस्त फरमाया है, ‘अगर हिंदू, सिक्ख, बौद्ध, पारसी, जैन, यहूदी, आपस में अमन से रह सकते हैं तो सिर्फ  मुसलमान ही क्यों नहीं रह सकते? इस्लाम के नाम पर जिहाद, दंगे, बम धमाके, आतंकवाद, हिंसा फैलाने से न तो हम मुस्लिमों का और न ही गैर मुस्लिमों का भला हुआ। आज इस्लामी देशों की 100 प्रतिशत आबादी मुस्लिम होकर भी वहां मुसलमानों की हालत बदतर है। हिंदुस्तान ने हम मुसलमानों को इतना दिया कि हम उसका कर्ज कभी नहीं चुका पायेंगे। हमें मुसलमान नहीं बल्कि भारतीय बनकर देशभक्त की तरह रहना सीखना होगा।’ 
जिनके मन में संशय उठ रहे हैं कि राजनीति का क्षेत्र कर्म है या  धर्म है, या कर्म के लिए धर्म है अथवा धर्म के लिए कर्म है, उन्हें समझना चाहिए कि धर्म का कार्य है लोगों को सदाचारी और प्रेममय बनाना और राजनीति का उद्देश्य है जनता के हित के लिए काम करना। सावधानी के तौर पर हम बेशक धर्म में राजनीति के हस्तक्षेप को अस्वीकार करे  परंतु राजनीति सें धर्म (नैतिक मूल्यों) को अलग करने की भूल हर्गिज न करें। इस बात से शायद ही किसी को ऐतराज हो कि दूरगामी विवेकशीलता के सहारे सभी मनुष्यों को एक परिवार मान कर समस्याओं को हल करना यदि राजनीति है तो विज्ञान भी। कभी न्याय, धर्म और समाज की एकता की रक्षा के लिए राजनीति शस्त्रधारी नियुक्त करती थी तो आज राजनीति को अपनी इस जिम्मेवारी को पूरा करने के लिए विज्ञान का सहारा लेना पड़ता है। हर धर्म को ‘केवल हम ही श्रेष्ठ, शेष काफिर’ जैसी ग्रन्थि से मुक्त करने के लिए जरूरी है कि सभी  धर्म अंधविश्वासों और पंड़ों-कटमुल्लों से मुक्त हो, धार्मिक विश्वासों का वैज्ञानिक अध्ययन हो। इसी में है हम सबका हित। आखिर राष्ट्रधर्म व्यक्तिगत विश्वासों से कहीं बड़ा होता है। स्वयं को लोहियाजी का शिष्य बताने वाले भूलते हैं कि रामायण मेले लोहियाजी की परिकल्पना की थी। वे कहा करते थे, ‘हे भारत माता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
राष्ट्र, धर्म और राजनीति--- डा. विनोद बब्बर राष्ट्र, धर्म और राजनीति--- डा. विनोद बब्बर Reviewed by rashtra kinkar on 03:53 Rating: 5

No comments